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किसको चाहिये वीणा वादिनी का वर ..

फंटूश
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वाह रे आदमी!
(मधुरेश, पटना).
यह उतनी छोटी बात नहीं, जितनी समझी जा सकती है। सरस्वती पूजा के गुजरे कई दिन हो गये। अभी तक मोबाइल पर एक भी मेसेज नहीं आया।
मैं न्यू इयर, मकर संक्रांति, लालू- राबड़ी के रुटीन जोक्स, जानमारू ठंड इनज्वाय के टिप्स और ऐसे तमाम मेसेज कि ‘सोनी से बात करने को डायल करें .., डाली के लिए .., और सानी-गुडि़या-जानी-रूम्पा के लिए फलां -फलां नम्बर ..; चार्ज प्रति मिनट 15 रुपया’ को इरेज कर इनबाक्स खाली रखे था। मां शारदे से जुड़ा एक भी मेसेज नहीं टपका।
दशहरा और दीपावली में तो ऐसा नहीं होता है। मां दुर्गा एवं मां लक्ष्मी की आराधना के दौरान इतने मेसेज कि कई-कई एक्सपायर कर जाते हैं। भाई लोग टेलीफोन पर भी बधाई, शुभकामनाएं देते हैं। अब तो पोंगल, भैया दूज, लोहड़ी, फादर्स डे, मदर्स डे, चीज डे, हैंड वाश डे, फ्रेंडशिप डे, रिपब्लिक डे .., मेसेज के लिए कुछ बचा है? अंग-प्रत्यंग तक पर मेसेज। होली-छठ की पूछिये मत। लेकिन ऐसा कोई मेसेज क्यों नहीं आता है कि ‘मां सरस्वती आपको विद्या-बुद्धि-ज्ञान से पूर्ण करें।’
बात सिर्फ मेसेज की ही नहीं है। सरस्वती पूजा में कहां दशहरा और दीपावली जैसी भव्यता दिखती है? क्यों? क्या समाज उस बाजारू परिवेश का पर्याय बन गया है, जहां शक्ति और धन की आकांक्षा है? इसके आगे विद्या गौण हो रही है? क्या भारतीय संस्कृति का स्थापित सूत्रवाक्य बदल चुका है कि जीवन का मूलाधार विद्या है। बचपन में पढ़ी गयी बात बेकार हुई कि-‘विद्या विनय देती है। विनय से पात्रता मिलती है। पात्रता से धन की प्राप्ति होती है। और फिर चरम सुख।’ मुझे तो विद्या के मामले में शक्ति और धन जैसी उत्कट कामना नहीं दिख रही है? आपको दिखती है?
शहर के अधिकांश स्कूलों में सरस्वती पूजा नहीं होती है। कई अंग्रेजी स्कूल संभवत: इसे ‘लो ग्रेड मेन्टालिटी’ मानते हैं। दरअसल बाजार ने अपने हिसाब से देवी-देवताओं को प्रचारित किया हुआ है। दुर्गा, लक्ष्मी, फिर तरह -तरह के स्वरूप वाले गणेश जी। गणेश जी का मार्केट से सीधा सरोकार बना दिया गया है। कमोवेश सभी प्रमुख देवी-देवताओं के नाम पर रक्षा कवच है। बड़ी चालाकी से इसमें विद्या भी समाहित कर दी गयी है। मां शारदे कहीं नहीं हैं। मुझे लगता है कि उनकी आरती भी बहुत कम लोगों को याद होगी। भट्ठा छुआने (अक्षर पूजा) की परंपरा बदली है। पालना घर की सिस्टर पंडित जी की भूमिका में है।
खैर, मैं जीवन के तेज बदलाव से रूबरू हूं। उस दिन सड़क पर मां सरस्वती का विसर्जन जुलूस देख रहा था। ठेले पर मां की प्रतिमा। ठेला, सड़क किनारे ठेल दिया गया था। लाउडस्पीकर हिनहिना रहा है-‘मिस काल मारऽ तारू किस देबू का होऽऽऽ ..’; ‘तू लगवलू जब लिपस्टिक हिलेला सारा डिस्टीक’, बौराये ‘सरस्वती-पुत्र’ अपनी कमर और दूसरों की सिर तोड़ रहे थे। सीडी बदलने पर मार फंसी थी। लगा, बच्चे गंगा घाट पहुंचने के पहले अपनी बुद्धि प्रवाहित कर चुके हैं। बिहार के कई हिस्सों में तो विसर्जन जुलूस में बम तक फटे। यह सब एक उम्र की मस्ती नहीं है, बल्कि चेतावनी है कि कैसे बच्चों के रूप में एक बड़ी खतरनाक जमात पनप रही है? उम्र के साथ इसका भटकाव और विस्तारित होना है और ये अंतत: आदर्श व्यवस्था की चुनौती ही साबित होंगे।
यह बस बच्चों की करतूत है? वही जिम्मेदार हैं? बच्चों को बहकाने में बड़ों का बड़ा योगदान है। विधानसभा का हंगामा देख दर्शक दीर्घा में बैठे बच्चे यूं ही नहीं कहते कि ‘नेता नहीं बनूंगा।’ बच्चे, उम्र से पहले बड़े हो गये हैं। कौन जवाबदेह है? बच्चों का तरह-तरह से इस्तेमाल हो रहा है। सड़क पर उत्पात का कोई भी मौका हो, बच्चों की टोली आगे रहती है। हाथ में पत्थर, डंडा और जुबान पर जिंदाबाद-मुर्दाबाद के नारे, गालियां। बच्चे कारों के शीशे तोड़ते हैं, बसों में आग लगाते हैं और बड़े (नेताजी) मुस्कुराते हैं। नेता, बच्चों से पुतले के चेहरे वाले हिस्से पर पेशाब करवाते हैं। बच्चे, बड़ों की मौज-मस्ती का सामान हैं, किरदार हैं। बच्चों को पुचकार नेता समाज को तुष्ट करता है। बच्चे, नामांकन अभियान के नाटक के पात्र हैं। वे एयरकंडीशन कमरे में लजीज भोजन के बीच चलने वाली बैठक का एजेंडा हैं। उनके नाम पर कई-कई अभियान व उनके संचालक पल रहे हैं। दोपहर का भोजन, एकटकिया योजना, पोषाहार, अन्नप्राशन, दुलार रणनीति, पोषण पौधशाला, पोषण शिक्षा, बाल अधिकार समिति, समेकित बाल विकास सेवा परियोजना, वैकल्पिक पोषाहार, आंगनबाड़ी, बाल संजीवनी, कुपोषण से मुक्ति की योजनाएं .., बंधुआगिरी से मुक्त बच्चों के पुनर्वास की अलग दुकानदारी है। कुछ लोग बचपन बचाने का ठेका संभाले हैं। बच्चों का इस्तेमाल, लाशों का संतुलन बनाने में भी होता है। चाचा नेहरू के खासकर बिहारी भतीजे बड़ी सहूलियत से सबको उपलब्ध हैं। बच्चे, माओवादियों का हथियार हैं। तस्करों के कैरिअर हैं। यह वह जमात है, जिसे ‘सरस्वती पुत्र’ बनने का भी मौका नहीं मिला। और जिसे मिला ..!
फिर भी विद्या-बुद्धि से अधिक ताकत और धन की कामना है। ज्ञान बाद के पायदानों पर। धन से ज्ञान खरीद लेने का बाकायदा बाजार है। वाह रे आदमी! वाह रे समाज! तो फिर अपने ही कारनामों को भोगते रहिये!

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