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यही गण (गन) तंत्र है? उम्र पूरे 60 साल। लेकिन ..! आदमी, आदमी बना? क्यों नहीं बना? गण जिम्मेदार है या तंत्र? कौन, किसको री-प्लेस किये है? कौन किस पर भारी है? या फिर यह ‘गनतंत्र’ है?
‘दुर्गा’, चीत्कार रही है। सुनना है, देखना है? गोगरी (खगडि़या) रेफरल अस्पताल आइये। यहां के दो बेडों पर ‘गनतंत्र’ का कारनामा है। ‘गन’, ‘तंत्र’ को सांस की उल्टी गिनती में पहुंचाये है। एक बेड पर रूबी देवी है। दूसरे पर उसके पति आत्माराम शर्मा। वे इतमादी (गोगरी, खगडि़या) गांव के हैं। गणतंत्र दिवस के दिन गांव के ‘गनधारी’ गणों (दबंगों) ने रूबी देवी को डायन बता इतना पीटा कि वह निर्वस्त्र हो गयी। गणों की मर्दानगी पूरी नहीं हुई थी। रूबी का पैर बांधकर एक किलोमीटर तक घसीटा गया। आत्माराम को तो पहले ही मारपीट कर बेहोश कर दिया गया था।
ये क्या है? क्यों है? पहली और आखिरी वारदात भी नहीं है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पंचायतों में महिलाओं को आरक्षण के हवाले जब से नारी सशक्तिकरण की बात कह रहे हैं, ऐसी करीब डेढ़ सौ वारदातें हो चुकीं हैं। लगातार हो रही हैं। तो क्या सिर्फ नीतीश कुमार और उनका सुशासन जिम्मेदार है?
भई, अजीब तरह की विडंबना है। बात उस मातृ शक्ति/जननी को सशक्त करने, उसकी रक्षा करने की है; पुरुष प्रधान व्यवस्था में उस औरत का हक-सम्मान खतरे में है, जो मर्दो को पैदा करती हैं। मां का दूध सभी पीते हैं किंतु उसकी लाज ..! बेशक रिश्तों के अलग- अलग स्वरूप, सांसारिक व्यवहारिकता है। एक मां, सबके लिए मां नहीं हो सकती किंतु बिहार में यह सच्चाई कुछ ज्यादा ही विकृत अंदाज में स्थापित है कि ‘पुत्र कुपुत्र हो सकता है, माता कुमाता नहीं होती।’ हम दुर्गा, काली, लक्ष्मी, सरस्वती की पूजा तो करते हैं मगर रूबी को नंगा कर उसे अस्पताल भी भेजते हैं। ‘मां’ को डायन बताकर मारते हैं। उसे सरेआम नंगा घुमाते हैं, उसका बाल काटते हैं, गुप्तांग को सलाखों को दागते हैं, मैला पिलाते हैं। तंत्र मूकदर्शक है। वैसे भी गणों की मध्ययुगीन बर्बरता के आगे कानून का राज शायद ही मायने रखता है।
कुछ दिन पहले सीतामढ़ी के पताही गांव में गणों ने हद कर दी। पंचायती लगाकर राकेश कुमार को फांसी पर लटका दिया। महीने भर पहले इलाके से राम-लक्ष्मण व सीता की मूर्तियां चोरी गई थीं। झाड़-फूंक करने वाले ओझा ने चोर के रूप में राकेश नाम के युवक की पहचान की और इसी आधार पर सरपंच ने हरिहर ठाकुर के पुत्र व निर्मला ठाकुर के पति राकेश कुमार को फांसी दे दी। पुलिस जांच में साबित हुआ कि राजेश चोर नहीं था। डायन हत्या के ज्यादातर मामलों में यही साबित हुआ है कि यह खासकर विधवाओं की संपत्ति हड़पने का कारगर उपाय है।
नारीवादी कहां हैं? कहां हैं वो, जो ऐसे जोश देने वाले गानों या लाईनों को ही सशक्तिकरण का उपाय मान लेते हैं कि ‘.. रात नहीं हमें सुबह चाहिये, सूरज को चीरकर आगे आ;’ कि ‘महिला को बकरी से शेरनी बनना होगा, तभी हिंसक भेडि़ये गीदड़ बनकर भागेंगे;’ कि ‘महिलाओं को बचाने में समाज मूकदर्शक नहीं साझेदार बने;’ कि ‘जब स्त्री सृष्टिकारिणी है तो समाज पुरुष प्रधान कैसे हुआ;’ कि ‘औरतें उठी नहीं तो जुल्म बढ़ता जाएगा, जुल्म करने वाला सीनाजोर बनता जाएगा।’
मुझे पता नहीं ऐसे आह्वान, प्रश्न या उद्वेग की बातें कब से चल रहीं हैं? कब तक चलेंगी? ‘खामोश क्रांति’ कब मुकाम पायेगी? कब औरत, जननी होने का वास्तविक गौरव व सम्मान हासिल करेगी? वह तो अपराध के हर आयाम का सहूलियत वाला जरिया बना दी गयी है। हर स्तर पर वही कसूरवार व सजायाफ्ता है। बेमेल शादी, आत्महत्या करने लायक पीड़ा, देह व्यापार, अवैध संबंध के आरोप में घर से निष्कासन, बेटा नहीं होने की कुंठा .., नरसंहार की भी सर्वाधिक प्रताडि़त महिलाएं ही हैं।
समाज बड़ा अजीब है। वह प्रेम या अंतर्जातीय विवाह को अपेक्षित मान्यता नहीं देता और दहेज में दस रुपये भी नहीं छोड़ता। यहां के लोग उस मानसिकता से कुछ ज्यादा ही ग्रसित हैं, जो हर स्तर पर महिलाओं को या तो देवी मानता है या फिर दासी। बराबरी की हैसियत नहीं देता। औरत की लाचारी, ‘भोग’ तक विस्तार पाती है। आम लोगों की छोडि़ये, ‘पति, पत्नी और वो’, ‘महिला मित्रों’ या फिर कुर्सी से जुड़ी रंगरेलियों की दास्तान को खुले तौर पर जाहिर करने में राजनीतिज्ञ व अफसर तक पीछे नहीं हैं। ‘स्मार्ट सौत’ की मौजूदगी में ज्यादातर ‘पाश पत्नियों’ ने खुद को किसी तरह ‘एडजस्ट’ किया हुआ है। लोक-लाज या भय। जुबान बंद। राजनेता-नौकरशाहों के बहके मिजाज से पनपे सेक्स स्कैंडलों की कमी नहीं है। चौतरफा फैली अपसंस्कृति ने भी सशक्तिकरण की धार को कुंद किया हुआ है। राजनीतिक पार्टियों की रैलियों में लोक संस्कृति के नाम पर बार गर्ल्स से लेकर लौंडा-हिजड़ा तक को नचाया जाता है। और नेताजी .., बाप रे बाप!
महिला संगठन कारगर प्रतिरोध नहीं करते। क्यों? क्या इस मुद्दे पर पार्टी लाईन, हास्यास्पद नहीं है? जब ऐपवा दहेज उत्पीड़न व हत्या के लिए हत्यारों को फांसी की सजा देने की आवाज उठाती है तो भाजपा, कांग्रेस या जदयू के महिला संगठनों को उसका साथ देने में क्या परेशानी है?
बेशक, सशक्तिकरण सिर्फ कानून के वश की बात नहीं है। सामाजिक चेतना जरूरी है। लेकिन क्या यह सच्चाई नहीं है कि बढ़ते अपराधों के मूल में कानून का खौफ समाप्त होना भी है? पशुता के शमन के लिए ही तो कानून है।
रोकथाम को ‘डायन प्रथा प्रतिषेध विधेयक’ है। इसकी व्यवस्थाएं कहां कार्यान्वित हुई हैं? 1999 में जब यह विधेयक विधानसभा से पारित हुआ तो इससे जुड़ी वाहवाही के हवाले राजद वालों ने तब की मुख्यमंत्री राबड़ी देवी को ‘दुर्गा’, ‘रणचंडी’ आदि विशेषणों से नवाजा था। लेकिन आज गणों के कारनामों से स्वयं ‘दुर्गा’ चीत्कार रही है। पूछ रही है-‘क्या मां डायन हो सकती है? बेटे को पैदा करने वाली बेटे को खा सकती है?’
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