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दार्शनिक लालू .., उफ ये अदा!

फंटूश
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मधुरेश.
मेरी राय में अब राजनीति की परिभाषा बदल देनी चाहिये। नई परिभाषा कुछ इस प्रकार हो :- अदा+औपचारिकता+ प्रतीकात्मकता = राजनीति। पालिटिक्स-यानी एक फैन्सी, फ्रेंडली मैच सी मनलगी, जिसमें महान् ‘मालिक जनता’ ने अपने जिम्मे बस तालियां पीटने व जयकारा करने का काम रखा हुआ है।
उस दिन राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद को पहली मर्तबा सार्वजनिक तौर पर अपनी गलती स्वीकारते, माफी मांगते देख-सुन रहा था। कसम खाने के अंदाज में वे बोल रहे थे-‘मेरे माथे पर सामाजिक तनाव पैदा करने का कलंक है। मैं इसे मिटा देना चाहता हूं। अब मैं समाज के हर वर्ग को अपने साथ लेकर चलूंगा। .. अब मैंने महसूस किया है कि सभी जाति और धर्म के लोग बराबर हैं।’ उन्होंने अपना दार्शनिक भाव भी छलकाया-‘सब कुछ यहीं रह जाता है। मरने के बाद कोई कुछ लेकर नहीं जाता। .. हमने किसी को बनाया नहीं, तो बिगाड़ने का भी काम नहीं किया।’
तो क्या ‘मंडलवाद’ के इस बिहारी पुरोधा पुरुष का वाकई हृदय परिवर्तन हो गया है? या यह उनके ‘माई’ (मुस्लिम-यादव) समीकरण के ध्वस्त होने पर शातिराना विलाप है, जिसकी आड़ में वे अपनी खातिर नया सामाजिक आधार बनाना चाहते हैं? यह विधानसभा चुनाव के लिए उनकी बस एक अदा है? क्या इस बार राजद का टिकट वितरण किसी समीरण की छाप से मुक्त रहेगा? और क्या 19 वर्षो बाद उनका यह दो लाईन का ‘पश्चाताप’ राजपूत, भूमिहार, ब्राह्मण, यादव, कायस्थ, कोयरी-कुर्मी, पासवान आदि जातियों के बीच तनातनी के अंदाज में बिहारी समाज को एकता के सूत्र में पिरोने में कामयाब होगा? अब तो विभाजन का आधार उपजातियां हो गयीं हैं। पोथी-पतरा फाड़ने और ‘भूरा बाल (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण, लाला) साफ करो’ की गूंज तो अब भी सुनने को मिल जाती है। समरस समाज के आग्रहों के बीच ‘महादलित कार्ड’ किस रंग और असर में है? नेताओं की ही एक जमात इसे उत्कट जातीयता के रूप में प्रचारित किये हुए है।
बात सिर्फ लालू प्रसाद की नहीं है। दरअसल, वे उस राजनीति के प्रतीक पुरुष हैं, जो आज अपने परिभाषा में बदलाव की दरकार रखती है। सबकी अपनी-अपनी अदाएं हैं लेकिन मंशा एक है-हर हाल में जनता को मोह अपने पाश से बांध लेना। ठेठ में उसे किसी भी तरह से ठग लेना। अपने ‘बिहार बंद’ में लालू प्रसाद व रामविलास पासवान निहायत औपचारिक और प्रतीकात्मक दिखते हैं, तो यही औपचारिकता व प्रतीकात्मकता सत्ता पक्ष (भाजपा-जदयू) की भी दिखती है। एकाध नमूना-बंद के दिन की सुबह का करीब साढ़े नौ बजा है। दस बजे तक एक पार्टी के तीन नेता बारी-बारी से मुझसे मोबाइल पर बात करते हैं। वे बंद को ‘सुपर फ्लाप’ कहते हैं। उनका आग्रह होता है-‘बंद को विफल बताने वाले आइटम में मेरा भी नाम जोड़ दीजियेगा।’ (यानी, बंद ठीक से शुरू भी नहीं हुआ कि फ्लाप बता दिया गया.)। यह छपता भी है। दावा-प्रतिदावा के ऐसे तमाम मौकों पर अखबारों में दो आइटम जरूर जगह छेंकते हैं- ‘बंद सफल; बंद विफल।’ विरोध की औपचारिकता में सच्चाई मायने नहीं रखती। हां, इस क्रम में गजब का दलीय एकजुटता व अनुशासन दिखता है। एक पार्टी के सभी लोग सफल बोलेंगे, तो दूसरे दल वालों को उसे विफल कहना ही है।
यह सब अक्सर होता है। यूं कहिये कि राजनीति=अदा+औपचारिकता+ प्रतीकात्मकता। पंद्रह-बीस लाख की गाड़ी से विधानसभा पोर्टिको में उतरने वाला भी उतरते ही ‘बीपीएल सूची लागू करो’ चिल्लाने लगता है। यह ईमानदार नारेबाजी है? शासन पर दबाव बना अपने बाथरूम में ढाई-तीन लाख खर्च कराता है और हाउस में इस लाइन पर जोरदार भाषण देता है कि ‘1300 में कहीं शौचालय बनता है अध्यक्ष महोदय!’ यह ईमानदार भाषण है? जोशीली बातें कहने के बाद अलग-बगल वालों की इस टिप्पणी को आतुर होता है कि ‘आज तो आपने तो फाड़कर रख दिया।’ यह बस औपचारिकता नहीं है?
और यह क्या है ..! सीन कुछ इस प्रकार है। सदन गरमाया हुआ है। उनको देखिये। बाप रे बाप! लगता है आज सरकार को घोंट जायेंगे, अभी यहीं अपनी सरकार बना लेंगे। लेकिन यह क्या वे मुस्कुरा भी रहे हैं। गुस्सा और हंसी एकसाथ संभव है? और यह क्या, कुछ मिनटों में ही भड़के हुए भाई साहब मंत्री जी के पास बैठ चिरौरी के भाव में कागज पर कुछ लिखवा रहे हैं। गुस्सा या विरोध के मेनटेन रहने का कुछ तो पीरियड होना चाहिये। आदमी, बिजली की स्विच की तरह आन-आफ हो सकता है? मगर नेता तो होता है।
तरह-तरह की औपचारिकता है। अदाएं हैं। विभूतियों को याद करने के लिए तारीख तक तय कर दी गयी है। नेता आते हैं। कुछ नहीं भी जानते, तो भी यह बोलकर निकल लेते हैं कि ‘फलां के बताये रास्ते पर चलकर ही देश- समाज का कल्याण संभव है।’ राजनीति में सलाह की इस औपचारिकता के भी कई प्रकार हैं। नेता, चिट्ठी और डायरी लिखने में औपचारिकता निभाता है। नेता, पाला बदलने में भी औपचारिकता निभाता है। उसका शरीर राजद में, तो आत्मा भाजपा में होती है। फिर आत्महत्या की तैयारियों की औपचारिकता, सदन की कार्यवाही की औपचारिकता, सवाल की औपचारिकता, जवाब की औपचारिकता। आश्वासन-घोषणा-शिलान्यास की औपचारिकता। आंदोलन की औपचारिकता। मरने के बाद आदमी को महान बनाने की औपचारिकता। नेता घायल होने की औपचारिकता भी निभाते हैं। विरोध की औपचारिकता। जनता के पैसे से मलाई चाभते हुए हवाईजहाज के दर्जे (एक्जीक्यूटिव क्लास -इकोनामी क्लास) पर राष्ट्रीय बहस कराने की औपचारिकता। औपचारिकताओं की कमी नहीं है। और शायद प्रतीकात्मकता के भी इतने ही प्रकार हैं।
तो फिर जनप्रतिनिधि या नेता के रूप में इन चेहरों के लिए कौन सी शब्दावली गढ़ी जाये? यह कौन सी अदा है भाई! शायद ‘मूल्यों’ की राजनीति का अगला कदम है। इसमें सब कुछ औपचारिक होता है। न कोई स्थायी दोस्त, न स्थायी दुश्मन। इकट्ठे दोस्ती-दुश्मनी की पुरजोर गुंजाइश होती है। मगर जनता ..! वाकई, हमारा गणतंत्र काफी आगे बढ़ चुका है। साठ साल एक उम्र होती है। नेताओं द्वारा ठगी की उम्र अभी बहुत लंबी दिखती है।

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