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‘इकोनामिस्ट पीएम’ की ‘आचारसंहिता’ : व्यक्तिगत वाहवाही या ..!

फंटूश
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मधुरेश.
अपने प्रधानमंत्री जी (डा.मनमोहन सिंह) बड़े नेक हैं। अर्थशास्त्री को ऐसा होना भी चाहिये। वे उन बेजोड़ लेखकीय गुणों के धारक हैं, जो लेख (पुस्तक) और जमीनी सच्चाई में शायद ही कोई वास्ता रखता है; जो बेहतरीन शब्दों-सुनहरे अरमानों की दुनिया में जीता है; जो मान लेता है कि उसका लिखा ही दुनिया का रास्ता है और दुनिया इस पर चल भी रही है; जो कानून को ही व्यवहार मानता है।
बहरहाल, अभी-अभी अपने प्रधानमंत्री जी अपनी ‘आचारसंहिता’ सबके लिए पेश की है। इसके अनुसार तमाम ‘माननीयों’ (केंद्रीय मंत्री, राज्यों के मुख्यमंत्री, मंत्री) को अपनी संपत्ति की घोषणा करनी है। इसे शासन में ईमानदारी एवं पारदर्शिता का कारगर उपाय बताया गया है। ‘माननीयों’ को सलाह दी गयी है कि वे अपने परिजनों तक को आमदनी के उन स्त्रोतों से बिल्कुल दूर रखें, जो बदनामी के कारक हैं। बड़ी अच्छी बात है। प्रधानमंत्री जी को इस बेहतरीन पहल के लिए बधाई। उनकी ‘आचारसंहिता’ का अगला संस्करण निश्चित रूप से इसके दायरे में सांसद, विधायक एवं बाद के संस्करण मुखिया तक को शामिल करेंगे।
प्रधानमंत्री जी की खूब वाहवाही हो रही है। होनी भी चाहिये। कोई मूर्ख ही ईमानदार प्रयासों पर ताली नहीं बजायेगा। मगर इस ‘आचारसंहिता’ से होगा क्या? क्या इस सुनहरे प्रयास के वही असर होने हैं, जैसा कि प्रधानमंत्री जी की कल्पना है? यह उनकी व्यक्तिगत वाहवाही का माध्यम भर है या ..! ऐसे सवालों की कमी नहीं है। सभी स्वाभाविक हैं।
दरअसल, ऋषि-मुनियों के इस देश में ईमानदारी, त्याग, समर्पण, मानवता .., यानी निपट आदर्शवादी मसलों पर बोलने की पुरजोर गुंजाइश सदियों से रही है। आजादी के बाद से तो हम सब इन पर और जोर-जोर से बोल रहे हैं। वजह, इन तमाम स्तरों पर रिकार्ड क्षरण है।
प्रधानमंत्री जी जानते होंगे कि नेता से बड़ा ‘फंड मैनेजर’ कोई नहीं होता है। मैं बिहार के ऐसे कुछ नेताओं को बताता हूं। ये नागा राम जी हैं। क्षेत्रीय शिक्षा उपनिदेशक थे। घूस लेते पकड़े गये। जेल से लौटने पर राजनेता (सांसद) बनने की ठानी। पिछले लोकसभा चुनाव में नामांकन किया। समाजवादी पार्टी के टिकट का भरोसा था। सपा का, राजद-लोजपा से तालमेल होने के चलते नाम वापस ले लिया। खैर, उनका हलफनामा जिंदा है। और इसके अनुसार उनके पास मात्र 25 हजार नकदी रही है। बैंक में तीन लाख, दो लाख का बीमा, एक अल्टो कार। अपना घर-जमीन नहीं। उनकी पत्‍‌नी के पास दस हजार नकद, बैंक में डेढ़ लाख, दो लाख का बीमा, मारुति वैन, 75 हजार का सोना, पांच लाख की जमीन तथा 32 लाख के मकान हैं। पत्‍‌नी पर पौने दो लाख का कर्ज है। लेकिन विजिलेंस ब्यूरो ने नागा राम पर आय से अधिक संपत्ति (डीए) का मुकदमा किया हुआ है। यह 1.42 करोड़ रुपये का है। नागा ने अपनी आमदनी के ज्ञात स्रोतों से 1.28 करोड़ की अधिक संपत्ति अर्जित की। ब्यूरो के पास उनकी संपत्ति का पूरा ब्योरा है।
यह नेता बनते शख्स की संपत्ति के बारे में स्वीकारोक्ति और असलियत के फर्क का बस एक नमूना है। ऐसे में घाघ नेता ..!
यह फंड मैनेजरी ही तो है कि चुनाव में करोड़ों के नोट हाथ बदल लेते हैं, काला धन मजे का सफेद होता है मगर भ्रष्टाचार शमन के जिम्मेदारों को यह सब नहीं दिखता। विजिलेंस ब्यूरो, हजार-दो हजार लेने वाले मामूली लोकसेवकों को गिरफ्तार करने में व्यस्त है। सीबीआई को इन सबसे कोई मतलब नहीं है। मजेदार कि मैनेजरों की टोली रुपये का खेल खेलती है और स्विस बैंक में जमा काला धन को एजेंडा भी बनाये रहती।
असल में भ्रष्टाचार की समाप्ति की सीमारेखा है, जो किसी भी सूरत में भ्रष्टाचार की जड़ तक नहीं पहुंचती है। फंड मैनेजरी तो प्रत्येक चुनाव में उम्मीदवारी तय होने के बाद से खुले में आ जाती है। मैंने उन लोगों को हेलीकाप्टर पर रिक्शा-टेम्पो की माफिक घूमते देखा है, जो बीस-बाईस वर्षो से खटारा फोर व्हीलर के मालिक हैं। यह मैनेजरी की एक अदा है। मैं आश्चर्य में हूं कि दिल्ली के मयूर बिहार इलाके में मात्र साढ़े सात लाख का भी मकान हो सकता है, जिसमें एक विधायक या सांसद रहता है? मैनेजरी का आलम यह है कि ये सभी ‘गरीब’ शेयर में खासा निवेश करते हैं और कमोवेश सभी पर बैंक का कर्ज है। कुछ का आयकर रिटर्न, मैनेजरी के चरम का गवाह है। मसलन, एक प्रमुख पार्टी की लगभग करोड़पति (घोषित तौर पर) महिला उम्मीदवार ने 2008-09 में मात्र 1067 रुपये का आयकर दिया। एक मंत्री जी का हलफनामा देख रहा था। वाहन के नाम पर सिर्फ मारुति 800 कार पर हैसियत करोड़ की। एक पूर्व मंत्री जी तो इनसे भी गये-गुजरे। महज साढ़े पांच हजार नगद लेकर मैदान में उतरे थे।
इन मैनेजरों का एक और खेल, खासियत। इनसे ज्यादा इनकी पत्‍ि‌नयां धनवान हैं। औरंगाबाद के एक ‘गरीब’ पर टेलीफोन का करीब तीन लाख बकाया है। (मेरे मुन्ने की टिप्पणी थी-‘अंकल, टेलीफोन बूथ चलाते होंगे’.)।
कहते हैं-बड़ी पार्टियों या मुख्य मुकाबले के उम्मीदवारों के लिए रुपये आ जाते हैं? कहां से आते हैं? देने वाला, बाद में कौन सा स्वार्थ साधता है? क्या यह भ्रष्टाचार का प्रस्थान बिंदु नहीं है?
राजनीतिक दलों के चुनावी चंदे पर हवाला कांड काला धब्बा है। हालांकि यह मामला खारिज हुआ। सांसदों के सवाल पूछने की कीमत खुल चुकी है। दराज में रुपये रखते एक राष्ट्रीय पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के चेहरे छुपे हैं?
कई ‘गरीब नेताओं’ को लेकर बड़ा डरा हुआ महसूस करता हूं। चुनाव में ये हार गये तो ..! पता नहीं, बेचारों की जिंदगी कैसे कटेगी? बाल-बच्चों पढ़ाई का क्या होगा? बेचारे, बेटियों की शादी के लिए दहेज कहां से लायेंगे? वाकई ऐसा कुछ होगा? नहीं न! फिर कानून के इस दोहरेपन का क्या मतलब है, जो हर स्तर पर उसके टूटने की गुंजाइश बनाता है? आदर्श आचार संहिता, फंड मैनेजरी को रोकने की कूवत रखता है?
प्रधानमंत्री जी, मैं सामानों के मूल्य या उसकी महंगाई की बात नहीं कर रहा हूं। मैं राजनीति या राजनेता के ‘मूल्यों’ की बात कर रहा हूं। हम ‘मूल्यों’ की राजनीति के उस दौर में हैं, जहां त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था के प्रतिनिधि को प्राइस इंडेक्स में तौलें, तो हिसाब 15 किलो अरहर दाल = एक पंचायत प्रतिनिधि का है। निकाय कोटे के विधानपरिषद के चुनाव में पंचायत प्रतिनिधि इतने ही रुपये में बिका। नेता, इतना सस्ता कभी न था। महान लोकतांत्रिक भारत के महान नागरिक के नाते शर्मसार हूं। ऐसे में आपकी आचारसंहिता का अनुपालन हो भी गया तो क्या हो जायेगा महोदय! कुछ ठोस उपाय कीजिये न! जो ऐसे कानून हैं, उन्हीं को ईमानदारी से लागू करा दीजिये न!

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