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चमचे परेशान हैं

फंटूश
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(मधुरेश, पटना).
बिहार के चमचे परेशान हैं। महाराष्ट्र में चमचागिरी का नया रिकार्ड बना है। आजकल बिहार और महाराष्ट्र में बड़ा टफ कम्पीटीशन है। ठाकरे खानदान की कृपा है।
बिहारी चमचे चिंतन की मुद्रा में हैं। उनकी परेशानी यह है कि महाराष्ट्र के गृह राज्य मंत्री ने राहुल गांधी का जूता उठा लिया। (हालांकि कुछ लोग इसे चप्पल भी बता रहे हैं.)। जो भी हो, यह तथ्य निर्विवाद है कि मंत्री जी ने जो कुछ भी उठाया, उसे राहुल बाबा ने अपने पैरों में पहना हुआ था। मंत्री स्तर की यह चमचई बिहारी चमचों पर बहुत भारी है। वे यह सोचकर परेशान हैं कि चमचागिरी के इस हाई-फाई दौर में उनका क्या होगा? उनको अपना अस्तित्व खतरे में दिख रहा है। वाकई, जब मंत्री जूता उठाने लगेगा तो फिर चमचों के जिम्मे कौन सा काम बचेगा?
एक बुजुर्ग चमचा, नौजवान चमचों का मनोबल टाइट कर रहा है। इसमें प्रेरणा और दिलासा, दोनों भाव हैं-‘चमचई के मोर्चे पर बिहार कदापि पिछड़ा हुआ नहीं है। चमचई की राष्ट्रीय धारा में अपना बेजोड़ योगदान है। अपना चमचई का इतिहास बड़ा समृद्ध रहा है। चमचई की गौरवशाली परंपरा है। हां, इधर चमचई में हमें पीछे छोड़ने की राष्ट्रीय स्तर पर नियोजित साजिश रची गयी है। मगर हम अपनी काबीलियत से इसे कामयाब नहीं होने देंगे।’
बुजुर्ग चमचा बड़बोला है? नेताओं की भाषा बोल रहा है? पब्लिक की तरह चमचों को भी भरमा रहा है? चमचई के कुछ बिहारी नमूनों के बूते पाठक इन सवालों का जवाब खुद तय करें।
महाराष्ट्र का मंत्री 21 वीं सदी में चप्पल- जूता उठाया है। बिहार में यह काम अस्सी के दशक में हो चुका है। संयोग देखिये। बात गांधी परिवार के जूता-चप्पल की ही है। संजय गांधी आये थे। एक बड़े कांग्रेसी (जो बाद में राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बने), ने उनकी चप्पल उठायी थी। यह भी उसी दौर का प्रसंग है। डा.जगन्नाथ मिश्रा के आवास पर प्रेस कांफ्रेंस थी। केदार पांडेय तब कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष थे। मुख्यमंत्री रह चुके थे। उन्होंने अपने हाथों से कुर्सी उठा उसे संजय गांधी को पेश किया। चमचागिरी का मूल स्रोत सत्ता है। इस हिसाब से कांग्रेसियों से जुड़े ढेरों प्रसंग हैं।
राजपाट के साथ चमचागिरी का स्वरूप भी बदलता है। लालू प्रसाद के राजपाट में चमचई को नई दिशा मिली। इस ट्रेंड के आगे नरेंद्र मोदी (गुजरात के मुख्यमंत्री) की यह हालिया तारीफ बहुत मामूली है कि ‘मोदी जी राम, रहीम और ईसा मसीह हैं।’ मोदी जी के एक अफसर ने अभी-भी इसी लाईन पर उनकी चमचागिरी की है।
लालू-राबड़ी देवी का काल बौद्धिक चमचागिरी की शुरूआती काल है। चाहे आठवीं-नौवीं कक्षा की पाठ्यपुस्तक में उनकी जीवनी पढ़ाने की बात हो, बिहार लोक सेवा आयोग या पटना विश्वविद्यालय की परीक्षाओं में उन पर पूछे गये सवाल .., बाप रे बाप! लम्बी दास्तान है। तब सेवा विस्तार या प्रोन्नति पाने के लिए भी लालू-राबड़ी पर रचना आकार पा जाती थी। हालांकि ऐसे लोगों की सेहत ठीक नहीं रही। हरिवंश नारायण, मृत्युंजय यादव, डा.अमर कुमार सिंह .., सभी बारी-बारी से विवादों में आये।
नेता के खैनी-पान का शौक, चमचों खातिर चमचागिरी की खासी गुंजाइश है। पीकदान लाना, खैनी बनाना, दौड़कर पान लाना .., काम की कमी नहीं होती। एक उदाहरण- राजनीतिक कार्यपालिका का शीर्षस्थ दिल्ली में मीटिंग को अपने सबसे बड़े अफसर के साथ जा रहा था। नेता जी थूक फेंकना चाहते थे। हवाईजहाज में थे। उनकी अकुलाहट देख अफसर ने फौरन फाइल का रैपर पेश कर दिया। नेता जी रास्ते भर थूकते रहे। अफसर अपनी मौज में।
इधर चमचई थोड़ी चेंज हुई है। उसका क्षेत्र विस्तारित हुआ है। ‘नेताजी का दुश्मन अपना दुश्मन’-यह ट्रेंड पुराना हुआ। नई वाली चमचई पालिटिक्स में सांढ़, बंदर, छछूंदर, कुत्ता, सड़ा आम, पका कटहल, बताह (पागल) आदि का प्रवेश करा चुकी है। यह नेताओं के उपनाम हैं, जो मुख्यत: चमचों द्वारा पेश किये गये हैं।
ऐसी बात नहीं कि नेता, चमचों या अपनी चमचागिरी से वाकिफ नहीं हैं। अक्सर बड़े भाई (लालू प्रसाद) और छोटे भाई (नीतीश कुमार) टीटीएम-टीटीटीएम की बहस में उलझ जाते हैं। टीटीएम-यानी ताबड़तोड़ मालिश; टीटीटीएम माने ताबड़तोड़ तेल मालिश।
कई नेताओं के फैंस क्लब हैं। पहली बार नीतीश कुमार से जुड़ा यह क्लब दिखा। लालू प्रसाद तो अपने चहेतों से ऐसे चिढ़े कि उन्होंने ऐसे तमाम संगठनों पर पाबंदी लगा दी। नीतीश कुमार ऐसे मामलों से सख्त परहेज रखते दिखते हैं। कुछ दिन पहले उन्हें एक बुजुर्ग आशीर्वाद दे रहे थे-‘आप बीस वर्ष तक राज करें।’ मुख्यमंत्री-‘अरे भाई, कितना दिन जिंदा रहूंगा?’ एक समारोह में उन्होंने तारीफ करने वाले को खुलेआम रोक दिया।
लेकिन राजनीति से चमचई कहीं जुदा हो सकती है? यह तो राजनीति की जान है। चमचे कई प्रकार के होते हैं। कुछ अपनी सुविधा से जब-तब ऐसा करते हैं। कुछ की आदत होती है। खून में चमचई। कुछ चमचई से बहुत आगे बढ़ जाते हैं। कुछ आजीवन चमचा रह जाते हैं। कुछ नीतीश कुमार की वैसी ही तारीफ करते हैं, जैसे राबड़ी देवी की। कुछ की चमचागिरी का मर्म दिमाग वाले ही समझ पाते हैं।
कुछ खानदानी चमचे हैं। खानदान मेनटेन किये हुए हैं। उनकी खानदानी परंपरा मजे में विस्तार पा रही है। कुछ नेता मुख्य धारा से किनारे होने के बाद चमचागिरी अपनाते हैं। ऐसे ही एक अब इस दुनिया में नहीं हैं। उनकी अदा, बातें किसी को भी बौरा देने को काफी थीं। उनका बेटा इसी परंपरा को निभाने में जुटा है। वैसे वह खुद को अभी तक बाप जी जितना डेवलप नहीं कर पाया है। चमचई की सबसे बड़ी शर्त ईमानदारी होती है। चमचा जिधर जाता है, उसी का हो जाता है। है न चमचागिरी में बिहार महान्!

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