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किस काम का ऐसा पैसा!

फंटूश
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(मधुरेश).
जयश्री अपार्टमेंट। फ्लैट नम्बर-104। सुधा, चाहकर भी अपने बच्चों को नहीं समझा सकीं कि क्यूं अबकी होली से दूर रहना है? बच्चे मचलते रह गये। दोनों अभी बच्चे हैं। शायद बड़े होने पर सब कुछ समझेंगे।
लेकिन बड़े ..; कहां समझते हैं? सुधा, के.सैंथिल कुमार (सीनियर आईएएस) की पत्‍‌नी हैं। बच्चों के पापा सैंथिल हफ्ते भर से गायब हैं। उनको विजिलेंस ब्यूरो तलाश रहा है। उन पर घोटालों के आरोप हैं। वे कहां हैं, कैसे हैं, एक रौबदार आईएएस मानसिक प्रताड़ना की कितनी मात्रा को किस हाल में जी रहा है- इसके तनिक भागीदार वे अपने भी नहीं, जिनकी खातिर या जिनकी मस्त-मस्त जिंदगी की सुनहरी कल्पनाओं को पाले सैंथिल ने खुद को ‘गोलमाल’ के रास्ते पर डाला होगा। इस फ्लैट की सांस और खुशी की पहरेदारी के सिवाय बहुत कुछ सामान्य सा भी है। आज की तारीख में सैंथिल सिर्फ विजिलेंस ब्यूरो के वांटेड नहीं हैं। वे इस कड़वी सच्चाई का भी खुलासा हैं कि वाकई ‘पाप’ निहायत व्यक्तिगत होता है; बस अपना होता है। वे अपने भी इसके हिस्सेदार नहीं बनते, जिनके लिए यह किया जाता है।
मगर इस शातिर सांसारिकता का दूसरा पक्ष भी है। सैंथिल कितना कमाये, कितनी प्रोपर्टी बनायी, रुपये कहां-कहां छुपाये-लगाये, उनसे कितने उपकृत हुए-यह सब तो बाद में पता चलेगा। किंतु सुधा की हालत, चार व छह वर्ष के बच्चों की अपने पापा की तलब, छोटे भाई- परिजनों की मन:स्थिति यह सवाल भी उभारती है कि ऐसा पैसा आखिर किस काम का? यह स्वाभाविक मिजाज एक मायने में उस अपने (सैंथिल) को कोसने जैसा ही है, जिसने अपनों के लिए अपनी ईमानदारी को दांव पर लगा दिया; जो जहां-तहां थूक फेंकने वालों को सजायाफ्ता कराने चला था और खुद थू-थू की नौबत झेल रहा है।
कुछ दिन पहले विजिलेंस ने पिपरा (सुपौल) के प्रभारी चिकित्सा पदाधिकारी डा. जवाहर लाल प्रसाद को घूस लेते पकड़ा था। तब यह बात सामने आयी थी कि घूस, आदमी का सामान्य व्यवहार है। घूस के पीछे मजबूरी या ऐसे अनेक तर्क उतना मुनासिब नहीं हैं, जैसी धारणा बना दी गयी है। दरअसल पूछताछ के दौरान डा.प्रसाद का बेटा भी ब्यूरो के कार्यालय में था। शर्मसार। लगातार आंखें नीची किये। मर्चेट नेवी में कायदे का वेतन पाने वाला यह युवक उस दिन बता रहा था-‘हमारे यहां कोई कमी नहीं है। लेकिन हम पिताजी, उनकी आदतों से परेशान हैं। बहुत मना किया परंतु ..!’ हालांकि सुधा ऐसी कोई टिप्पणी नहीं करतीं। पर उनका बाडी लैंग्वेज लगभग यही सब कुछ कहता है। वैसे प्रकट तौर पर वे अपने पति को पूरी तरह बेकसूर मानती हैं।
सुधा को हिदायत है कि ‘अगर वे कहीं जायेंगी, तो फ्लैट लाक नहीं करेंगी।’ यह फ्लैट पहले तल्ले पर है। लिफ्ट के ठीक सामने फ्लैट नंबर 104। दरवाजे के बगल में गलियारे में बेंत के पुराने सोफे पर विजिलेंस के आदमी शिफ्ट में बैठते हैं। मच्छर काटता है, तो कछुआ छाप जलाते हैं। यह जांच एजेंसी की मजबूरी है। मुकदमा से पहले पूछताछ जरूरी है और सैंथिल आ नहीं रहे हैं। मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने की कोशिश। फिर एजेंसी सैंथिल व उनके परिजनों को सबूत या संपत्ति को इधर- उधर करने का मौका नहीं देना चाहती। एक उम्मीद भी कि वे पत्‍‌नी, बच्चों के पास आये तो उन्हें पूछताछ के लिए उपलब्ध भी करा लिया जायेगा। यह सब कुछ अपनी जगह ठीक है।
लेकिन सच्चाई यह भी है कि यह व्यवस्था वस्तुत: इस परिवार की खुशी क्या, उसी सांस पर पहरेदारी है। सैंथिल का पूरा परिवार 1196 स्क्वायर फीट में सिमटा है। पहले खुला आकाश था। अपनी दुनिया थी।
अब सब कुछ उलट गया है। यह परिवार कई तल्ख सच्चाई का प्रतीक है। रसूखदार परिवार जलालत का चरम झेल रहा है। कभी लोग उनके साथ को तरसते थे। ड्राइंग रूम में मजलिस बैठती थी। अब तो पड़ोसी परछाई से भी डरने लगे हैं। ‘पता नहीं कौन सा लफड़ा हो जाये’ की व्यावहारिक समझ। पहरेदारी पर अपार्टमेंट परेशान है। सैंथिल से बतिया भाव- विभोर होने वाले, उनको अपनी पार्टी का मुख्य अतिथि बनाने वाले अब उनके लिए ‘राम-राम, छी-छी’ बोल रहे हैं।
किंतु इस कमजोर दिल व संबंधों वाली दुनिया में भी आदमी अपनी ठाट या रौब के लिए क्या नहीं करता है? के.सैंथिल कुमार, सुधा, सैंथिल के भाई, जयश्री अपार्टमेंट, फ्लैट नंबर 104, विजिलेंस के दस्ते .., इकट्ठे कई- कई हिदायत हैं, सबक हैं। कहीं दूर बैठे सैंथिल अब शायद इस सोच के धारक बन रहे होंगे कि ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है ..!’ सबक असरदार होगा? कोई पापा चाहेगा कि उसके बच्चे होली न खेलें? कितने पति चाहते हैं कि उनकी पत्‍‌नी मुंह छुपाये न फिरे? बाप की पगड़ी की लाज रखने का माद्दा कितनों में है?

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