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अदा-ए-अफसोस

फंटूश
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(मधुरेश).
अफसोस की भी अदा होती है! देखिये। इसमें कितनी नजाकत-नफासत है!
अफसोस का यह लेटेस्ट टाइप मार्केट में जस्ट लांच किया है। बिल्कुल नई किस्म की अदा है- ‘पहले मारो, फिर अफसोस जताओ।’ माओवादियों ने दंतेवाड़ा में सुरक्षा बलों को एलानिया मारा। फिर उनके घर वालों के लिए मुआवजा की पेशकश की। मारे गये ‘किसान पुत्रों’ के परिजनों से माओवादियों की पूरी सहानुभूति है, हमदर्दी है। उन्होंने कैमूर के प्यारे बच्चों को भी समझाया है कि उनके स्कूल की बिल्डिंग को बारूद से उड़ाना कितना जरूरी है? यानी, वे अफसोस जताने लायक सब कुछ करते रहेंगे और अफसोस भी जताते रहेंगे।
अपने देश में अफसोस की बड़ी पुरानी परंपरा है। अफसोस का भारतीय स्वरूप, दूसरे देशों की तुलना में काफी आगे बढ़ा हुआ और शुद्ध मानवीय है। खिलखिलाता, चहकता नेता अफसोस जताते वक्त अचानक रुआंसा हो जाता है और फिर चहकने लगता है। हम अफसोस की भरपूर गुंजाइश रखते हैं, अफसोस की नौबत पैदा करते हैं और फिर ढेर सारा अफसोस जताते हैं। माओवादी नये संदर्भ में इसी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं।
तरह-तरह के अफसोस हैं। तरह-तरह की गुंजाइश है। कथनी-करनी के अंतर का अफसोस। दूसरों के लिए उपदेश देने का अफसोस। इस पर शोध हो सकता है कि राजनीति में संदेश देने की परंपरा कब से शुरू हुई? इस बात पर भी शोध कि पहला संदेशदाता कौन था? मरने की गुंजाइश बनाने का अफसोस। और एवज में बस मुआवजा के रुपये गिनने का अफसोस। खैरात, मुआवजा हमारे खून में उतर चुका है। लंबी परंपरा-‘मरने की गुंजाइश को मरने न दो।’ अफसोस! मुआवजा से लोगों के खुश होने का भी अफसोस। बाढ़, सूखा, अगलगी का स्थायी समाधान मत करो। आंधी में उड़ जाने लायक घरों को उड़ने के लिए रहने दो। लेकिन मुआवजा के रुपये गिनने में विलम्ब मत करो। पुलिस को भेड़-बकरियों की तरह रखो किंतु जब वे मारे जायें, तो उन्हें शहीद बताकर फौरन मुआवजा दो। राहत-मुआवजा तक पर राजनीति का अफसोस। राजनीतिक कारणों से बिहार को देश का हिस्सा न मानने का अफसोस। बाप रे .., कितना गिनायें! अफसोस ही अफसोस है।
अपने देश में अफसोस लायक कुछ बातें इस प्रकार हैं। गरीबों का सब कुछ लूट लो। इंदिरा आवास, राशन-किरासन, नरेगा की मजदूरी .. सब कुछ और उससे अपेक्षा करो कि वह भारतीय संविधान की सुनहरी धाराओं-अनुच्छेदों की माला रटता रहे; महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता मान देश के लिए सर्वस्व समर्पित करने को आतुर रहे। अफसोस।
अफसोस की चौतरफा फैली यही गुंजाइश माओवादियों को वह हैसियत देती हैं कि वे अपने कारनामों को तार्किक बताने-बनाने में कोई कसर न छोड़ें। अफसोस की इसी नौबत से वे बच्चों को भी यह सब समझाने की ताकत पाते हैं कि-‘प्यारे बच्चों, आप ही बताइये देश के लिए खतरा कौन है? देश को लूटने वाला या फिर देश में लूट का विरोध करने वाला? हमलोग आपकी मातृभूमि को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं और देशभक्त हैं?’ अब, करते रहिये बहस-कौन देशभक्त है और कौन देशद्रोही? अफसोस कि अब तो इसकी भी सहूलियत वाली परिभाषा गढ़ ली गयी है।
अफसोस की इन्हीं स्थितियों ने खासकर बिहार में सहूलियत से गर्दन उतारने की कवायद को बुलंदी दी। अफसोस कि बिहार में ऐसी ‘मर्दानगी’ या ‘वीरता’ कुछ ज्यादा दिखी। घात-प्रतिघात के दौरान बनी लाशों की ढेर ने इस लाईन को बहुत मजबूत किया कि ‘हत्यारे, बस हत्यारे होते हैं।’ बिहार के नरसंहारों की समाजशास्त्रीय-आर्थिक व्याख्या बदला, मजदूरी, वाद, जमीन, सम्मान की लड़ाई जैसी बातों के इर्द-गिर्द घूमती रही है। कमोवेश इन्हीं कारणों से पक्ष-विपक्ष निर्धारित होता रहा है। बेशक ये वाजिब भी हैं किंतु हालिया वर्षो का नया ढंग, नरसंहारों का एक और कारण बता गया-‘हत्यारों का बचा रह जाना।’ अफसोस कि दोनों तरफ के लाशें गिराने वाले कभी आमने- सामने नहीं टकराये। अफसोस कि लाशों की दुकानदारी और उस पर राजनीति में सबको मजा आया।’
अफसोस की इसी पृष्ठभूमि में निजी सेनाएं बनतीं गयीं। यह भी अफसोस की ही गुंजाइश का नतीजा रही कि रणवीर सेना अपने पैड के ‘मास्ट’ को टपकते खून वाला बनाया। शंख फूंकते धनुर्धारी वाले ‘लोगो’ पर लिखा-‘विद्रोह, बलिदान, बदलाव और युद्धाय कृत निश्चय:।’ सूत्र वाक्य बनाया-‘विपरीत परिस्थितियों में भी जो अपना ईमान, साहस और धैर्य बनाये रखता है, वही सच्चा शूरवीर है। .. अनीति ही वस्तुत: हिंसा है। उसका प्रतिकार करने के लिए जब अहिंसा असमर्थ हो, तो हिंसा भी अपनायी जा सकती है। .. शास्त्र ने वैदिकी हिंसा को हिंसा नहीं माना है। शांति की स्थापना के लिए प्रयुक्त हुई अशांति सराहनीय है और अहिंसा की परिस्थितियां उत्पन्न करने के लिए की गयी हिंसा में पाप नहीं माना जाता है।’ अफसोस कि सेना सुप्रीमो ब्रह्मेश्वर मुखिया, एकसाथ कई-कई मनोभाव को जीने का मौका पाये। वे धर्म-अध्यात्म, तुलसीदास, परशुराम, देशभक्ति, गांधी, अहिंसा से ले हिंसा व इसके साजो-सामान तक पर बातें करते रहे। रणवीर सेना ने अपनी मनोनुकूल व्यवस्था के लिए बाकायदा समानांतर व्यवस्था बनानी शुरू कर दी थी। कुल 13 मुख्य उद्देश्य। 15 सैन्य कार्यक्रम। ग्रामीण उत्थान तक के सूत्र।
बेशक, अब अफसोस ये प्रकार व कारण नहीं हैं। लेकिन अफसोस, उसकी गुंजाइश और फिर अफसोस जताने की अदा बखूबी कायम है। यह सब कब खत्म होगा?

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