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मधुरेश.
यह उतनी छोटी बात नहीं, जितनी समझी जा रही है। बात एक ही तरह की है मगर सबका अपना-अपना सीन है। सबसे लेटेस्ट सीन-मध्यप्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष रो रहे हैं। जनाब, कांग्रेसियों द्वारा भाजपा की महिला विधायक पर की गयी अभद्र टिप्पणी से आहत हैं। मैं, शाब्दिक मर्यादा के चलते टिप्पणी खुलेआम नहीं कर सकता। कांग्रेसी कह रहे हैं-‘अध्यक्ष जी ने घडि़याली आंसू बहाये।’
मैंने घडि़याल को रोते हुए नहीं देखा है। हां, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी के पुतले की पिटाई देख रहा हूं। यह मध्यप्रदेश से जस्ट पहले पटना की बात है; सीन है। राजद कार्य कर्ता नारेबाजी कर रहे हैं-‘पागल (गडकरी) की क्या दवाई, लत्तम-जूत्तम और पिटाई।’ इससे बारह घंटा पहले लालू प्रसाद तथा मुलायम सिंह यादव के खिलाफ गडकरी की जुबान फिसल गयी थी। सर जी ने माफी मांग ली है पर लालू कह रहे हैं-‘कान पकडि़ये।’
और यह इससे ठीक पहले का सीन है। पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी पर वारंट निकला है। मैडम ने पिछले लोकसभा चुनाव में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी पार्टी के तब के अध्यक्ष ललन सिंह के खिलाफ बदजुबानी की थी।
बहरहाल, अब क्या होगा? मैडम जेल भी चली गई, तो क्या हो जायेगा? नेताओं की जुबान पर लगाम की अदालती कवायद नसीहत का वायस बनेगी? मैडम ने ऐसा क्यों किया? उनकी (बद) जुबान क्या पहला और आखिरी उदाहरण है? इसी हफ्ते ऐसे तीन-तीन सीन क्रियेट हुए हैं। चौथा-भाजपाई सभ्यता-शुचिता के प्रतीक अनंत कुमार को लोकसभा में माफी मांगनी पड़ी। लालू को देख उनकी भी जुबान फिसल गयी थी। पता नहीं, लालू प्रसाद में क्या है कि उनको देखते ही जुबान फिसल जाती है?
सवालों की कमी नहीं है। बात किसी व्यक्ति, उसकी जुबान, उसका निशाना, कोर्ट या फिर जेल-जमानत भर की नहीं है। सवाल, राजनीति की शुचिता-शालीनता का है; उन नेताओं का है, जो समाज के पथप्रदर्शक हैं; महान भारत की उस संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था का है, जिसमें गाली की हद वाली बदजुबानी पब्लिक को चार्ज करने का सहूलियत वाला उपाय बना दी गयी है। बिहार में यह तकनीक कुछ ज्यादा ही इस्तेमाल होती है।
मैडम पर वारंट और इसके असर के कई विश्लेषण हैं। दुर्भाग्य से असर की मात्रा तक पर बहस की गुंजाइश है। यह राजनीति में गाली संस्कृति की उम्र से भी जुड़ती है। इसकी उम्र बड़ी लंबी है। असल में यह कानून के वश की बात नहीं है। सीधे नैतिकता से जुड़ा मसला है। नेता, नैतिक हैं? क्यों, उनकी जुबान बेलगाम हो जाती है? लोकतंत्र में आलोचना बिल्कुल सामान्य बात है। जुबान फिसलने से ले ‘हिटलर-गोएबल्स’, ‘भूत’, ‘विकास पुरुष’, ‘शिलापट्ट एक्सप्रेस’, ‘घोषणा मंत्री’, ‘सपनों के सौदागर’ .., आरोप-प्रत्यारोप के इन प्रतीकात्मक बिंबों तक की बात तो समझ में आती है लेकिन यहां तो ..!
विधानसभा चुनाव सामने है। और जो सीन बनाया जा रहा है, उसमें जुबान पर लगाम का नेताओं से इतर कोई भी प्रयास शायद ही मायने रखेगा। गाली, बिहारी राजनीति में उछाल की आवश्यकशर्त तो थी ही, अब यह भी साबित है कि इससे पब्लिक मजे की चार्ज होती है। उकसावे या भड़काने वाली बातों से तृप्त जनता, नेताओं के प्रति पाला हुआ गुस्सा थूक तालियां बजाती बूथ पर पहुंच जाती है।
मुद्दाविहीन राजनीति को नई धार देने का बेजोड़ उपाय बनी बदजुबान राजनीति की बिहार में मजबूत जमीन है। कमोवेश सभी मध्यमार्गी पार्टियों में इस संस्कृति के महारथी हैं। नेता इस बात से खुश हैं कि यह तकनीक जनता को बुनियादी मुद्दों से किनारे करती है। नेता जनता का उदासीन मिजाज पढ़ उसे चार्ज करने की शब्दावली गढ़ रहे हैं।
कुछ सीन देखिये। बदजुबानी, बिहारी राजनीति का हिस्सा बनी है। एक बड़े नेता विधानसभा में कह रहे हैं-”बंदर, सांढ़ के पीछे उसके ‘फलनुमा अंग’ की लालच में लार टपकाते घूमता है और बस घूमते ही रह जाता है?” वे अपने को ‘सांढ़’ और विपक्ष को ‘बंदर’ बता रहे हैं। राज बदलता है। अब एक सत्ताधारी विधायक, नेता जी की पार्टी को ‘बंदर’ और अपनी सरकार को ‘सांढ़’ बता रहे हैं। एक मुख्यमंत्री अपने मंत्री से भिड़े हैं। दोनों एक-दूसरे के लिए ‘बंदर-छछूंदर’ का इस्तेमाल कर रहे हैं। एक पार्टी के लोग राज्यपाल के नाम पर स्वाहा कार्यक्रम चला रहे हैं।
कुछ की बेलगाम जुबान, उनकी स्टाइल है। कुछ इनकी देखादेखी या इसी अंदाज में जवाब के खातिर ऐसी लाईन अपना रहे हैं। एक समाजवादी बुजुर्ग ने दूसरे पाले के दो दिग्गज नेताओं को ‘राजनीतिक गिरगिट’ कह रहे हैं। बात बढ़कर बताह (पागल), रंगुआ सियार, लंगड़ा बिलार, छछूंदर, बंदर, कुत्ता, सांढ़ तक पहुंच जाती है। जनता ऐसी लाइनें खूब सुन रही है-‘फलां के पेट में दांत है;’ ‘फलां सबसे बड़ा झूट्ठा है’; ‘फलां दंगा पार्टी का सरदार है।’
एक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जी कह रहे हैं-‘फलां-फलां पार्टी का बधिया कर डालो।’ एक केंद्रीय मंत्री, सूबे के सत्ता शीर्ष की जीभ खींच लेने की धमकी दे रहे हैं। बाप रे बाप, कितना गिनायें! वाह रे नेता, वाह री राजनीति और वाह री पब्लिक! अब तय करते रहिये कि कौन, किससे कम है?
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