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रिजल्ट का क्लास

फंटूश
फंटूश
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मधुरेश. जोरदार सीन है। लड़के सकुचाये हुए हैं। लड़कियों ने बाजी मार ली है। बेटा से ज्यादा बाप परेशान है। तय नहीं हो पा रहा है कि बेटा को डाक्टर बनाया जाये या इंजीनियर? किसमें ज्यादा सहूलियत है, ज्यादा गुंजाइश है? हेल्पलाइन है। फ्यूचर एनालिस्ट हैं। करियर कंसलटेंट हैं। तरह-तरह के आफर हैं। केमिस्ट्री पर फिजिक्स फ्री। हास्टल में रहने पर लैपटाप मिलता है ..! अभी तीन रिजल्ट आये हैं। ये सिर्फ पर्सनल नहीं हैं। इनका समाज से सीधा वास्ता है। रिजल्ट से यह देश, यह राज्य अपना भविष्य, उसका मोड तय कर रहा है। ओवरआल यह देश का भावी भाग्य है। तीनों रिजल्ट का अपना-अपना क्लास है। सबसे लेटेस्ट है-बिहार बोर्ड (बिहार विद्यालय परीक्षा समिति) का रिजल्ट। युवा बनती एक बड़ी जमात इसी से खुश है कि ‘चलो पास हो गया।’ इस जमात के बाप वर्ग का बाडी लैंग्वेज बहुत ठंडा है। यह जमात फीटर-वेल्डर बनने खातिर आईटीआई की तरफ मुखातिब होगा। उसे संतोष है कि अब यहां भी कैंपस सेलेक्शन होता है। इस जमात का अरमान चपरासी, सिपाही से आगे नहीं बढ़ता है। उसे इसी लायक पास मार्क वाला सर्टिफिकेट चाहिये। सीन देखिये। बिहार बोर्ड के रिजल्ट केबाद एक सैलून में बहस छिड़ी हुई है। तीन-चार सेकेंड डिवीजनर। बाल काटने वाले ‘विशेषज्ञ’ की भूमिका में है। इनकी बातें सुनिये। पहला-‘विज्ञान में तगड़ा लिखली हल। पता नकइसे ऐतना कम नंबर देलई?’ दूसरा-‘तोरा सबसे जादे नंबर केकरा में हऊ?’ पहला-‘संस्कृत में।’ तीसरा (हंसते हुए)-‘त पूजा करईहें। ऐक्कर कऊनो वैल्यू हऊ!’ फर्राटे में कैंची चलाता ‘विशेषज्ञ’ पूछता है-‘सेंटर पर चोरी चललऊ हल का?’ दूसरा-‘तनी-मनी, पूछा-पाछी।’ विशेषज्ञ-‘जरूर चलल होतऊ। इहे सुखे नम्बर काट ले ललऊ!’ तीसरा-‘हं, मास्टर साहेब भी कहते हलथुन कि चोरी के चक्कर में बीस परसेंट काट लेतऊ।’ तीनों संतुष्ट हैं। निश्चिंत हैं। यह दूसरा सीन है। यह घर अभी तक इस बहस से बाहर नहीं निकला है कि आखिर साइंस फैकल्टी का मा‌र्क्स नाईटी थ्री प्वाइंट सिक्स परसेंट पर कैसे अटक गया? री-चेकिंग या फिर मार्किंग को चैलेंज करने के टिप्स साइट पर जा नेट से बटोरे जा रहे हैं। तीसरा सीन :- इस घर में मैथ या बायोलोजी पर चार दिन से जारी बहस मुकाम नहीं पा सकी है। लेटेस्ट रिजल्ट यही है कि आप्शनल में दोनों में से किसी एक को रख लिया जाये। डाक्टर और इंजीनियर, दोनों की भरपूर गुंजाइश रहेगी। यह सब एक ही देश भारत में वस्तुत: भारत, इंडिया और हिन्दुस्तनवा का फर्क है। रिजल्ट का क्लास है। मैट्रिक पास ‘हिन्दुस्तनवा’ की जमात के साथ भीड़ के माफिक सलूक है। ये बच्चे अपने बाप की जेबी औकात के चलते वेल्डर-फीटर से आगे नहीं सोच रहे हैं। (यहां उन आठ-दस बच्चों की चर्चा नहीं हो रही है, जो एक्सट्रा आडिनरी हैं.)। दूसरों का बाप उन्हें कोटा भेज चुका है। कुछ बाप, भाई लोगों की इस लाइन पर भरोसा कर चुका है कि ‘अब पटना ही कोटा बन गया है।’ ‘हिन्दुस्तनवा’ की मैट्रिक पास टोली अब सिपाही बनने के लिए अपना बाडी बनायेगा। ‘भारत’ वाला पहले ही प्रयास में डाक्टर-इंजीनियर बनाने वाले संस्थान में जाने की तैयारी में है, तो ‘इंडियंस’ पूरी तरह निश्चिंत हैं। उनका रुपया हमेशा उनकी पसंद को पूरा करता रहा है। ‘भारत’ (क्लास) बीच में फंसा है। वह न तो ‘हिन्दुस्तनवा’ की तरह संतुष्ट है और न ‘इंडियंस’ की तरह निश्चिंत है। उसके पास तरह-तरह के द्वंद्व हैं। बेचारा करियर के बाजार में बौराये अंदाज में भटक रहा है। कोचिंग सेंटर के अपने-अपने आफर हैं, कोर्स हैं, दावे हैं। स्कालरशिप से लेकर ‘पहले इस्तेमाल करो फिर विश्वास करो’ (सैम्पल क्लासेस) तक की बातें। एक नई टर्मलाजी-‘नन अटेंडिंग स्टूडेंट्स।’ इसमें बच्चों का नाम स्कूल-कालेज में लिखाया तो जाता है मगर बच्चा वहां पढ़ने नहीं जाता है। कोचिंग, स्कूल का भी रूप ले चुका है। ‘हिन्दुस्तनवा’ के बच्चे या उनके बाप को इस बाजार में आने की इजाजत नहीं है। हां, कुछ भाई लोगों ने थोड़ी कृपा दिखायी है। उनके साईनबोर्ड पर ‘गरीब बच्चों के लिए विशेष सुविधा’ की बात लिखी है। कोई सोच भी रहा है कि आखिर ऐसा क्यों है? इस फर्क के लिए कौन जिम्मेदार है? क्या सपनों का भी क्लास होता है? बड़े सपने देखना अपराध है? बेशक, प्रतिभा अवसर की मोहताज नहीं होती है? मगर क्या वाकई थोक भाव में प्रतिभाएं बनायी जा रही हैं? जो जमात बचपन में सिर्फ इस लालच में स्कूल जाता है कि वहां खिचड़ी मिलती है; जो नामांकन अभियान का किरदार भर है; जो तीसरी कक्षा से अंग्रेजी की पढ़ाई की औचारिकता निभाता है; जिनके लिए बस अभियान, प्रेरित करने वाले नारे और गोलमाल की गुंजाइश हैं- वह जमात प्रतिभाशाली कैसे हो सकती है? यह जमात तो संविधान लागू होने के बाद से शिक्षा का अधिकार कानून के साकार होने की टकटकी में है। बड़ा अजीब है। हम एकसाथ सब कुछ तैयार कर रहे हैं। चपरासी, क्लर्क से लेकर राजकाज चलाने वाले लोग, टेक्नोक्रेट्स भी। स्वाभाविक है। लेकिन क्या हम सबको इसके लिए समान मौके, सुविधाएं उपलब्ध करा रहे हैं? उस दिन एक उत्प्रेरण केंद्र में बेटियों का समवेत गान सुन रहा था-‘जाहि कोखे बेटा जनमे, वही कोखे बेटिया, .. काहे कईलऽ हो बाबू जी दुरंगऽ नीतिया’; ‘लड़की हैं तो क्या हुआ, लड़कों से हम कम नहीं ..।’ बेटियों ने अपने रिजल्ट में इसे सार्थक किया है। सपने टूटने न पाये। ध्यान रहे, सपने दिखाकर तोड़ना सबसे बड़ा अपराध होता है।

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