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कामरेड, ये कैसी मर्दानगी है!

फंटूश
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मधुरेश.
मैं कुछ दिन पहले नक्सलबाड़ी (पश्चिम बंगाल) में था। नक्सल आंदोलन की जन्मभूमि पर उसे मरते देखा। नक्सलबाड़ी के हीरो चारु मजूमदार के पुत्र व सीपीआई एमएल के नेता अभिजीत मजूमदार मेरे इस सवाल पर भड़क गये थे कि ”नक्सलबाड़ी, ‘तस्करबाड़ी’ में तब्दील हो रहा है?” उन्होंने मुझे अपने हिसाब से ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ समझाया। यह चालीस साल से अंधी गलियों में भटक रहे नक्सल आंदोलन को साबूत बाहर निकालने का उपाय न था। माओवादियों में शायद नक्सलबाड़ी को नक्सलबाड़ी का स्वरूप देने की ताकत नहीं है। इसीलिए वे लालगढ़ को ‘नया नक्सलबाड़ी’ कहते हैं।
खैर, उस दिन एक कामरेड कैमूर के बच्चों को समझा रहे थे कि उनके स्कूल की बिल्डिंग को बारूद से उड़ाना कितना जरूरी है? भई, मैं तो नहीं समझा। पता नहीं बच्चे कितना और क्या समझे? अभी भाई लोगों की अफसोस की अदा भी देखी। उन्होंने दंतेवाड़ा में सुरक्षा बलों को मारा और फि र उनके घर वालों को मुआवजा की पेशकश भी की।
मगर झाड़ग्राम रेल हादसा के बाद ..! प्लीज, कुछ बोलिये न कामरेड! कुछ भी बोल दीजिये। चुप क्यों हैं? मर्दानगी खातिर तर्क और शब्द की कमी है? यह देश इसका अभ्यस्त है।
कुछ भी सुन लेता है। मान लेता है। कह दीजिये कि यह आधार या लाल इलाके के निर्माण के लिए गुरिल्ला युद्ध की लेटेस्ट तकनीक है।
यह इसलिए भी मान ली जायेगी, चूंकिसहूलियत से गर्दन उतारने की तकनीक आजमायी और कबूली हुई है। इधर ऐसी ‘मर्दानगी’ या ‘वीरता’ कुछ ज्यादा दिखी है। बिहार के नरसंहारों की समाजशास्त्रीय-आर्थिक व्याख्या बदला, मजदूरी, वाद, जमीन, सम्मान की लड़ाई जैसी बातों के इर्द-गिर्द घूमती रही है। ये वाजिब से भी हैं। पर सबसे बड़ा कारण रहा है-‘हत्यारों का बचा रह जाना।’ दोनों तरफ के लाशें गिराने वाले कभी आमने-सामने टकराये? कभी नहीं। क्यों? लाशों का संतुलन बनाने केलिए ऐसी जमात या गांव चुना जाता रहा, जो प्रतिकार न कर सके; गर्दनें उड़ाने के बाद सभी मजे में खिसक लें। ट्रेन गिराने के लिए पटरी को उड़ाना, फिश प्लेट खोलना, सवारियों से लदे बस को उड़ा देना-‘मर्दो’ की इन्हीं आदतों का विस्तार है। और इसमें तनिक भी रिस्क नहीं है। नतीजे के तौर पर ढेर सारी लाशें मिलने की गारंटी होती है। 
मारने वाले खुद को ‘मर्द’ साबित करने के लिए मारे गये लोगों पर तमाम तरह के आरोप करते रहे हैं। लेकिन झाड़ग्राम तो ऐसे किसी सतही तर्क की गुंजाइश तक छीनता है। कामरेड बतायेंगे कि ‘इस ट्रेन में किस लेवल का वर्गशत्रु सफर कर रहा था?’ शायद वे इनका क्लास तय कर रहे हैं। इसलिए चुप हैं।
उनके बारे में यह धारणा भी टूट चुकी है कि वे सामान्यत: महिला और बच्चों को नहीं मारते हैं। अधिकांश नरसंहारों में उन्होंने अपना यह ‘गुण’ दिखाया था। वैसे इसका दूसरा भयावह पक्ष भी रहा। यह था-मौत से भी बदतर अनाथ व विधवाओं की जिंदगी। शायद रणवीर सेना वालों ने इसी से नसीहत ली और उन्होंने सबको मारना शुरू किया। सेना की स्पष्ट समझ रही कि-‘औरतों की हत्या इसलिए कि विरोधी पैदा करने वाली कोख ही खत्म हो जाये और बच्चों को इसलिए मारो, ताकि वे जवान होकर हमसे भिड़ने न लगें।’ जाति पूछकर हत्या। जाति जानकार समर्थक तय करना। आखिर उन्हें समर्थक तय करने का अधिकार किसने दिया और क्या वे इनके लिए अपनी जिम्मेदारी निभाते रहें हैं?
झाड़ग्राम को खूनी सुर्खियां देने वाली ट्रेन में किसके समर्थक थे?
असल में हर स्तर पर अपनी खातिर सहूलियत वाली गर्दनें उपलब्ध रखना कमोबेश सभी पक्षों की इकलौती मंशा है। खगड़ी बिगहा-जाहिर बिगहा (गया), नारायणपुर नरसंहार (जहानाबाद) के आरोपी साक्ष्य के अभाव में बरी हो गये। क्यों? क्यों यह गुंजाइश नहीं मारी जाती, जो नक्सलियों को अपने कारनामों को तार्किक बताने-बनाने की हैसियत देती है? यह समझ क्यों नहीं मरती कि गरीबों का सब कुछ लूट लो। इंदिरा आवास, राशन-किरासन, नरेगा की मजदूरी .. सब कुछ और उससे अपेक्षा करो कि वह भारतीय संविधान की सुनहरी धाराओं-अचुच्छेदों की माला रटता रहे; महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता मान देश के लिए सर्वस्व न्योछावर करने को आतुर रहे? क्यों रणवीर सेना जैसा मिजाज यह ताकत पा जाता है कि अपने पैड के ‘मास्ट’ के शब्दों को टपकते खून वाला बनाये, शंख फूंकते धनुर्धारी वाले ‘लोगो’ पर यह लिखे कि ‘विद्रोह, बलिदान, बदलाव और युद्धाय कृत निश्चय:।’ यह सब कौन सा वाद है भाई! कम से कम मैं तो नहीं समझ पा रहा हूं।

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