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यही ‘राजनीति’ है!

फंटूश
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(मधुरेश)
मैं ‘राजनीति’ देख रहा हूं। कुछ लोग तालियां और कभी सीटियां बजा रहे हैं। मैं सोच रहा हूं-‘यही राजनीति है?’
मैं ‘राजनीति’ की समीक्षा नहीं कर रहा हूं। मेरा एंटेना इस फ्रीक्वेंसी से बहुत दूर है कि ‘राजनीति’, मसाला और गंभीरता के बीच उलझी हुई है; चलताऊ बाजार हावी है। अगर ऐसा कुछ है भी, तो यह भी राजनीति ही है। हर स्तर पर मसाला-बाजार और गंभीरता जैसा का द्वंद्व; कहीं से कुछ भी, किधर भी मुड़ जाने वाला। अब चाहे वह नेता हो, कोई पार्टी हो या उसका कथित सिद्धांत।
‘राजनीति’ के रिलीज होने के दिन  दर्शकों के पाले से एक गंभीर टिप्पणी आयी थी-‘वस्तुत: फिल्मकार महाभारत बना रहे थे, गलती से नाम दे दिया-राजनीति।’ मुझे यह टिप्पणी सटीक लगी। यह ‘राजनीति’ कम, ‘महाभारत’ ज्यादा है। लेकिन आज की राजनीति महाभारत ही तो है। यह फर्क आज तक तय हुआ क्या कि महाभारत, राजनीति है या राजनीति, महाभारत? मैं सोच रहा हूं-‘यही राजनीति है?’
मैं ‘राजनीति’ देख रहा हूं। सोच रहा हूं-
‘यही राजनीति है?’ बहुत कुछ सीख रहा हूं। राजनीति के बारे में पहले से कुछ जाना हुआ था। नया ज्ञानव‌र्द्धन भी हुआ है। यह ठेठ में है। बाकायदा डायलाग के साथ-‘राजनीति में मुर्दा को मरने नहीं दिया जाता है।’ मनोज वाजपेयी, अजय देवगन को समझा रहे हैं-‘मुर्दा को जिंदा रखा जाता है, ताकि समय पर वह बोले।’ मुर्दा तो बोलता है भाई। यहीं कम गड़े मुर्दे उखड़े हैं? यह राजनीति की पुरानी परम्परा है।
‘राजनीति’ पर तालियां-गालियां नेताओं के लिए नसीहत हैं। पब्लिक हमेशा तालियां नहीं मारती। इसके खास-खास मौके हैं। मसलन, जब अजय देवगन ‘वोट हमारा राज तुम्हारा नहीं चलेगा’ जैसी बातें कहता है। जब वह इम्पोर्टेड कैंडीडेट की नो इंट्री की बात बोलता है। जब बेइज्जत हो रहे अजय को मनोज पार्टी में पद देने की बात कहते हैं। तालियां तब भी बजती हैं, जब अजय, अपनी उस मां की मदद करने से इंकार कर देता है, जो उसे जन्म लेते छोड़ देती है। वह अपना वास्ता देकर अजय से घर लौटने का आग्रह करती है, उसे बेटा कहती है। अजय का जवाब होता है-‘बेटा भी बोलती हैं और राजनीति भी कर गयीं।’ व्यवस्था के खिलाफ बातों पर तालियां बजती हैं। एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर जोर मार रहा है। एंग्री यंग मैन सुहाता है।
मैं सोच रहा हूं-‘यही राजनीति है?’ जनता मालिक नहीं है। उसके जिम्मे बस जयकारा करने, नेताओं के भाषण पर तालियां बजाने, झंडा ढोने, वोट देने का काम है। पब्लिक, गाडि़यों के काफिले को देख पीछे-पीछे भागती है। वह हेलीकाप्टर का धूल फांकती है।
हां, नेता सब कुछ करते रहते हैं। वे बड़े आलीशान घरों में रहते हैं; बड़ी नये माडल की चमचमाती गाडि़यों पर चलते हैं; उनके आसपास सुरक्षा का मजबूत घेरा होता है; वे किसी के साथ कुछ भी करने को स्वतंत्र हैं; वे टिकट देने के नाम पर यौन शोषण कर सकते हैं; एसपी को मार सकते हैं; आरोप लगाने वाली युवती का अपहरण करा उसकी हत्या कर सकते हैं। नेता के पास बाकायदा ऐसे लोग होते हैं, जो टाइमबम या विस्फोट के तमाम आधुनिकतम तरीकों से वाकिफ होते हैं। इन सबके बावजूद वे जनता को नहीं भूलते। वे यह सब कुछ जनता की भलाई के नाम पर करते हैं। जनता वोट जो देती है। 
मैं ‘राजनीति’ को देख रहा हूं। सोच रहा हूं-‘यही राजनीति है?’ देख रहा हूं-जनता बड़ी भोली है। उसे बड़ी सहूलियत से समझाया जा सकता है। बेचारी कुछ भी समझ जाती है। नेता अपने व्यक्तिगत या घरेलू कुकर्म और उसके परिणामों को शातिराना अंदाज में जनसरोकार का मुलम्मा देता है और उस मुतल्लिक जनता से सवाल भी पूछता है, उसे चार्ज कर देता है।
मैं ‘राजनीति’ देख रहा हूं। जनता के पास कायदे का आप्शन नहीं है। उसे बस, सांपनाथ और नागनाथ में फर्क करने की सुविधा है। जाति हावी है। राजनीति, लोकतंत्र की हद तक विस्तारित नहीं होती। वह परिवारवाद की पर्याय है; एक घर तक सीमित है। घर के मुखिया हार्टअटैक हो गया, उसे लकवा मार गया, तो पार्टी पर कब्जा और इसके बूते अपने राजपाट के लिए हो गयी राजनीति-खूनी राजनीति। अगर राजनीति का दायरा विस्तारित होता भी है, तो वह कुर्सी से आगे नहीं जाता। सब कुछ कुर्सी ही है। कुर्सी के लिए सब कुछ माफ है। नेता के खून में राजनीति है। उनका हर स्टेप राजनीति है। मां का दुलार, प्रेमिका का प्यार जैसे निहायत व्यक्तिगत मसलों तक पर राजनीति। ‘राजनीति’ में नेता, गोलियां चलाता है; रिमोट से ब्लास्ट कराता है।
मैं सोच रहा हूं-‘यही राजनीति है?’ बात सीटियां मारने की नहीं है। ये तो  मौके के हिसाब से बजेंगी ही। दो बेड सीन है। एक बाथरूम सीन है। सीटियां तो बजती ही रहेंगी। सबसे बड़ी बात है-‘यही राजनीति है?’ अगर हां, तो यह बड़ी भयावह है। कौन बदलेगा यह सब? क्या लोकतंत्र की जनता आधारित परिभाषा बदलनी चाहिये? वाकई, जनता मालिक है? मैं ‘राजनीति’ देख रहा हूं।

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