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मैं औरंगाबाद की एक रिपोर्ट पढ़ रहा था। आपसे शेयर करता हूं। यहां गजब का ‘प्रतिभाशाली’ डाक्टर दंपति है। उसके पास आयुर्वेद में मेडिसीन की बैचलर डिग्री (बीएएमएस) है मगर बड़ा-बड़ा आपरेशन करता है। साइनबोर्ड ऐसे टंगा है कि पित्त की थैली, प्रोस्टेट, मूत्र नली, पेशाब की थैली व किडनी से पथरी निकालना चुटकी बजाने का काम हो। कई और तरह के आपरेशन। मरीजों की भीड़ रहती है। बाप रेऽऽ। हे भगवान ..! डाक्टर की कुछ और खासियत है। किसी मरीज के मरने और उस पर भारी हंगामा के बाद वह अपनी क्लिनिक का नाम व स्थान बदल लेता है। मौज में है। लग्जरी गाडि़यां हैं। उसकी आमदनी दूसरे डाक्टरों को फ्रस्ट्रेट करती है। हे भगवान ..! खैर, मेरे एक मित्र ने इस अद्भुत जानकारी को और विस्तार दिया है। आप इसे भी जानिये। वे बता रहे हैं-”कहलगांव में एक एमबीबीएस ‘प्रतिभावान’ है। वह लोगों की पेट से गैस निकालने के लिए आपरेशन कर देता है। बड़े आराम से अपनों को समझाता भी है-क्या है, पेट चीर देता हूं। पांच मिनट बाद सिल देता हूं।” अररिया में एक ‘प्रतिभावान’ ने डायरिया के मरीज को ट्यूबवेल का पानी चढ़ा दिया। मरीज मर गया। बाप रेऽऽ ..! ऐसे उदाहरण थोक भाव में हैं। कितने मरे-इसका आंकड़ा नहीं है। मगर मारने वाले हाथों की संख्या शायद शासन के पास है। सुप्रीम कोर्ट की सख्ती पर जब इनके खिलाफ कार्रवाई शुरू हुई, तब खुलासा हुआ कि प्रदेश का शायद ही कोई इलाका इनके दायित्व क्षेत्र के दायरे से बाहर है। आज भी कमोबेश यही स्थिति है। बोलचाल की भाषा में ये ‘झोलाछाप डाक्टर’ कहलाते हैं। ‘झोलाछाप’ शब्द पर बहुत शोध की दरकार नहीं है। दरअसल, उनकी साइकिल-मोटरसाइकिल या उनका झोला-बैग ही क्लिनिक है; डिस्पेंसरी है; पैथोलाजिकल लैब है; आपरेशन थियेटर है, अस्पताल है और दवाखाना भी। वे सर्जन- फीजिशियन, सब कुछ हैं। कुछ ने क्लिनिक-हास्पिटल बना साइनबोर्ड टांग रखे हैं। ये तरह-तरह के हैं। कुछ, कई तरह की डिग्रियां भी रखे हैं। रूटीन टाइप बीमारियां, जो मेडिकल स्टोर चलाने वाले द्वारा दवा देने से भी ठीक हो जाती हैं, पर तो इनका वश है लेकिन ..! हालांकि परलोक पहुंचाने के काम में अब कई नामी डाक्टरों का भी योगदान बढ़ा है। ‘एम्स’ (दिल्ली) में अधिकतर बिहार से खराब किये गये केस पहुंचते हैं। मेरे दूसरे मित्र ने बड़ा ही रोचक प्रसंग सुनाया है। सुनिये-मिथिलांचल के एक बड़े नेताजी का बेटा विदेश से डाक्टरी पढ़कर लौटा। कुछ वर्ष बाद नेताजी को दिल का दौरा पड़ा। बेटा ने बाप जी को इलाज की पेशकश की। बाप ने मना कर दिया-‘मैं जानता हूं तुम कैसे डाक्टर बने हो?’ रंजीत डान प्रकरण से ले कोटा पर डाक्टर बनने, रुपये की जोर पर पसंदीदा डिग्रियां हासिल करना .., लंबी दास्तान है। माफ कीजियेगा, मैं थोड़ा भटक गया था। टिपिकल झोलाछाप डाक्टर के बंधु-बांधवों तक जा पहुंचा था। झोलाछाप डाक्टरों की अनगिनत कैटोगरी है। एक कड़वी सच्चाई भी है। ये न रहें, तो खासकर गरीब- लाचार लोगों का काम ही न चले। हालांकि, इधर उनके काम का बोझ कम हुआ है। सरकार स्वास्थ्य के क्षेत्र में काफी कुछ कर चुकी है, कर रही है। सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में इन ‘प्रतिभावानों’ की बड़ी कद्र है। पता नहीं ‘नीम हकीम खतरे जान’ की बखूबी जिंदा गुंजाइश कब तक रहेगी? आरएमपी की डिग्री का बड़ा खेल है। इसके बगैर प्रैक्टिस करने वालों की भी कमी नहीं। ये हार्निया, हाइड्रोसिल, अपेंडिक्स, बच्चादानी, पथरी यानी कोई भी आपरेशन झटपट कर देते हैं। लोग मरें, तो अपनी बला से। कानून है। इंडियन मेडिकल काउंसिल अधिनियम 1956 की धारा 15(2)(बी) व 15(3) में एक हजार रुपये जुर्माना व एक वर्ष की सजा का प्रावधान है। कार्रवाई होती है? उन संस्थानों पर तो बिल्कुल नहीं, जिनकी डिग्रियां ‘हत्यारी कारोबार’ के मूल में है। आयुर्वेदिक, यूनानी, होमियोपैथिक .., पसंदीदा डिग्रियों की कमी है? अरे, जहां मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया का अध्यक्ष घूस लेते पकड़ा जाता हो, वहां झोलाछाप डाक्टरों की गुंजाइश कौन मार सकता है? कुछ समय पहले तो उत्तरप्रदेश भारतीय चिकित्सा परिषद के दो अध्यक्ष तक ‘झोलाछाप डाक्टर’ थे। बाप रेऽऽ। हे भगवान ..!
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