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आदमी-कानून=लोकतंत्र

फंटूश
फंटूश
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मधुरेश.
अभी ‘दिल्ली’ को पब्लिक के स्वास्थ्य की नई चिंता हुई है। स्वास्थ्य मंत्रालय ने फलों को कार्बाइड से पकाने पर छह महीने की जेल तथा एक हजार रुपये जुर्माना तय किया है। इस बारे में देर-सबेर एक और कानून बन ही जायेगा। लेकिन क्या हो जायेगा? कार्बाइड का इस्तेमाल बंद होगा? यह कानून उस मिजाज को मारेगा, जो बेमौसम फलों के मजा को बाकायदा हैसियत से जोड़ता है?
कैल्सियम कार्बाइड के खतरों से कौन वाकिफ नहीं है? और कौन यह नहीं जानता कि वह बड़ी शान से गाड़ी की डिक्की में भरकर महंगे दामों पर कौन-कौन सी बीमारियां घर ला रहा है? आखिर इस आदेश की दरकार क्यों पड़ी? क्या पब्लिक नई व्यवस्था को स्थापित कराने में मददगार होगी? नहीं, बिल्कुल नहीं।
दरअसल, बात सिर्फ कार्बाइड से पके फल या रंगी हुई सब्जियों को खाने की नहीं है। अपना देश कुछ ज्यादा ही लोकतांत्रिक है। ‘अपना- अपना कानून’ की लोकतांत्रिक छूट इन भयावह स्थितियों की भरपूर गुंजाइश बनायी हुई है। अपने बेलगाम मिजाज, अपनी आकांक्षा के चलते हम ऐसे तत्वों को पनाह दिये हुए हैं, जो हमारे जीवन से खेल रहे हैं। ऐसे बाजार में भला कौन सौदागर फलों को स्वाभाविक प्रक्रिया के तहत पकने का इंतजार करेगा? हर स्तर पर शार्टकट है। जब खाने वाले को दिक्कत नहीं है, तो फिर कागज पर लिखा कोई कानून क्या खाकर, क्या कर लेगा?
पब्लिक उन्हीं कानूनों की खुद तोड़ रही है, जो उससे सीधा सरोकार रखती हैं। गुटखा को प्रतिबंधित करने की बात हुई। बिहार में प्रतिबंधित भी हुई। छापा मारा गया। अब सब कुछ नार्मल है। बिक्री तो कई गुणा बढ़ी ही है? मरिये, अपनी बला से।
मानदंड पूरा न करने वाले पालिथिन पर रोक है। पब्लिक मान रही है? पचास ग्राम मिर्च लेने वाला भी पालिथिन मांगता है। पर्यावरण संरक्षण से जुड़े वैसे कानूनों की कमी है, जो पब्लिक के बहके मिजाज के चलते हर क्षण टूट रहे हैं? एक बड़ा ही सुनहरा कानून बना। इसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से जोड़ा गया। बापू के जन्मदिन (दो अक्टूबर) से सार्वजनिक स्थलों पर धू्रमपान को निषेध किया गया। मगर धुएं के छल्ले तो पहले से ज्यादा बन रहे हैं।
कानून तोड़ना हमारे खून में है। अब जाकर हेलमेट का प्रचलन बढ़ा है। बताइये, हमारी सुरक्षा का जिम्मा पुलिस संभालती है। ऐसे ढेर सारे लोग हैं, जो हेलमेट पहनना शान के खिलाफ समझते हैं। देश के बड़े शहरों में ट्रैफिक पुलिस डंडा नहीं रखती है। पटना में ट्रैफिक पोस्ट पर डंडा रहता है? क्यों? क्या हम इसी लायक हैं? फिर ओवरलोडिंग, ओवरस्पीड .., बाप रे ये आदमी क्या करेगा और कौन सा कानून इसकी क्या कर लेगा? दस बजे रात के बाद तेज आवाज पर प्रतिबंध है। लगन, हर मुहल्ले में इस व्यवस्था को तोड़ रहा है। दो बजे रात में बारात आती है। आरकेस्ट्रा-डांस, पटाखे-गोलियां गूंजती है।
एक मिजाज है-‘हम जहां से खड़े होते हैं, लाईन वहीं से शुरू होती है।’ ऐसे मौकों पर भाई लोग जुगाड़ तकनीक का भी बखूबी इस्तेमाल करते हैं। साहब जी के मैडम जी बढ़ गयीं आगे। मैडम जी हर चीज में तो समानता का अधिकार चाहती हैं मगर लाइन के मामले में ‘पहले मैं’ का विशेषाधिकार रखती हैं।
आजकल एक कानून खूब चल रहा है-‘भीड़ का कानून।’ यह मिजाज मौके पर ही न्याय कर दे रहा है। अब चाहे भीड़ के हत्थे जो चढ़ जाये- बकरी को ठोकर मारने वाला मोटरसाइकिल सवार या कोई अपराधी। यही मिजाज परीक्षा में कदाचार की छूट चाहता है और चोरी से बिजली जलाने की सुविधा भी। इसे मुफ्तखोरी पसंद है। रेल में टिकट कटाना वह शान के खिलाफ समझता है। कानून को जेब में घुमाना बड़प्पन मानता है।
बेकार से पड़े कानूनों की कमी नहीं है। जमाने के हिसाब से बेमतलब हुए कुछ कानून खुद सरकार ने खारिज कर दिये हैं। ये हैं-चंपारण अग्रेरियन एक्ट 1918, दि बिहार एंड उड़ीसा कमौती एग्रीमेंट 1920, दि बिहार फेमिन रिलीफ एक्ट 1936, दि बिहार फेमिन रिलीफ एक्ट 1936, दि बिहार फेमिन रिलीफ फंड (एक्पेंडिचर) एक्ट 1937, दि बिहार कोशी दियारा (रिडक्शन आफ सेटल्ड रेंट) 1939, दि बिहार बकाश्त डिसप्यूट सेट्लमेंट एक्ट 1947, दि बिहार प्राइवेट फारेस्ट एक्ट 1948, दि बिहार हिन्दू वीमेंस राइट टू प्रोपर्टी (एक्सटेंशन टू एग्रीकल्चर लैंड) एक्ट 1948, दि बिहार पावर अल्कोहल एक्ट 1948, दि बिहार प्राइवेट फारेस्ट (वेलीडेशन) एक्ट 1949, दि बिहार स्टेट मैनेजमेंट आफ इस्टेट्स एण्ड टेन्योर्स एक्ट 1949, दि बिहार एबोलिशन आफ जमींदारी एंड रिपीलिंग एक्ट 1950, दि बिहार कंटीन्यूअस आफ सर्टिफिकेट प्रोसिडिंग एण्ड इन्डेमनिटी (स्टेट मैनजेमेंट इस्टेट्स एण्ड टेन्योर्स) एक्ट 1950,  दि बिहार डिस्पलेस्ड पर्सन्स (एक्वीजीशन आफ लैंड) एक्ट 1950 .., मगर इस ‘लोकतांत्रिक आदमी’ का क्या होगा? इसे कौन सा कानून रोकेगा?

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