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आओ, डाक्टर-डाक्टर खेलें

फंटूश
फंटूश
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अब मुझको भी मन करता है कि डाक्टर बन जाऊं। अहा, क्या सीन होगा! मजा आ जायेगा। नाम के आगे डाक्टर रहेगा-डा. ..। दुनियावी औकात बढ़ेगी। नेम प्लेट फुदकता रहेगा। घर पर फोन करने वाला भी पूछेगा-‘डाक्टर साहब हैं!’ रास्ते में लोग बोलेंगे-‘डाक्टर साहब प्रणाम।’ तय कर रहा हूं कि पीएचडी वाला डाक्टर बनूं या पेट चीरने वाला? अपने महान देश (खासकर बिहार) में अपुन के लिए दोनों आफर है। दोनों में बड़ी आसानी है। भाई -भतीजा को रुपये के साथ भेज दीजिये; लौटते समय आपकी डिग्री लेता आयेगा। लौटती डाक माफिक सिचुएशन। बड़ी सहूलियत है। बहुत फायदे भी हैं। खैर, अब तक के अपने रिसर्च और सलाह- मशविरे के बाद मुझे पीएचडी डाक्टर ज्यादा सूट कर रहा है। इसमें रिस्क नहीं है। यह थोड़ा कनफ्यूजिंग भी है। कोई भी, कुछ भी सोच सकता है। कोई, कुछ भी सोचे कम से कम मुझको डाक्टर तो मानेगा ही। इलाज करने वाला डाक्टर बनने में ढेर सारी दिक्कत है। भारी रिस्क है। कोई बीमार टपक गया तो? टेटभेक की सुई से घबराने वाला आदमी आखिर आपरेशन कैसे कर सकता है? (वैसे हिम्मती भाई लोग ऐसा मजे में कर रहे हैं)। भई, मैं इतना बहादुर नहीं हूं। पीएचडी डाक्टर में बस फायदे ही फायदे हैं। सुधि पाठक, आप सब बखूबी जानते होंगे कि दो तरह की डिग्रियां नाम के आगे डाक्टर जोड़ती हैं। एक-पीएचडी और दूसरा .., ढेर सारी डिग्रियां हैं। अब तो एमबीबीएस की डिग्री भी मिल जाती है। दरअसल, अपने यहां की ‘डिग्री की फैक्ट्री’ ने काफी प्रगति की है। बाजार के हिसाब से नये-नये प्रोडक्ट लांच हुए हैं। बहुत पहले बस मैट्रिक पास कराने वाला प्रोडक्ट था। फिर इंटर-बीए या कालेज की सामान्य डिग्रियों वाले प्रोडक्ट का जमाना आया। फैक्ट्रियों के दायरे में पंजाब- दिल्ली छोडि़ये, नेपाल तक शामिल रहा। आठ-दस साल पहले ही नालंदा व विक्रमशिला विश्वविद्यालय की यह धरती पीएच-डी., होमियोपैथ, यूनानी, आयुर्वेदिक, शारीरिक शिक्षा, इंजीनियरिंग, बीएड, डेंटल जैसी डिग्रियों का बिक्री केंद्र बन चुकी थी। पिछले पांच वर्ष में बहुत कुछ बदला है; शिक्षा के क्षेत्र में बिहारी दुनिया भर में परचम लहरा रहे हैं, दूसरों को लजा रहे हैं मगर लगता है फैक्ट्रियां बंद नहीं हुई हैं। हां, उसने अपने काउंटर्स जरूर डायवर्ट किये हैं। बिहारी प्रोडक्ट्स के बूते दूसरे राज्यों में लोग चहक रहे हैं। यहां भी मौज में हैं। कुछ दिन पहले दिल्ली पुलिस ने डाक्टरी की डिग्रियों के रैकेट का पर्दाफाश किया। मैं बहुत डरा हुआ हूं। मैं, जेल जाने की शर्त पर डाक्टर का शौक नहीं रखता। वाकई जो व्यक्ति दस हजार रुपये की डिग्री के आधार पर डाक्टर बनेगा, इलाज के नाम पर ‘हत्या’ ही तो करेगा। पीएच-डी वाली डाक्टरी में ऐसा नहीं है। बस, ड्राइंग रूम की शीशे वाली आलमारी में कुछ मोटी-मोटी किताबें सजा देनी है। ये डाक्टर होने की आजीवन गवाही देती रहती हैं। इससे हत्या या अपंगता का पाप नहीं लगेगा। फिर क्या इरादा है? अपुन ने तो तय कर लिया है। और आपने ..! डाक्टरी पसंद नहीं, तो कुछ और प्रोडक्ट्स हैं। आजमाइये। देखिये, अभी बीएड का जोर है। बिहार शैक्षणिक क्रांति के रास्ते पर है। इसमें आप भी अपना योगदान दे सकते हैं। अब डरने की जरूरत नहीं है। विजिलेंस ब्यूरो बीएड की फर्जी डिग्रियों की जांच पूरी कर फाइल लगभग बंद कर चुका है। दो शिक्षा मंत्री और तीन कुलपति समेत दर्जनों आरोपी बने थे। अब तो इनमें कई बरी हो चुके हैं। इस प्रोडक्ट के यूज में कोई परेशानी नहीं है। अरे हां, मैं तो भूल ही गया था। दांत उखाड़ने वाला डाक्टर भी होता है। यह प्रोडक्ट बेहद आसानी से उपलब्ध है। और असीम संभावनाओं को रखे है। बिना पढ़े डिग्रियां हासिल करने की चाहत की बुनियाद प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर पड़ जाती है। परीक्षा में कदाचार और पैरवी कहीं न कहीं से इसी मानसिकता से जुड़ा मसला है। बेरोजगारी का मौजूदा दौर भी डिग्रियों की चाहत के मूल में है। किंतु ये तमाम मनोवैज्ञानिक पक्ष या मजबूरियां किसी भी कोण से देश-समाज से इस खतरनाक मजाक को तार्किक नहीं बना सकतीं। बहरहाल, इन गूढ़ बातों को छोडि़ये। काम की बात कीजिये। सर जी, हर प्रोडक्ट के कई-कई बाई प्रोडक्ट्स हैं। आपको कुछ न कुछ बना ही देंगे। क्या सोच रहे हैं? मैंने तो सोच लिया है। सब कुछ रास्ते पर रहा, तो अगले हफ्ते डाक्टर के रूप में मिलूंगा। आइयेगा, मेरे मुहल्ले में। नेम प्लेट टंगा रहेगा। डा. ..!

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