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‘प्रेत’ का पलना, जागना

फंटूश
फंटूश
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यह 6 अक्टूबर 1994 की बात है। एक कार ड्राइवर ने पटना पुलिस के हवलदार हसनैन खां को ठोकर मार दी। अगमकुंआ थाना में प्राथमिकी दर्ज हुई। कुछ दिन बाद बिहार सरकार ने यह मामला सीबीआई को सुपुर्द कर दिया। सीबीआई जांच में ऐसा कुछ भी न मिला, जो अस्वभाविक था, जिससे किसी षड्यंत्र की गंध आती थी। यह बस ड्राइवर की लापरवाही मानी गई। केस बंद हुआ। कार (बीआर 17 सी.0946), इलाहाबाद के लोकेश मिश्रा की थी। चोरी चली गई थी। इस मामूली मसले की सीबीआई जांच उस शासन की करतूत थी, जो सीबीआई को नंबर वन दुश्मन मानती थी, बदला चुकाने खातिर उसे मुकदमों की बोझ से दबा देना चाहती थी। आजकल ऐसे कई लोगों को सीबीआई बहुत सुहा रही है। इसके ठीक पलट भी एक सीन है। इसमें वे लोग परेशान दिख रहे हैं, जो कभी सोते-जागते सीबीआई जांच की माला जपते थे। क्या सीबीआई से जुड़ी अपनी-अपनी अपेक्षाएं हो सकती हैं? देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी के बारे में निपट सहूलियत की ये धारणाएं मुनासिब हैं? यह तो कुछ भी नहीं। भाई लोग तो अदालती फैसलों को भी अपने शीशे में उतारते रहे हैं। उस दिन हेलीकाप्टर में बैठे लालू प्रसाद व रामविलास पासवान को देख कई बातें याद आ रहीं थीं। खैर, इलेक्ट्रानिक मीडिया की माइक लालू तक नहीं पहुंची तो रामविलास जी ने इसे थाम लिया। लालू प्रसाद ट्रेजरी निकासी की सीबीआई जांच पर स्टार्ट थे। एक कांग्रेसी नेता ने मुझे बताया- ‘भाई जी, हम लोगों ने सबसे पहले राज्यपाल को ज्ञापन दिया है। ट्रेजरी मसले पर हमारा धरना भी संपन्न हो गया है।’ वाकई, ज्ञापन सौंपने में कांग्रेसी, राजद व लोजपा से ज्यादा फुर्तीले निकले। गलियारे में यह चर्चा भी है कि अगर अभी मोदी जी (सुशील कुमार मोदी) विपक्ष में होते तो क्या सब कर गुजरते? लेकिन क्या यह सब घोटाला की गुंजाइश मारने को पर्याप्त है? समय यही कराते रहेगा? राजनीति में ऐसा ही होता है? सीन पलटता है और गंभीर मसले भी आरोप-प्रत्यारोप की धांसू राजनीति का मौका भर बने रहते हैं? एक का दूसरे से इस्तीफा मांगने से आगे बात क्यों नहीं बढ़ती है? क्यों कुर्सी का अपना ही मिजाज होता है और नेता का सब कुछ उसमें समाहित हो जाता है? क्या यह सब ‘प्रेत’ (घोटाला-गोलमाल) को पालने की कवायद नहीं है? फिर ‘प्रेत’ तो पालने वालों को ही खाने पर उतारू है? तो क्या उसे सुलाये रखना, खुद के बचाव का सामूहिक प्रयास है? और पब्लिक को भरमाने के लिए तमाम उपक्रम हो रहे हैं? तरह-तरह के ‘प्रेत’ हैं। पेंशन घोटाला का ‘प्रेत’ साबित कर चुका है कि अफसर बेहिचक झूठ बोलता है? खुले में आयी सच्चाई को नकारना और किसी को भी भरमा देना उनकी आदत है? गोलमाल दबाने के लिए फाइल गायब कर दी जाती है? सरकार, सदन को भी भरमाती है? राज्य सूचना आयोग ने इस ‘प्रेत’ पर तगड़ी चोट करते हुए वित्त विभाग और सीआईडी को 25-25 हजार रुपये जुर्माना किया। क्या इस बड़े अपराध की सजा 50 हजार का जुर्माना मात्र है? यह ‘प्रेत’ तो 28 दिसंबर 1996 से पाला जा रहा है, क्या इसको मारने की कोशिश का यही हश्र होना चाहिये था? अचानक फुर्ती या सकते को जी रहे भाई लोगों में से किसी को याद भी है करीब सात साल पहले पटना हाईकोर्ट ने बोर्ड-निगमों की सीबीआई जांच की बात कही थी। लोक उद्यम ब्यूरो के तब के अध्यक्ष जीएस कंग से कोर्ट ने पूछा था कि ‘क्यों नहीं आपको दंडित किया जाये?’ कंग, रिटायर होकर चले गये। सीबीआई जांच भी नहीं हुई। यह ‘प्रेत’ आज भी आदमी को जिंदा खा रहा है। आखिर ऐसे ‘प्रेत’ को हमेशा के लिए मार देने का उपाय क्यों नहीं होता है? क्यों इस्तीफा-इस्तीफा के खेल से पालने वालों को संरक्षित किया जाता है? आवास बोर्ड में भी एक ‘प्रेत’ है। पटना हाईकोर्ट ने बोर्ड के कार्यकलापों की सीबीआई जांच का निर्देश दिया था। साढ़े छह वर्ष गुजर गये। क्या हुआ? क्यों कुछ नहीं हुआ? कोई बतायेगा? सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर पोषाहार घोटाले की जांच रुकी। पटना हाईकोर्ट ने सीबीआई को जांच सौंपा था। आपरेशन ब्लैक बोर्ड योजना का ‘प्रेत’ कब तक पलेगा? बिहार स्टेट हाउसिंग फेडरेशन लिमिटेड का ‘प्रेत’ मस्त है। कृषि विभाग के भी ‘प्रेत’ का यही हाल है। हाईकोर्ट ने सीबीआई के द्वारा इसे मारने की कोशिश की। जांच ही नहीं हुई। उर्वरक सब्सिडी घोटाला, मिलियन शैलो ट्यूबवेल, मस्टर रौल घोटाले .., कुछ ‘प्रेत’ तो सत्तर के दशक के हैं। जिंदा हैं। पाले गये ये ‘प्रेत’ जांच व्यवस्था को सलीब पर टांग चुके हैं। जांच में काहिली, आरोपियों को साक्ष्य नष्ट करने की सुविधा से लेकर कानूनी दांवपेंच के बूते गर्दनें बचाने की सहूलियतें अलावा हैं। ‘प्रेत’ को अपने फायदे में पाल उसे अपनी सुविधा से ‘जगाने’ के भी उदाहरण हैं। इस शातिर अंदाज में बिहार और यहां की जनता ..! कोई बचा है? कौन, बेनकाब नहीं है?

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