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थाना को जगाना ..

फंटूश
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माफ कीजियेगा, क्रम को थोड़ा भंग कर रहा हूं। पुलिस से पहले थाना, उसके टिपिकल अंदाज को जानिये। ‘थानेश्वर देव’ व ‘सोंटा बाबा’, थाना के ‘इंटर्नल गाड’ हैं। बजरंगबली ‘एक्सटर्नल गाड’ हुए। पुलिस सबको पूजती है।
एक खानदानी पुलिस वाले एक और टर्मलाजी समझा रहे थे-‘सुतल थाना’ एवं ‘थाना जगाना’। थाना जगाना, यानी उसे चार्ज कर उस तरह का बना देना,ताकि हर दिन आमदनी में कोई अदृश्य शक्ति बाधक न बने। मुझसे बातचीत में अस्सी साल का यह शख्स पुरानी यादों में खोया हुआ था-‘थाना के सामने खटिया या चौकी पर कोई सो नहीं सकता है। इससे थाना सो जाता है।’ थाना की नींद,वर्दीधारी के किस्मत से जुड़ी है। आजकल जनहित में, ‘कानून का राज’ के लिए दोनों जगे हुए हैं। कुछ तो दिन-रात जगे रहते हैं। जीप में उनका ऊंघना-जम्हाई लेना, पब्लिक प्रेम की अप्रतिम गवाही है।
खैर, इधर चार-पांच दिन में कई तरह की पुलिस देखा हूं। एक पुलिस छपरा के खुले मैदान में दिनदहाड़े अपने साथियों को पीटती है। दूसरी पुलिस, पुलिस पर लाठी चार्ज करती है। पटना में सचिवालय थाना की एक पुलिस को पब्लिक चप्पल से मारती है। एक पुलिस चकिया में अपने मातहत को मार डालती है। एक पुलिस पर दारू का रंग है (पटना सिटी), तो एक पर नोट का (पटना)। एक पुलिस मालसलामी थाना में ‘माल’ और ‘सलामी’ को जांच रही है। पुलिस में रुपये के लिए कुछ भी कर गुजरने का अद्भुत जज्बा है।
अभी वर्दीधारी अपराधियों की संख्या पांच हजार को पार कर रही है। उनके कई कारनामे तो हार्डकोर अपराधियों को कंपाने वाले हैं। सरकार,संख्या (छह हजार) को नकारती है, कारनामों को नहीं। तरह-तरह के कारनामे हैं। थियेटर में नर्तकी को गोली मारने से लेकर मोकामा में राइफल बेचने तक के कारनामे। कितना गिनायें?
यह सब क्यों होता है? आखिर कुकर्म की ताकत आती कहां से है? राइफल कांड (मोकामा) के दौरान का एक तर्क याद आ रहा है-‘जब आईपीएस वर्दी घोटाला कर सकता है, तो होमगार्ड राइफल क्यों नहीं बेच सकता है?’ ऐसी ढेर सारी बातें हैं। असल में पुलिस की हीनता ही उसके अपराधीकरण के मूल में है। हीनता के कारण छुपे हैं? कौन जिम्मेदार है? एक बड़े अफसर फरमा रहे थे-‘भाईजी, पुलिस भी इसी समाज से आती है!’ मुझे उनका तर्क अकाट्य लगा है। आपकी क्या राय है?

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