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नेता का हाजमा, नेता का बिल

फंटूश
फंटूश
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अब मैंने भी मान लिया है कि नेता सबसे बड़ा फंड मैनेजर होता है। कोई भी डूबा हुआ संस्थान उसे फंड एडवाइजर रख खुद को उबार सकता है। मैनेजमेंट या चाटर्ड एकाउंटेंसी की बड़ी डिग्रियां रखने वाली जमात नेताओं के आगे पानी भरने की औकात में है। इधर नेताओं की फंड मैनेजरी के बारे में कुछ नया ज्ञान हुआ है। आपसे शेयर करता हूं।
इसका बेसिक यही है कि नेता, उसका खानदान अपना कुछ भी नहीं खाता है। वह पूरी तरह परजीवी होता है। वह पूरे देश को खाता है। देश- राज्य की योजनाएं हैं, बांध है, सड़क है, अस्पताल है, स्कूल है। वह बस जनता, उसके हिस्से का खाता है। उसका हाजमा बड़ा दुरुस्त होता है। वह कुछ भी, यानी सब कुछ खा लेता है। डकार नहीं लेता है। वह सीधे खाने से परहेज करता है। उसको खिलाने के लिए ठेकेदार हैं, माफिया हैं, बिल्डर हैं, अफसर हैं। नेता के टेस्ट और पाचन प्रणाली की इस स्थापित पृष्ठभूमि में उसकी जेब से पैसा निकलवा लेने वाले को क्या कहा जायेगा-जनता खुद तय कर ले। मुझे तो इस महारथी के लिए कोई सटीक विशेषण नहीं सूझा है।
माफ करेंगे, मैं थोड़ा भटक गया था। बात नेता की फंड मैनेजरी और उसके खाने-पचाने की हो रही थी। हालांकि यह सब भी नेता के पाचन तंत्र, पाचन प्रणाली का ही एंगिल है। यह सब चुनाव के टिकट वितरण और पाला बदल चरण में पूरी तरह खुले में है। नेता के खाने से जुड़ा एक और ज्ञान है। यह कि नेता बिल्कुल खुले में खाता है। सभी लोग उसे देखते हैं। लेकिन कोई कुछ नहीं करता है।
हां तो, सबसे पुरानी पार्टी के पटना के दो बड़े नेता जी अभी-अभी दिल्ली में थे। टिकट फाइनल करने में अपने से बड़ों की मदद कर रहे थे। दोनों खानदानी हैं। दोनों के दिल्ली में भी आलीशान घर हैं। दोनों कई दिन तक दिल्ली में रहे। अपने घर नहीं गये। ”घर जाने पर संभव था कि चाय-पानी भी करते। इसमें फिजूल में अपने दस-बीस रुपये खर्च होते। फिर वे तो गरिमामयी बिहारी लोकतंत्र को मजबूत करने की जिम्मेदारी में जुटे हैं; जनता, देश-राज्य-समाज का काम कर रहे हैं। इतने तरह का महान काम कोई अपने खर्चे पर क्यों करेगा? अंग्रेजों को भगाने का दौर गया, जो स्वतंत्रता आंदोलन को चलाने के लिए घर का आटा गीला किया जाता था। अब तो देश आजाद है, जहां भी मौका मिले चर, पचा लेने की आजादी है।ÓÓ कमोबेश इन्हीं मनोभावों के साथ दोनों नेताजी अपने घर नहीं गये। दोनों दिल्ली के पांच सितारा होटल में टिक गये। खूब गुलछर्रे उड़ाये। इसकी मात्रा का अंदाजा होटल के भारी बिल से लगाया जा सकता है। जैसा कि नेता का खून में समाई आदत है, इस बिल का भुगतान एक बड़े बिल्डर ने किया है। दोनों ठेकेदार का खाये। बिल की एवज में दोनों ने बिल्डर को टिकट दिलवा दिया। जो बवाल है, सबके सामने है। सबसे पुरानी पार्टी के कई सूरमा इस प्रकरण की तहकीकात में हैं। वे यह सब कुछ पता कर रहे हैं।
यह पहला और आखिरी उदाहरण नहीं है। जनता को खाने-पचाने वालों में से बहुत लोगों ने चुनाव के पहले ही नेताओं को टाप लिया था। उन्हें खिलाना-पिलाना शुरू कर दिया था। कुछ का रुपया तो काम किया मगर ज्यादातर का माल डूब गया है। एक मैडम जी एक से बड़ी गाड़ी ले लीं और उसे टिकट भी नहीं दिला सकीं। यह एक और ज्ञान की गवाही है-‘नेता खाने के बाद बिल्कुल भूल जाता हैÓ; ‘नेता को खिलाने, उस पर पैसा डूबाने के बाद कोई कुछ नहीं बोलता है।Ó
अबकी टिकट बंटवारे के दौरान कई नेताओं को ढेर सारी नकदी मिली है। कुछ चमचमाती गाडिय़ों के सवार हुए हैं, तो कई के घर के इंटीरियर का काम ठेकेदार करा रहा है। कहीं-कहीं तो टिकट की बोली लगी। मार फंस गई। नेता ने बड़ी बोली वाले को टिकट दिया।
अब हलफनामा देने की बारी आ गई है। गारंटी है इसमें दर्ज नेताओं की गरीबी किसी भी गरीब को रुला देगी। आयकर विभाग वाले उन्हें नहीं पकड़ सकते। आज तक कोई पकड़ाया है? पकड़ायेगा भी नहीं। कहने को नेता का अपना कुछ भी नहीं होता है। अपना रहे, तब न रिटर्न में मामला फंसेगा। नेता तो मुफ्तखोरी का पर्याय है। इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में उसे बहुत तरह का कूपन मिलता है और वह नकदी के लिए इसे भी घोटाले का जरिया बनाकर मौज में रहता है।

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