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नोट और वोट

फंटूश
फंटूश
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पहले ऐसा नहीं होता था। अबकी हुआ। आप भी देखिये।

भोजपुरी इलाके से उस पार्टी का एक फीडबैक पटना आया है, जो खानदान समेत अपनी हार की समीक्षा करने वाली है। यह बड़ा सनसनीखेज है। पार्टी की मैडम जी चुनाव हारने के बाद लोगों से अपने रुपये वसूल रहीं हैं। कई गांवों से कई लोग उठाये जा चुके हैं। उनकी खूब फजीहत हुई है। उन्होंने रुपये लेकर मैडम को जीत की गारंटी दी थी। मैडम हार गईं। एक बात स्पष्ट हुई है। आदमी के लीवर में नेता काकी ताकत नहीं है।

पहले नोट पच जाता था। अपना काम कर जाता था। चुनावी मार्केट में उसकी रफ्तार बड़ी तेज होती थी। नोट के हाथ बदलने का नया रिकार्ड बनता था। हाथ पहचान के काबिल भी न रहते थे। चूंकि नोट पच जाता था, इसलिए उसकी वापसी की जरूरत नहीं पड़ती थी। इस बार पड़ी है। यह बिल्कुल नई बात है। दुनिया को लोकतंत्र से वाकिफ कराने वाला बिहार, राजनीति की इस नई अवधारणा, उसके तरीकों को भी सिखा रहा है।

खैर, मैडम जी की मैडम जी ही जानें। उनकी किस्मत पर उनकी रॉयल्टी है। मैं तो यह जानता हूं कि इस बार भी मार्केट में रुपया गया। मात्रा जो है, यह काम भी किया। कई जगह नेता लोग नोट के साथ पकड़े गये। कुछ नेताओं का हिसाब-किताब बड़ा तगड़ा होता है। ऐसे लोग डायरी रखते हैं। डायरी लिखते हैं। देश-काल के हिसाब से नोट और डायरी का स्वरूप बदलता रहा है। कुछ दिन पहले बदले स्वरूप में एक डायरी झारखण्ड में पकड़ी गई थी। इसमें नाम के आगे रुपये और तारीखें दर्ज हैं। इसको इतना दिया और उसको …! इसको देख काम कराने या काम न होने पर नोट वसूलने में बड़ी सुविधा होती है। अब मुझे यह पता नहीं कि मैडम जी डायरी रखतीं हैं या नहीं?

किसी भी एंगिल से मैडम जी कसूरवार नहीं हैं। वोट और नोट का रिश्ता बड़ा पुराना है। पिछले लोकसभा चुनाव में एक भाई जी ने तो अपनी पत्नी के चुनाव क्षेत्र में नकली नोट बंटवा दिये थे। अब नकली नोट, असली वोट नहीं दिला सकते न! शायद इसीलिए पत्नी जी हार गईं। मैडम जी इस लाइन पर जांच करा सकतीं हैं कि कहीं उनके मैनेजरों ने नकली नोट तो नहीं बांट दिये? जहां तक मैं समझता हूं कारणों की समीक्षा के लिए पटना में जुटने वाले दलीय दिग्गज इन बातों पर शायद ही ध्यान देंगे। इस लाईन पर समीक्षा होने से रही। ऐसे में हार के वाजिब कारण सामने आयेंगे? मेरी राय में यह वोट की ठेकेदारी पर तगड़ी चोट की गवाही है। नोट के बूते वोट पर भरोसा रखने वाले नेताओं के लिए नसीहत है। वाकई, जिस दौर में एक घर में कई-कई पार्टियों के समर्थक हैं, दो भाईयों का मिजाज नहीं मिलता है, वहां वोट मैनेजमेंट की परंपरागत व्यवस्था बदलनी होगी।

इस बार पंचायती राज व्यवस्था के कई किरदारों ने पहले खुद विधायक बनने की कोशिश की। नाकाम रहने पर खुद को तगड़े वोट मैनेजर के रूप में पेश किया। कुछ की खूब चली भी मगर …! (नसीहत :- मैनेजर तय करते वक्त बहुत सारी बातों का ख्याल रखना होगा)। और यह नया फीडबैक है। तीसरे चरण के चुनाव के दौरान एक उम्मीदवार के करीबी ने मुझे बताया था कि उनकी तरफ से भेजा गया नोटों का बड़ा हिस्सा उन गांवों से लौट आया है, जहां की आबादी पाउच और मुर्गे की एकाध पीस पर वोट कुर्बान करने खातिर बदनाम रही है। हां, उसने मुझे यह भी बताया था कि मैनेजर कहलाने वाली जातियों के गांवों में रुपया रख लिया गया है; और की डिमांड हुई है। यह भी एक मैडम जी से जुड़ा मसला है। वे भी चुनाव हार चुकीं हैं।

रुपया देने में ईमानदारी व सतर्कता के ढेर सारे नमूने हैं। कुछ तो ऐसे हैं, जिनको सुन हार्ट-लीवर-किडनी, तीनों टकरा सकते हैं। बहरहाल, अब नोट और वोट के पुराने रिश्ते बदलने ही होंगे।

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