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आदमी और बंदर

फंटूश
फंटूश
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यह बड़ी धांसू खबर है। एकसाथ बहुत तरह का ज्ञान दे गई। खबर कुछ इस तरह है-पटना सिटी में एक बंदर एक आदमी (व्यापारी) का एक लाख रुपया लेकर निकल लिया। वह कुछ दूर तक आदमी के लिए हजार-हजार के नोट गिराता गया। आदमी उसे चुनता रहा। मस्त होता रहा। कहीं- कहीं आदमियों के बीच मारामारी की भी नौबत रही। यानी, बंदर ने आदमी के रुपये को आदमी को ही सौंपने में कोताही नहीं बरती।
और आदमी …! बंदर की इस आदमियत से चौबीस घंटा पहले एक आदमी का कारनामा जानिये-बेगूसराय में एक आदमी ने एक आदमी को सिर्फ तीन रुपये के लिए मार डाला।
आदमी और बंदर …, बात मुझे भी अटपटी लग रही है। मैं भी आदमी हूं न! बंदर से तुलनात्मक पिछड़ापन, नालायकी कोई भी आदमी नहीं कबूल सकता है। अब मैं यह नहीं जानता कि बंदर, आदमी से अपनी तुलना को किस रूप में लेता है? हां, मेरी राय में इस तुलना की भरपूर गुंजाइश है। इसमें शर्म नहीं होनी चाहिये।
और आदमियों की तरह मैं भी बचपन से पढ़ता-सुनता आ रहा हूं कि हमारे पूर्वज वर्चुअली (वस्तुत:) बंदर ही थे। लाखों वर्षों के क्रमिक विकास के बाद हमने आदमी की सूरत पायी है। बंदर, बंदर ही रह गये। आदमी, आदमी बन गया। यही सच्चाई है? वाकई आदमी, आदमी है?
अरे, चेहरा-मोहरा को छोड़ दें, तो अब भी आदमी की ढेर सारी आदतें बंदर से मिलती-जुलतीं हैं। नमूनों की कमी है? मगर गुण …! बंदर का रुपये बांटना और तीन रुपये के लिए आदमी द्वारा आदमी की हत्या का फर्क-कोई आदमी समझा पायेगा?
आदमी भी रुपये लूटता, लुटाता है। उन लोगों तक को लूटता है, जो लूटने लायक नहीं होते हैं। आदमी अपनी लूट में शायद ही शेयर करता है। (लोकसेवक अपवाद हैं। पुलिस-अपराधी, नेता-ठेकेदार गठजोड़ को भी किनारे रखा जाये.)। आदमी को देखिये-भाई, भाई को मार रहा है। बीमा की रकम के लिए मां-बाप और पत्नी तक की हत्या हो रही है। आदमी ने खुद को जाति-धर्म में बांट रखा है। जहां तक मैं समझता हूं कि बंदरों में जाति-धर्म-संप्रदाय जैसे मसले नहीं होते होंगे।
मैं जानता हूं कि आदमी, बंदर की नकल कर ही नहीं सकता है। उसकी तरह हो ही नहीं सकता है। एक पुरानी बात याद आ रही है। तब शायद लालू प्रसाद मुख्यमंत्री ही थे। उन्होंने गांधी मैदान में रावण वध के दौरान हनुमान की कूद-फांद वाली नकल करने की कोशिश की। पैर टूट गया। बेचारे बहुत दिन तक डंडा लिये घूमते रहे।
आदमी का एक और गुण देखिये। देखिये कि उसका दिमाग किस कदर कंट्रास्ट है? आदमी, कम से कम मंगलवार व शनिवार को निश्चित रूप से हनुमान मंदिर में शीश नवाता है, अपने लिए तरह-तरह की मनौती मानता है मगर सुबह-सुबह बंदर का चेहरा देखने को अपनी रूटीन गड़बड़ाने के अपशकुन से जोड़े हुए है। इस बारे में आदमी की कई सारी कहावतें हैं।
मुझे लगता है कि आदमी ने अपनी खातिर कई तरह के गुण पेटेंट करा रखे हैं। यह किसी भी एंगिल से बंदर में नहीं पाया जाता है। आदमी का ये वाला गुण बड़ा मशहूर है। आदमी, हमेशा दूसरे आदमी की गलती की सजा तीसरे आदमी को देता है। अपनी गलती नहीं कबूलना आदमी के खून में है।
मैं देख रहा हूं कि इधर आदमी और उसका कैरेक्टर बहुत गड़बड़ाया है। आदमी का ढेर सारा प्रकार सामने आया है। तरह-तरह का आदमी है। उसकी तरह-तरह की लीला है। बंदर के इतने टाईप्स नहीं होते हैं। बंदर, बस बंदर हैं। बेचारों का दिमाग समय के साथ आदमी जैसा नहीं हो पाया।
बंदर, आदमी के लिए कुर्बान हो जाता है। लेकिन आदमी …! आज ही अखबारों में पढ़ रहा था-पामेला एंडरसन ने एम्स (इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान, दिल्ली) को लिखा है कि वह आदमी खातिर शोध के लिए रखे गये बंदरों को कैद से मुक्त कर दे। पामेला जी, बंदरों पर यूं ही मेहरबान नहीं हैं। इसका भी व्यावसायिक अंदाज है। वे वन्य जीवों को संरक्षित करने वाली संस्था पेटा से गहरी जुड़ी हैं। आदमी हर चीज में अपना फायदा देखता है। आदमी, गांधी-भगत सिंह को चाहता है लेकिन यह भी चाहता है कि वे दूसरे आदमी के घर में पैदा हों।
आदमी कुछ ज्यादा ही आजाद हो गया है। बिल्कुल उन्मुक्त, बंधन-मुक्त। वह बापू के जन्मदिन पर मुर्गा चाभता है। ड्राई-डे तामिल कराने के लिए पुलिस को दारू के कई अड्डïों पर पहुंचना पड़ता है। आदमी, अपनी जाति के अपराधी को छुड़ाने के लिए थाना पर हमला बोलता है। बाप रे …, कितना गिनायें, एक आदमी और उसके कई-कई कैरेक्टर हैं। आदमी, गंगा को बाकायदा पूज कर उसे प्रदूषित करता है। आदमी की बड़ी लंबी दास्तान है। बंदर यह सब नहीं करता है। इसलिए कि वह बंदर है।

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