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पालिटिक्स …, आओ खेलें फैमिली-फैमिली

फंटूश
फंटूश
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एक नया बवाल उभरा है। बड़ा दिलचस्प है। लालू प्रसाद ने दिल्ली में राजद कार्यालय भवन का नाम राबड़ी भवन रख दिया। वे इसका घरेलू इस्तेमाल करते हैं। केंद्र सरकार ने दीनदयाल पथ पर सभी प्रमुख पार्टियों को कार्यालय के लिए जमीन दी थी। राजद को दो प्लाट मिले। एक में राबड़ी भवन है। राजद का कार्यालय दूसरी जगह है।
लालू, लालू हैं। राजद के सुप्रीमो हैं। कुछ भी कर सकते हैं। करते रहे हैं। दिक्कत बस यही है कि उन्हीं की पार्टी में राबड़ी भवन का विरोध हो गया। विधान पार्षद नवल किशोर यादव ने जुबान खोली है। राजद, नवल यादव को पार्टी से बाहर करेगा। राजद के पास बहुत सारे तर्क हैं, नवल के ढेर सारे अपराध हैं। नवल का अपना पक्ष है, सफाई है।
जहां तक मैं समझ पा रहा हूं इन दोनों पाटों के बीच नवल का मुद्दा (राबड़ी भवन), जो बेहद गंभीर है, जो राजनीति के चरित्र व आदर्श से सीधा ताल्लुक रखता है, बुरी तरह फंस गया है। पार्टी, इस मुद्दे से सरोकार नहीं जताती। जतायेगी भी नहीं। यही राजनीति का दुर्भाग्य है।
(ध्यान रहे, यह सब लालू प्रसाद, राजद या उसके नेताओं भर की बात नहीं है। यह प्रकरण बस एक प्रतीक है। राजनीति में परिवारवाद या बस परिवार के लिए राजनीति या फिर तमाम तरह के फायदों को अपने घर तक सिमटा लेने की प्रवृति चरम पर है। पिछला विधानसभा चुनाव भी इसकी भरपूर गवाही दे चुका है। सत्ताधारी जदयू तक के कई नेता परिवारवाद के जुर्म की सजा काटने वाले हैं.)।
मेरे मन में नवल किशोर यादव के लिए भी कुछ सवाल हैं। ये स्वाभाविक हैं। यह तो नवल जी ही बेहतर जानते होंगे कि उन्हें राबड़ी भवन के विरोध का ज्ञान आखिर रातोंरात क्यों हुआ? क्या वे दूसरी पार्टी में जाने की तैयारी में हैं और इस विरोध के बूते अपने को शहीद बनाने की मजबूत पृष्ठभूमि तैयार कर रहे हैं? राबड़ी भवन बहुत पहले की बात है, नवल आज बोल रहे हैं! क्यों? यह नेताओं द्वारा ही बनायी गई स्थिति है। उन्हें ऐसे दिव्य ज्ञान तभी आते हैं, जब वे नये घर की तलाश में होते हैं। उन्हें वे सभी लोग और उनके काम अचानक बहुत बुरे लगने लगते हैं, जिनकी अंगुली पकड़ वे चलने की हैसियत पाते हैं।
खैर, मेरी राय में सबसे बड़ी बात नवल यादव द्वारा उठाया गया मुद्दा है। राजद स्वयं को समाजवादी आंदोलन, सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता …, का ध्वजवाहक बताता रहा है। लालू प्रसाद डा.राममनोहर लोहिया, लोकनायक जयप्रकाश नारायण, बाबा साहब डा.भीमराव अंबेडकर, महात्मा ज्योति बा फूले जैसी शख्सियतों का नाम जपते हैं। नवल का मुद्दा यही है कि आखिर इनमें से किसी के नाम पर राजद कार्यालय भवन का नामकरण क्यों नहीं हुआ? राबड़ी भवन वाले नामकरण से हमारा कद छोटा हुआ है।
राजद, इसे नवल की अनुशासनहीनता कहता है। मेरी धारणा है कि राजद वाले पूरी तरह सही हैं। जो चीज बच्चा-बच्चा जानता है, नवल उससे वाकिफ क्यों नहीं हैं? आखिर नवल इतने भोले क्यों हैं, जो लालू प्रसाद के वर्षों के साथ के बावजूद उनसे, उनकी आदतों से बखूबी वाकिफ नहीं हुए? क्या वे नहीं जानते हैं कि पंद्रह वर्ष के राजपाट के दौरान लालू विरोधी, राजद को राजा और साला की पार्टी के रूप में बदनाम किये रहे। राजा, यानी राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद और साला मतलब साधु यादव और सुभाष यादव। तब तो नवल, लालू विरोधियों के पीछे हाथ धोकर पड़ जाते थे। अब साधु व सुभाष यादव बहुत किनारे पड़ चुके हैं। लेकिन राबड़ी जी तो लालू प्रसाद की पत्नी हैं न!
नवल जी से कुछ और सवाल पूछे जा सकते हैं। उन्होंने तब अपनी अंगुली क्यों नहीं उठायी, जब बिहार लोक सेवा आयोग की प्रतियोगिता परीक्षा (44 वीं) में राबड़ी देवी पर सवाल पूछा गया था? लालू प्रसाद और राबड़ी देवी की जीवनी स्कूली बच्चों के पाठ्यक्रम में शामिल हुई, पढ़ाई गई? तब वे क्यों नहीं भड़के, जब बौद्धिक भांड़गिरी की नई नस्ल सामने आयी थी; और जब भी किसी को प्रोन्नति या सेवा विस्तार पाना होता था, वह लालू प्रसाद पर एक पुस्तक लिख मारता था? आपत्ति तो उस समय भी उठनी चाहिये थी, जब मच्छर/लालू चालीसा लिखने वाले ब्रह्मïदेव आनंद पासवान को राज्यसभा सदस्य बनाया गया? तब नवल जी कहां थे, जब इंटर की परीक्षा में लालू प्रसाद की जीवनी अनुवाद की शक्ल में परीक्षार्थियों के बीच आ गयी थी? उस समय तो सभी राबड़ी देवी को दुर्गा व चंडी बताते थे? खुद लालू प्रसाद भी भगवान कहलाने से इंकार नहीं करते थे-तब, नवल कहां थे?
लालू के परिवारवाद के नमूनों की कमी है? राबड़ी देवी का मुख्यमंत्री बनना, नेता प्रतिपक्ष होना, साधु यादव और सुभाष यादव की राजनीतिक पराकाष्ठा …, कौन नहीं जानता है? कभी, किसी ने कुछ बोला-कहा? आज नवल क्यों बोल रहे हैं? 
अब मैंने भी मान लिया है कि आदत शायद ही बदलती है? लालू प्रसाद अपनी इन्हीं आदतों के चलते लगातार बहुत कुछ गवांते गये। उनके अपने लोग उनसे दूर होते गये। विधानसभा चुनाव के बाद हार के कारणों की समीक्षा के दौरान लालू प्रसाद से इस्तीफा की मांग उठी थी। अखलाक अहमद उनका इस्तीफा चाहते थे। उन्होंने नैतिकता व जिम्मेदारी का हवाला दिया था। राजद के नेताओं ने अखलाक के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया। आखिर नेता अखलाक टाइप कमजोर क्यों होते हैं, जिनके वाजिब मुद्दे इन सतही आरोपों में गुम हो जाते हैं कि वे दूसरी पार्टी में जा रहे हैं? क्यों नवल किशोर यादव जैसे लोगों की आंख उक्त वक्त नहीं खुलती, जब गड़बड़ी या भटकाव की शुरूआत होती है? यह बड़ा सवाल है और इसके ईमानदार जवाब के बगैर राजनीति में शुचिता-शुद्धता आने से रही।

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