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मैं सदानंद बाबू (सदानंद सिंह) को बहुत दिन से जानता हूं। कांग्रेस के पुराने नेता हैं। जिम्मेदार पदों पर रहे हैं। उनका अपना जमाना था। अपनी पार्टी में अब भी है। उस दिन उनको देख-सुन रहा था। मुद्रा सफाई की थी। वे फरमा रहे थे-मेरे खिलाफ साजिश हुई है। जब मैंने जदयू में शामिल होने से इंकार कर दिया, तो विजिलेंस ब्यूरो ने मुझे विधानसभा नियुक्ति के मामले में नामजद कर दिया। जदयू के दो विधायक मुझे राज्यसभा सदस्य तथा मेरे बेटे को विधायक बनाने का आफर लेकर आये थे। मैं शुरू से कांग्रेसी हूं, वफादार हूं। उनकी बात मानने का सवाल ही नहीं उठता था। नहीं माना। … मुकदमा झेल लूंगा, मगर जिंदा रहते कांग्रेस से अलग होने की सोच भी नहीं सकता हूं। वाह सदानंद बाबू, वाह! आप दलीय प्रतिबद्धता के पुरोधा हैं; दूसरों के लिए प्रेरणा हैं; नसीहत हैं। बिहार में कांग्रेस आप जैसे कुछ लोगों पर ही टिकी है। आप जैसों के रहते कांग्रेस का कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता है। (दूसरी बात है कि कांग्रेस की बिगाड़ के लिए दूसरे हाथों की जरूरत नहीं है। खुद कांग्रेस के पास अपने हाथों की कमी नहीं है)। खैर, कांग्रेस के प्रति सदानंद बाबू की वफादारी बड़ी धांसू है। बेचारे पार्टी के चक्कर में शहीद हो गये? अहा, क्या दृश्य होता, कितना मजा आता! सदानंद बाबू राज्यसभा में रहते और उनके बेटा जी विधानसभा में। ऐसे लोग आजकल कहां मिलते हैं! पता नहीं अभी विजिलेंस क्या-क्या करेगी? जेल- जमानत की प्रक्रिया शुरू होनी ही है। लेकिन सदानंद बाबू …, वाकई कांग्रेस के लिए शहीद होने वालों की इस देश में कमी नहीं है। मैं नहीं जानता हूं कि सदानंद बाबू पर उनका आलाकमान कितना खुश है? अब संजय सिंह (मुख्य प्रदेश प्रवक्ता, जदयू) यह बयान देते रहें कि हमारे यहां वैकेंसी ही कहां है; हम अपना कौन सा आधार बढ़ाने के लिए सदानंद सिंह को अपने साथ लाना चाहेंगे? भई, मैं तो सदानंद बाबू की शहादत पर फिदा हूं। इसके आगे मुझे विजिलेंस ब्यूरो का यह तर्क मुनासिब नहीं लगता है कि इस मामले में सरकार की कोई भूमिका नहीं है, पटना हाईकोर्ट व विधानसभा सचिवालय के हस्तक्षेप से यह मामला ब्यूरो के पास पहुंचा था। मुझे यह सच्चाई भी बेकार लगती है कि अभी सत्तारूढ़ जमात को किसी दूसरी पार्टी के विधायक की दरकार नहीं है। इस प्रकरण से मेरा भरपूर ज्ञानवद्र्धन हुआ है। तरह-तरह का ज्ञान। अब मैंने भी मान लिया है कि हर मुद्दे को अपनी तरफ मोडऩा और हर हाल में अपने ही फायदे में उसका इस्तेमाल करना कोई नेताओं से सीखे। कांग्रेस व जदयू की जुबानी लड़ाई चाहे जिस मुकाम तक पहुंचे, सदानंद बाबू तत्काल इस गंभीर मसले को उलझाने में कामयाब से हैं। ऐसे तमाम जरूरी सवाल आरोप-प्रत्यारोप में फंस गये हैं कि विधानसभा सर्वोच्च जनप्रतिनिधि सदन है या कुछ लोगों की जमींदारी है? एक यह भी कि जब विधानमंडल ही गोलमाल पर उतर आये तो …! कहां इस विडंबना पर सार्थक बात हो रही है कि राज्य संचालन के लिए सैकड़ों कानून बनाने वाला विधानमंडल अपने यहां नियुक्तियों के लिए नियमावली नहीं बना सका है? इस पर भी चर्चा नहीं कि अपने बाल- बच्चों को नौकरी दिलाने में नेता व नौकरशाह किस हद तक जा सकते हैं; यह कैसी परीक्षा है, जिसमें बाप बेटे की उत्तरपुस्तिकाएं जांचता है, इंटरव्यू लेता है? बेशक, रिश्तेदारी अयोग्यता का आधार नहीं हो सकती है लेकिन यह भी अजीब संयोग है कि विधानसभा के 90 निम्नवर्गीय लिपिकों की नियुक्ति में रिश्तेदारी खूब निभी है। मैं देख रहा हूं कि राजनीति, शहादत की नई परिभाषा गढ़ चुका है। मैं बचपन से नाखून काटकर शहीद होना वाला मुहावरा सुनता, पढ़ता रहा हूं। आज की राजनीति में यह बिल्कुल फिट है। राजनीति में शहादत की नई परंपरा विकसित हुई है। तरह-तरह के नेता हैं। तरह-तरह की शहादत है। जरा इनको देखिये। ये हैं कांग्रेस के प्रदेश प्रवक्ता आजमी बारी। जनाब, उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती का पुतला फूंकने की कोशिश में खुद बुरी तरह जल गये। भाई लोगों की चालाकी देखिये। एक कांग्रेसी नेता ने बोल दिया कि राहुल गांधी की गिरफ्तारी से आहत बारी साहब आत्मदाह करना चाहते थे। शहादत का ऐसा मुलम्मा भाग्य वालों को ही मिलता है। नेता, शहीद होने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ता है। वह चाहता है कि उसे पार्टी से निकाल दिया जाये, ताकि वह शहीद कहलाये, सहूलियत से पब्लिक सिम्पैथी बटोरे। तमाम तरह का उपक्रम करता है। दूसरा नेता उसे यह मौका नहीं देता है। अभी सत्ताधारी जमात यह सीन चल ही रहा है। कुछ दिन पहले तक भाजपा के वरीय नेता फाल्गुनी यादव हर दो दिन पर अपने शहीद होने की तारीख बताते थे। लास्ट में बोल दिया कि अब वे नहीं मरेंगे। बहुत लोग उनकी शहादत के इंतजार में थे। धन्य हैं नेता और धन्य है उनकी शहादत।
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