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योग अगेंस्ट करप्शन …!

फंटूश
फंटूश
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मैं देख रहा हूं-रामदेव बाबा रो रहे हैं। बहुत लोग जयकारा कर रहे हैं। नारों की लाइन में भारत माता को भी शामिल किया गया है। इसके बिना राष्ट्रीयता का भाव पूरा नहीं होता है। हां तो बाबा का चोगा उतर गया है। बहुत लोगों का बहुत कुछ उतर चुका है। बाबा नये रंग में हैं-बाडी पर उजले रंग का कुर्ता। राजनीति अपने रंग में है। तरह-तरह के रंग हैं। एक से बढ़कर एक रंग हैं। मेरी राय में यह सब अभी कुछ दिन तक चलेगा। फिर …! इस देश का अपना रंग है; अपनी अदा है; अपना अंदाज है; अपनी मस्ती है। सब कुछ के बावजूद, और लगभग सब कुछ भुलाकर भी यह देश बहुत दिन से बहुत मजे चल रहा है। इसकी अपनी चाल है। यह चलता रहेगा। अभी कुछ दिन पहले अन्ना हजारे ने बहुत कुछ याद कराने की कोशिश की। इस देश को अचानक एकसाथ बहुत कुछ याद आ गया था। तब यह देश नींद से अचानक जागने की मुद्रा में था। पांच-सात दिन बाद फिर सो गया। बाबा, पिछले अड़तालीस घंटों से उसे जगाये हुए हैं। अरे, यह देश तो गांधी (मोहन दास करमचंद गांधी) को भूल गया है। अक्सर यह सवाल गूंजता है कि गांधी कितनों को याद हैं? आज पांच जून था। संपूर्ण क्रांति दिवस। जनता के हलके में लोकनायक जयप्रकाश नारायण याद रहे? क्या कारण है? चौहत्तर की ठगी के बाद से जनता अपने आप सड़क पर आती है? क्यों? माफ करेंगे, मैं थोड़ा भटक गया था। बात बाबा की चल रही थी। मैं सुन रहा हूं- रामलीला मैदान, योग शिविर के लिए बुक हुआ है। मैं देख रहा हूं-मंच के पीछे टंगे बैनर में भी योग शिविर की बात है। अब मैं जोरदार भाषण सुन रहा हूं। फिर पुलिस- नेताओं की लीला। बाबा, उनके समर्थकों का आक्रोश; लोकतंत्र का खतरा, इमरजेंसी की बात। मेरी गारंटी है-यह सब बाबा के लिए नया अनुभव है। यह अन्ना हजारे से बिल्कुल अलग है। मुझे लगता है कि नार्मल होने के बाद बाबा का योग-मन योग के समसामयिक एंगल पर निश्चित रूप से विचार करेगा। यह जरूरी है। बहुत जरूरी है। बाबा अक्सर कहते रहे हैं कि बड़ी से बड़ी समस्या का समाधान योग में है। वे इसके दायरे से भ्रष्टाचार और नक्सलवाद को भी किनारे नहीं रखते हैं। मेरी, बाबा को सलाह है-बाबा, इन हठी लोगों के लिए कोई नया आसन डेवलप करें। अब अनुलोम-विलोम, कपालभांति, भ्रामरी से काम नहीं चलने वाला है। नई जरूरत के अनुसार नये आसन जरूरी हैं। अपने लालू प्रसाद जी को इस पूरे प्रकरण में सिर्फ बाबा का कुर्ता और उसका कलर दिखा है। लालू बोल रहे हैं-बाबा, सफेद कुर्ता में बहुत अच्छे लगते हैं। उनको यही कलर यूज करना चाहिये। मुझे लगता है कि लालू प्रसाद भगवा कलर को अपने वोट का रंग दे चुके हैं। खैर, अब जरा इस देश की एक और अदा देखिये। अभी-अभी एक चि_ी आयी है। इसे प्रणव दा (प्रणव मुखर्जी, केंद्रीय मंत्री) ने लिखी है। उन्होंने लोकपाल बिल पर मुख्यमंत्रियों से राय मांगी है। निहायत सतही अंदाज। बस कुछ सवाल, मानों जनाब कोई मार्केट सर्वे करा रहे हों। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने साफ कर दिया है कि अभी राय देने का उचित समय नहीं आया है। ढेर सारी बातें हैं। ये सब चलती रहती हैं। मगर एक बात तो साबित हो ही गई है न कि यहां के लोग पूरी तरह भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं। अन्ना के अनशन के दौरान भी यह बात खुले में थी। नीतीश जी ने उस दौरान अन्ना की तरफदारी करते हुए भ्रष्टाचार नियंत्रण के तंत्र को अंजाम देने में सिविल सोसायटी की भागीदारी की पुरजोर वकालत की थी। बिल्कुल सही बात है। लेकिन क्या इस देश की सिविल सोसायटी इस लायक है? वाकई, अब भ्रष्टाचार के मामलों को टालने या उसकी लीपापोती का वक्त नहीं है। लेकिन क्या जनता इसके लिए तैयार है? दरअसल, अपने भारत की सिविल सोसायटी बड़े दिलचस्प अंदाज में जीती है। तंत्र पर लोक को हावी कराने में उसकी कोई भागीदारी नहीं है? क्या वह अपनी भूमिका ईमानदारी से निभा रही है? घूस लेना और देना, दोनों अपराध है। लेकिन क्या कभी किसी घूस देने वालों को सजा मिली है? अपने यहां संविधान की कितनी धाराएं या प्रावधान लागू हैं? हमलोग बहुत कुछ बहुत आधा-अधूरा करते हैं। इधर हम भारतीयों का कैरेक्टर कुछ ज्यादा ही गड़बड़ा गया है। आदमी के ढेर सारे प्रकार हैं। उसका लाइन-लेंथ भी गड़बड़ा हुआ है। यहां का आदमी पूरी तरह आजाद है, मुकम्मल आजाद। उसे बस अपने अधिकार याद हैं। बड़ी भयावह स्थिति है। इसे दूर करने के लिए आज हर घर-मुहल्ले में बाबा या अन्ना चाहिये। इतने बाबा और अन्ना कहां से आयेंगे? उनका क्लोन बनेगा? आदमी में अन्ना या बाबा बनने की ताकत है? आखिर आदमी, अन्ना या बाबा क्यों नहीं बनता है? और मैं तो यह कहता हूं कि इन पचड़ेबाजी की बजाय बाबा, योग के कुछ आसन ही ईजाद कर लें। कुछ ऐसा कि भ्रष्टाचारी सांस अंदर जाये और जो बाहर निकले वह हवा ईमानदारी की हो। कुछ और आसन भी ट्राई किये जा सकते हैं। बड़ी लंबी दास्तान है।

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