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जयाप्रदा को देखते हुए, रामविलास को सुनते हुए …

फंटूश
फंटूश
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समझ नहीं आता, कहां से शुरू करूं! दो चेहरे हैं। दो सीन है। मगर जहां तक मैं समझ पा रहा हूं मसला एक ही सा है। मेरा द्वंद्व इसलिए है। मैंने कुछ ही मिनट के अंतराल में दो लोगों को देखा-सुना। आपसे शेयर करता हूं। पहले, पहला सीन। लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान फरमा रहे हैं-मैं कांग्रेस से दूर ही कब था कि अब नजदीक हो गया हूं? वे एक रिपोर्टर के सवाल का जवाब दे रहे हैं। भई, हद हो गई। अब इस जवाबनुमा सवाल का भी कोई जवाब है? इसका जवाब देने वाला है कोई माई का लाल? बेशक, राजनीति में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता है। लेकिन यह तो नई लीला है। यह एकसाथ दोस्ती-दुश्मनी का अद्भुत ज्ञान कराती है। अब मुझे भी लगने लगा है कि वाकई, नेता की अपनी प्रजाति होती है। इसलिए उसका, आदमी से शायद ही कुछ मेल खाता है। राजनीति में कभी भी, कुछ भी (सबकुछ) संभव है। कुछ पुरानी बातें याद आ रहीं हैं। मैं, कुछ दिन पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी को सुन रहा था। वे अपने एक सहयोगी की चि_ïी पर उठे सवाल का जवाब दे रहे थे-दो पैर के जानवर को तो बांध कर नहीं रखा जा सकता है न? वे बांध भी नहीं सके। उनके सहयोगी जी दूसरी पार्टी में टहल गये। मुख्यमंत्री जी क्या, ऐसे दोपायों के लिए कोई भी कुछ नहीं कर सकता है। मैं इस बात से हंड्रेड परसेंट ऐग्री करता हूं कि चार पैर वाले जानवर पर ही आदमी का वश होता है। उन्हीं के लिए घर या दालान में व्यवस्था की जाती है। पालिटिक्स में जानवर दो पैर वाले भी होते हैं। इन्हें जिधर मूड होता, घूम जाते हैं। खैर, रामविलास जी को सुनते हुए तारिक अनवर साहब की एक बात याद आ गयी। वे नवल किशोर शाही के राकांपा में दोबारा आगमन के मौके पर बोल रहे थे-शाही जी हमें छोड़कर चले गये थे। लेकिन मेरी गारंटी है कि उनकी आत्मा हमारे पास रही। हां, शरीर जरूर दूसरी जगह था। अब फिर यह दोनों साथ-साथ है। यह सिचुएशन, रामविलास जी से मेल खाती है। यह स्थिति नया ज्ञान कराती है। नेता, सिद्ध योगी को भी पानी भरने पर मजबूर कर सकता है। पहले आत्मा व शरीर का विच्छेद और कुछ दिनों बाद फिर दोनों का मिलन …, कोई हंसी- खेल है? रामविलास जी की बातें इससे थोड़ी डिफरेंट हैं मगर टाइप वही है। अब दूसरा सीन। देखिये, ये जयाप्रदा जी हैं। फिल्म से पालिटिक्स में आयीं हैं। वे जलावन वाले चूल्हे पर रोटी सेंक रहीं हैं। फर्क करना मुश्किल है-शूटिंग चल रही है या …! पता चलता है कि वे वस्तुत: रसोई गैस के दाम बढऩे का विरोध कर रहीं हैं। बड़ा ही लाजवाब सीन है। मजेदार अंदाज। छोडिय़े-चलिये, कम से कम पब्लिक को एक यह जानकारी तो हुई ही कि जयाप्रदा जी को रोटी सेंकने आती है। रोटी, किसने बेली-इस पर अलग बहस हो सकती है। लगता है अपने दिग्विजय सिंह इस सीन को अभी तक नहीं देख पाये हैं। अपने डाक्क साब (डा.सीपी ठाकुर) रसोई गैस के सिलिंडर को पकड़कर फोटो खिंचवा रहे हैं। एक छोटे से सिलिंडर को उषा विद्यार्थी (विधायक) अपने सिर पर रखी हुईं हैं। राजनीति के बारे में मेरी राय बदल रही है। मेरी राय में अब राजनीति की परिभाषा कुछ यूं बनती है-औपचारिकता+प्रतीकात्मकता=राजनीति। चूंकि इधर राजनीति निहायत औपचारिक और प्रतीकात्मक हुई है, लिहाजा बहुत कुछ बदल नहीं पा रहा है। यह एक फैन्सी/फ्रेंडली मैच सी मनलगी लगती है, जिसमें महान्ï लोकतांत्रिक भारत की मालिक जनता के जिम्मे सिर्फ तालियां पीटने व जयकारा करने का काम है। मैं, अक्सर पटना में डाकबंगला चौराहा पर ऐसे सीन देखता हूं। खासकर बिहार बंद में नेताओं के आराम, इत्मीनान खूब दिखते हैं। ढेर सारी मुस्कुराहट, हंसी-मजाक …, आंदोलन का पर्याय बन जाता है। कोई चार्टर्ड प्लेन से आता है, तो कोई कार से। चौराहे तक पहुंचने के पहले सभी बिल्कुल नार्मल रहते हैं, फिर अचानक उन पर आंदोलन सवार हो जाता है। वे गरीब-गरीबी, महंगाई आदि पर जोर-जोर से बोलने लगते हैं। धांसू बाईट। ताबड़तोड़ फ्लैश। हद तो तब होती है, जब पुलिस अफसर उनके सामने बच्चों की तरह मचलते हैं-सर प्लीज, गिरफ्तारी दे दीजिये न! और नेता जी गाड़ी को दुत्कार कार्यकर्ताओं के साथ बस में सवार हो जाते हैं। अभी बाबा रामदेव ने भी अपनी गिरफ्तारी में कमोबेश यही स्टारडम दिखाया था। अन्ना हजारे का भी अनशन खूब ग्लैमरस रहा है। बाबा के समर्थन में जब भाजपाई ये देश है वीर जवानों का …, की धुन पर नाचे, तो कांग्रेसी भी भड़क गये थे। भ्रष्टाचार के जारी आंदोलन का नया मोर्चा खुला। मैं देख रहा हूं कि तरह-तरह की औपचारिकता है। यह हर स्तर पर परिलक्षित है। नरसंहार प्रभावित गांवों में आंसू बहाने की अपनी अदा है। हमने अपने विभूतियों को याद करने की तारीखें तक तय कर दी गयी हैं। सवाल-जवाब, विरोध …, सबकुछ औपचारिक हो चला है। फिर बचा क्या? सोचते रहिये, अपना दिमाग खराब कीजिये; नेता जी तो …!

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