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पालिटिक्स में मेमोरी प्लस

फंटूश
फंटूश
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उस दिन लालू प्रसाद को सुन रहा था। वे बोल रहे थे-मैं गांव-गांव जाकर पब्लिक से पूछूंगा कि मुझसे क्या भूल हुई, जो ऐसी सजा मिली है? दरअसल, वे जनता से यह फीडबैक चाहते हैं कि क्यों उनका राजपाट गया; इतनी बुरी हालत क्यों हो गयी है? लालू जी ने पब्लिक को नया टास्क दिया है। यह राजनीति का नया संदर्भ है। नई बात है। नया प्रयोग है। नेता गलती करेगा और इस बारे में जनता को बताना पड़ेगा। नेता की गलती का भी ठेका जनता को ही रखना है। लालू प्रसाद बीते विधानसभा चुनाव के बाद से अपनी गलतियों की तलाश में बुरी तरह जुटे हैं। अकेले बैठे। अपनों के साथ बैठे। खूब मंथन किया; चिंतन किया। कोई फायदा नहीं। उनको कुछ भी याद नहीं आया है। 2005 में भी उनकी याद ने उनको धोखा दिया था। गलतियों के मोर्चे पर उनको कुछ भी नहीं सूझा। इसलिए इस बार उन्होंने अपनी गलती को याद रखने के लिए जनता को सीधे जिम्मेदार बना दिया है। लालू, लालू हैं। उनकी अपनी अदा है। देखने वाली बात होगी कि पब्लिक उनकी कौन-कौन सी गलती गिनाती है; उनकी गलतियों को कितना याद रखी हुई है? लालू जी के अनुसार उन्होंने अपनी याद में कोई गलती नहीं की है। संकट, भूलने और याद रखने का है। दो दिन पहले एक खबर पढ़ रहा था-सुरेश कलमाडी को भूलने की बीमारी हो गई है। सुरेश जी अभी जेल में हैं। वही जानें कि राष्ट्रमंडल खेल के बारे में अब उनको कितना कुछ और क्या-क्या याद है? बेचारे सीबीआई वाले चिंतित हो गये थे। शुक्र है कि सुरेश जी ने खुद को दुरुस्त बताया है। अब मैंने जाना है कि आखिर मधु कोड़ा डायरी क्यों लिखते थे? मेरी यह समझ लगातार पुष्ट हुई है कि वाकई नेता, भुलक्कड़ होता है। एनडी तिवारी डीएनए टेस्ट के लिए खून नहीं दे रहे हैं। इसमें भी भूल को भूलने का संदर्भ है। तिवारी जी को याद नहीं है कि उन्होंने कभी ऐसी कोई भूल की, जो बुढ़ौती में उनको बदनाम किये हुए है। नेता, पब्लिक फीगर होता है। बेचारा कितना और क्या-क्या याद रखेगा? दिमाग नहीं फट जायेगा! उसने खुद को याद रखने की जिम्मेदारी से पूरी तरह मुक्त किया हुआ है। महान् भारत की संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था भी कानूनी तौर पर नेताओं को याद रखने के संकट से मुक्ति दिये हुए है। वाकई, नेता को कुछ भी याद नहीं रहता है। जनता से किया वायदा, ली गई शपथ …, भूलने के ढेर सारे मुद्दे हैं। अधिकांश नेता तो अपनी पार्टी भूल जाते हैं। उन्हें इस क्रम में सुबह, दोपहर, शाम, रात का भी ख्याल नहीं रहता है। कुछ, किसी को गालियां देने के दौरान याद नहीं रख पाते हैं कि इससे तो बीस साल की यारी थी। संस्कार, नैतिकता, आदर्श, ईमानदारी …, सबकुछ बारी-बारी से भुला दी जाती है। नेताओं के बीच भूलने की मात्रा का फर्क है। यह नेता टू नेता वैरी करता है। कुछ नेता कुछ दिन बाद भूलते हैं, तो कई तत्काल। कुछ को तो यह भी याद नहीं रहता कि वे कर क्या रहे हैं, बोल क्या रहे हैं? मीटिंग में कुछ बोले और पब्लिक के बीच कुछ और। भूलने के ढेर सारे नमूने हैं। एक मुझे याद आ रहा है। गया के सुदूर क्षेत्र के एक व्यक्ति ने तब के भाजपा अध्यक्ष वेंकैया नायडू की जान नक्सलियों से बचायी थी। वेंकैया ने उसे अपना भगीना बना लिया। उसे आर्थिक मदद, नौकरी का भरोसा दिया गया था। कुछ दिन बाद जब वह वेंकैया के सामने पहुंचा, तो वेंकैया लगभग सब कुछ भूल चुके थे। नेता, नई हैसियत में आते ही पुराने दिन भूल जाते हैं। कुछ नेता आइडिया ईजाद करते हैं। फिर उसे भूल जाते हैं। एक मंत्री जी पहले खूब बोला करते थे-अपार्टमेंट में भूकंपरोधी संयंत्र लगेंगे। कचड़ा से बिजली बनेगी। पटना पेरिस बन जायेगा। वे आजकल पूरी तरह चुप रहते हैं। यह सबकुछ भूल चुके हैं। बड़ी लंबी दास्तान है। मेरी राय में नेताओं को मेमोरी प्लस इस्तेमाल करनी चाहिये। बहुत पहले यह दवा लांच की थी। मैं भी भूल चुका हूं कि यह दवा अपने सभी गुणों के साथ बाजार में उपलब्ध है या नहीं? हां, नेताओं को कुर्सी जरूर याद रहती है।

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