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32 रुपया, 26 रुपया …

फंटूश
फंटूश
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मैं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सुन रहा था। वे योजना आयोग वालों को कह रहे थे-32 रुपये में एक टाइम का भी खाना खाकर दिखायें।
मुख्यमंत्री जी बड़े लिबरल हैं। मैं तो कहता हूं कि योजना आयोग वालों के एक घूंट पानी की भी कीमत 32 रुपये से ज्यादा है। इनका खर्चा-हिसाब फिर कभी। फिलहाल, अपने देश से खत्म हुई गरीबी पर जश्न मनाइये। अहा, भाइयों ने कितना लजीज दिमाग रखा हुआ है! कहां छुपे थे मेरे बाप!
मैंने तो मोंटी साब (मोंटेक सिंह अहलूवालिया) को फौरन पटना से ही सलामी ठोक दी। सामने पड़ेंगे, तो पैर भी थाम लूंगा। वाह-वाह, सर जी ने क्या आइडिया निकाला है। एक ही झटके में गरीबी खत्म। जो काम आजादी के साढ़े छह दशक में नहीं हो पाया, कितनी सरकारें आयीं-गयीं, अरबों-खरबों इधर से उधर हो गये, मोंटी साब और उनकी टीम ने सेकेंड्स में कर डाला। कुछ खास करना भी नहीं पड़ा। कम्प्यूटर में कुछ आंकड़े डाले और इंटर मार दिया। सबकुछ प्लस- प्लस। मनमुताबिक। गरीबी खत्म। मेरी गारंटी है दूसरे देश प्रेरित होंगे। मेरी राय में मानवता के आधुनिक संस्करण खातिर यह अब तक की सबसे बड़ी क्रांति है। अर्थशास्त्र ने करवट बदल ली है।
खैर, मैंने जबसे मोंटी साब और उनके विद्वान टीम का 32 रुपया और 26 रुपया का सिद्धांत सुना-पढ़ा है; अमीरी के आधुनिकतम पैमाने से वाकिफ हुआ हूं, मुझे फोब्र्स (अमीरी रैंकिंग की पत्रिका) में अपनी पर्सनाल्टी दिख रही है। एकसाथ ढेर सारा ज्ञान हुआ है।
मैं जानने, समझने लगा हूं कि आखिर अपने देश की इतनी दुर्दशा क्यों रही है? क्यों एक ही देश में कई-कई देश जिंदा रहे हैं? मोंटी साब वाली यही मानसिकता इंडिया, भारत एवं हिन्दुस्तनवा के फर्क के मूल में रहा है। अब मुझे दादा (प्रणव मुखर्जी) के एक्जीक्यूटिव क्लास तथा इकोनामिक क्लास का फर्क और इसका मर्म समझ में आया है। यह सिर्फ हवाईजहाज का क्लास नहीं है।
मुझे लगता है कि यही मानसिकता अपने देश में इक_े कई तरह की पीढिय़ां पैदा करती रही है। एक पैदा होते ट्विंकल-ट्विंकल लिटिल स्टार …, रटकर प्रबुद्ध-संपूर्ण बन जाता है, तो दूसरा तीसरी कक्षा से एबीसीडी का किताब थामता है; यह नानवेज खिचड़ी खाते हुए अधिकतम वेंडर, फीटर, प्लम्बर या फिर सिपाही तक उछाल मारता है। यहां से चूकने पर उसके पाले में रिक्शा, ठेला बखूबी रहता है। ट्विंकल-ट्विंकल …,  वाली जमात आइआइटी और कैट का पैकेज पाती है। और तुर्रा यह कि हम समानता के सबसे बड़े पोषक हैं। भारतीय संविधान को मानना सबका परम कर्तव्य है। हालांकि अब ऐसा कुछ नहीं होना है। सबकुछ ठीक हो गया है। गरीबी खत्म हो चुकी है न!
नये संदर्भ में कुछ नई बातें हो सकती हैं। देखिये। सीबीआई और आयकर विभाग वालों का काम बढ़ गया है। वे झोपड़पट्टी पर छापा मार रहे हैं। वहां बैठने वाली पब्लिक से पूछ रहे हैं-आखिर आप लोग खुद पर प्रतिदिन पचास रुपया कैसे खर्च कर रहे हैं? ये एजेसियां इस तर्क को नहीं मान सकतीं हैं कि ये मनरेगा की मजदूरी के पैसे हैं। आय से अधिक संपत्ति का मामला बन सकता है।
अमीरी की नई परिभाषा के बाद पब्लिक का मेनू बड़ा दिलचस्प है। देखिये-44 पैसे का फल, 70 पैसा की चीनी, 5-5 रुपये का चावल-गेहूं, 1 रुपये की दाल, 2.30 रुपये की दूध (85 ग्राम), 1.80 रुपये की सब्जी …, वाह मोंटी साब वाह। हमने चवन्नी-अठन्नी खत्म कर दी है। वे अब 44 पैसे की सब्जी खाने की बात कर रहे हैं। 85 ग्राम दूध को मापने का पैमाना है क्या? कम्प्यूटर से देश चलता है? शुष्क आंकड़े, जिंदा लोगों के लिए मायने रखते हैं?
और अंत में …
मेरे मोबाइल के इनबाक्स में अभी-अभी एक दिलचस्प मेसेज टपका है। आपसे शेयर करता हूं। यह सन् 2050 में भारतीय मीडिया की सुर्खियां हैं।
* कसाब, 70 साल की उम्र में जेल में मर गया। अधिक बिरयानी खाने के चलते उसका कोलस्ट्रोल बहुत बढ़ गया था।
* गोलमाल पार्ट 27 रिलीज हुआ। तुषार कपूर अभी भी बोलने और अभिनय करने में असमर्थ हैं।
* राजा का बेटा 16 जी स्कैम में गिरफ्तार।
* दिल्ली में लड़की 50 फीट सुरक्षित (सकुशल) चली।
* लक्षद्वीप कैट्स आइपीएल से जुडऩे वाली 63 वीं क्रिकेट टीम बनी.
(ये इंडिया है मेरी जान! मोंटी साब का इंडिया।).

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