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लोकसेवक …, उफ ये काहिली

फंटूश
फंटूश
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सर जी, आइएएस हैं। सीनियर आइएएस। अभी परिवहन आयुक्त हैं। बड़ा भारी पद है। साधारण आदमी इसका लोड नहीं ले सकता है। मगर …! जरा, उनकी पीड़ा सुनिये- जानिये। जनाब, अपने अफसरों (जिला परिवहन अधिकारी) से पिछले पांच महीने एक सूचना मांग रहे हैं। थक गये। अब छठे महीने में उन्होंने सबको चेतावनी दी है कि अगर इस सूचना के न मिलने पर विभाग किसी प्रतिकूल स्थिति में आता है, तो इसके लिए वे सभी अफसर उत्तरदायी होंगे, जिनसे जानकारी मांगी गई है। अफसरों को ओवरलोडेड वाहनों से वसूली गई दंड की राशि बतानी है। यह सवाल राज्यसभा में उठा था। वहां तक जानकारी पहुंचानी है। पहुंचेगी? कब? ये क्या हो रहा है? एक सीनियर आइएएस इतना मजबूर होता है? आखिर बाकी लोकसेवक करते क्या हैं? इस काहिली (आजादी) का क्या मतलब है? सिर्फ अधिकार याद रखने से काम चलेगा? और कर्तव्य? इन लोगों का राज्य या जनता के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं है? ये वेतन किस बात का लेते हैं? लोकसेवा का अधिकार कानून का क्या होगा? ये नहीं सुधरेंगे? ढेर सारे सवाल हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि इनका किया क्या जाये? इसी हफ्ते ऐसी तीन-चार खबरें एकसाथ आयी हैं। पटना हाईकोर्ट ने दो कुलपति, दो कुलसचिव तथा चार अफसरों के खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट जारी किया है। इन्होंने हाईकोर्ट की बात नहीं मानी है। आम जनता के प्रति इनका रवैया क्या रहता होगा? विश्वविद्यालय हिसाब नहीं देते हैं। सरकार मुकदमों के बोझ से उबरने का उपाय तलाशने में परेशान है। लोकसेवकों की काहिली से मुकदमे हो रहे हैं। मुझे कुछ पुरानी बातें याद आती हैं। ये हाईकोर्ट की टिप्पणियां हैं-अफसरों की चर्बी गैंडा से भी मोटी हो गई है। ये संवेदनशून्य व जनविरोधी हैं। पटना नगर निगम ने किन्नरों की मदद से टैक्स की वसूली शुरू की। खूब हंसी हुई। मगर यह वस्तुत: नगर निगम के मर्द कारिंदों, उनकी काहिली व बेईमानी पर तमाचा था। सरदार बूटा सिंह ने राष्टï्रपति शासन में गद्दी संभाली थी। नौकरशाहों की पहली बैठक में उनका पहला फरमान था- पटना को मच्छर से मुक्त कराइये। यह निर्देश किसी भी एंगल से राज्यपाल की जुबान लायक है? छठ पर्व आ रहा है। गंगा घाट, अचानक एजेंडा बन गये हैं। इस निहायत रूटीन मसले के लिए भी मुख्यमंत्री को हस्तक्षेप करना पड़ता है। निरीक्षण को उन्हें घाटों पर जाना होता है। अगर मुख्यमंत्री ऐसा करते हैं, तो फिर घाट को सुंदर-सुरक्षित रखने वालों की जरूरत क्या है? अक्सर खबर आती है- अफसरों की क्लास लगी। इसकी दरकार क्यों पड़ती है? ईमानदारी, जिम्मेदारी या कर्तव्यपरायणता भी कहीं एजेंडा होता है? जहां तक मैं समझता हूं यह तो खून में होता है। ट्रेनिंग के दौरान इसे नौकरशाहों में इंजेक्ट कर दिया जाता है। गांव आधारित भारतीय या बिहारी राज व्यवस्था में डीएम को गांव में जाना ही चाहिये, लोगों से जुडऩा ही चाहिये, रात बितानी ही चाहिये। इसके लिए आदेश की जरूरत क्यों पड़ती है? एक बड़ी दिक्कत डिलीवरी सिस्टम के गड़बड़ाने की है। डिलीवरी सिस्टम, यानी व्यवस्था का वह अंतिम स्तर, जहां से योजना-घोषणा जमीन पर उतरती है। कौन जिम्मेदार है? ये अफसर करते क्या हैं? जनता या व्यवस्था की बेहतरी क्या सिर्फ राजनीतिक कार्यपालिका का दायित्व है? भारतीय लोकतंत्र में बहुत नेता (मंत्री) कई अर्थों में मजाक का पात्र होता है; अंगूठा छाप भी चल जाता है। लेकिन ये अफसर तो बहुत पढ़े-लिखे हैं, तगड़ी प्रतियोगिता-प्रशिक्षण से तप कर निकले हैं। फिर क्या दिक्कत है? इसी बिहार में यह बहस भी चल चुकी है कि ज्यादा भ्रष्टï कौन है-नेता या अफसर? बाद में आइएएस और आइपीएस के बीच भी यह फर्क बखूबी तलाशा गया। एक लंबा दौर अफसरों पर हमले का भी चला। इसका भी बड़ा हिस्सा काहिली और बेईमानी से ही जुड़ता है। तो क्या इसे हमेशा के लिए नियति मान ली जाये? फिर काहे का लोकसेवक? चलिये, जनता के पाले से कोई और नाम सोचते हैं।

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