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इधर कुछ नया ज्ञान हुआ है। आपसे शेयर करता हूं।
मैं, महान भारत का नागरिक होने के नाते बचपन से अपना माल और सरकारी माल तथा इसके अंतर के बारे में सुनता-जानता रहा हूं। अब बखूबी जान लिया हूं। आप भी जानिये।
उस दिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार गायघाट में थे। सेवा यात्रा पर थे। धान खरीदने वाले केंद्र का जायजा ले रहे थे। मैं भी था। मुझे एकसाथ कई तरह के अनुभव हुए। धान का बोरा रखने वाला गोदाम भुतहा लग रहा था। जहां-तहां से टूटा-फूटा हुआ। गारंटी है बारिश में पानी भी टपकता होगा। घुप्प अंधेरा था। धान का बोरा और कागज-पत्तर देखने के लिए बार-बार रोशनी की डिमांड हो रही थी। चैनल वाले कैमरा आन कर देते थे। मुख्यमंत्री के साथ पूरा काफिला था। मुख्यमंत्री का बाडी लैंग्वेज बहुत लोगों को बहुत परेशान करने वाला था। चलते-चलते मुख्यमंत्री ने खाद्य आपूर्ति विभाग के प्रधान सचिव से सवाल किया-बताइये, अगर यह (गोदाम) किसी आदमी का घर होता तो …?
असल में मुख्यमंत्री यह कहना चाहते थे कि यह भवन इसलिए भुतहा लग रहा है, चूंकि सरकारी है। मेरे सामने सरकारी माल और अपना माल का फर्क बिल्कुल ठेठ अंदाज में था। लेटेस्ट ज्ञानवद्र्धन।
मेरी राय में यह उतनी छोटी बात नहीं है, जितनी समझी गयी है। यह घर या गोदाम भर की बात नहीं है। वह बात है, जो अपने महान देश-समाज और राज्य को अभी के हालात में पहुंचाये है और जिसका हर स्तर भारी बदलाव का हमेशा तगादा करता है।
यह वस्तुत: इस बात का प्रमाण है कि कैसे हमने अपने भीतर की उस भावना को मार दिया है, जो देश- समाज व राज्य से प्यार की दरकार है। यही हालात हर सूरत में इस महान देश के नागरिकों के भीतर उप-राष्ट्रीयता की भावना की गुंजाइश को दफन कर देते हैं। अलग बात है कि राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना पूर्वांचल के लोगों को मारना-पीटने को ही उप-राष्ट्रीयता मानती है।
मुझे माफ करेंगे। थोड़ा भटक गया था। बात अपना माल और सरकारी माल की हो रही थी। इसका अंतर कई और रूप में खूब दिखता है। इसके दायरे में सिविक सेंस से लेकर उस मिजाज तक की बातें शामिल हैं, जो घर में जीरो वाट के बल्ब को मिनट भर भी फालतू जलने पर भड़क जाता है मगर मुहल्ले में दिन भर जलती स्ट्रीट लाइट को बुझाने की व्यवस्था करने की बजाय सरकार को कोसता है। जो कहीं भी, कहीं भी बिना लोक-लाज के फारिग होने की सुविधा देता है।
जहां तक मैं समझ पाया हूं अपना माल अपना माल होता है। यह सरकारी नहीं होता है। लेकिन सरकारी माल के साथ यह सुविधा जरूर रहती है कि इसे कभी अपना बनाया जा सकता है। सरकारी माल कब अपना बन जाता है, कोई नहीं जानता।
हां, कई मौकों पर आदमी सरकारी माल को जरूर अपना मानता है। इसके ढेर सारे मौके हैं। हर सांस पर मौके। चाहे इंदिरा आवास में कमीशन खाना हो, स्कूल की खिचड़ी से दाल चुरानी हो, वृद्धावस्था पेंशन देना हो, राशन मारना हो …, कहा न मौकों की कमी नहीं है। मुझे तो कभी-कभी यह भी लगता है कि माल महाराज के आ मिर्जा खेले होली वाली कहावत बनाने वाले, अपना माल और सरकारी माल के बीच बड़ा लम्बा शोध किये होंगे।
मुख्यमंत्री की सेवा यात्रा में थाना, स्कूल, अस्पताल, पंचायत भवन, सामुदायिक भवन, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, प्रखंड-अंचल कार्यालय, कलेक्ट्रेट, सर्किट हाउस …, सबकुछ चकाचक हुआ है। ऐसे कई भवनों में तो बीस-पच्चीस साल बाद रंगाई-पुताई हुई है। क्यों? यह उन भवनों की स्थिति है, जहां बैठने वाले लोग अपने लिए कई-कई बिल्डिंग बना चुके हैं।
आखिर सड़कों के किनारे चूना तभी क्यों पड़ता है, जब कोई आने वाला होता है? क्यों अपनी गाड़ी और सरकारी गाड़ी में फर्क है? क्यों, इसकी रफ्तार में अंतर होता है? सरकारी एसी और अपना एसी में फर्क के लिए कौन जिम्मेदार है?
खासकर, हम भारतीय जिस विरासत की पीढ़ी हैं, वह कर्म को पूजा मानती है। कर्म के ऐसे माहौल में पूजा …! कहां-कहां का बाथरूम भी दुरुस्त है? वाकई, बड़ा सवाल है-इस आदमी का क्या करें? आप सब आदमी होने के नाते इस सवाल का ईमानदार जवाब तलाशने में मेरी मदद करेंगे?
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