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एफडीआइ इन पालिटिक्स

फंटूश
फंटूश
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ये एक मस्त बैठकी की बातें हैं। गौर से सुनिये। मजा आयेगा।

* एफडीआइ क्या है?

-फारेन डायरेक्ट इनवेस्टमेंट।

* मतलब …!

-विदेश से अपने देश में डायरेक्ट पैसा आयेगा।

* डालर में आयेगा, पौंड में कि येन में?

-सब में आयेगा। मगर यहां सब रुपया हो जायेगा।

* तो दिक्कत क्या है? हंगामा क्यों है? हमें तो पैसे की जरूरत है न!

-अरे, नहीं भाई। दिमाग को थोड़ा खोलिये। इ भारत है। आप नेता हैं। राजनीति करते हैं। सब तरह के सिचुएशन को तौल-जानकर कुछ बोलिये। आपकी बात का वैल्यू है। एफडीआइ से बहुत नुकसान है।

* हां-हां, हम भी देख-सुन रहे हैं। लोग कह रहे हैं कि खुदरा मार्केट में इसका यूज, भारतीय कारोबारियों को तबाह कर देगा। बेरोजगारी बढ़ेगी। … हम तो विरोध कर ही रहे हैं। आखिर हम नौजवानों की बेरोजगारी, खुदरा व्यापार के अर्थव्यवस्था की तबाही कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं?

तभी एक भारी आवाज, सोशियो-इकोनामिक बहस की लाइन बदल देती है। इसे बिल्कुल नया एंगिल देती है- ‘अगर राजनीति में एफडीआइ हो जाये तो …?

जोरदार ठहाका। ठिठोली, धीरे-धीरे गंभीर होती जाती है। और इस तर्क व लाइन पर मजबूत होती जाती है कि अपने देश में इस क्रांतिकारी सिचुएशन (राजनीति में एफडीआइ) की गुंजाइश बखूबी परखी जा सकती है। देखिये, बहस मजेदार मोड पहुंच चुकी है। कई भाई लोग जोर-जोर से बोल रहे हैं। कुछ बिहार के संदर्भ में इस कल्पना को धारण किये हुए हैं-‘अहा, क्या सीन होगा? कई दूसरे बता रहे हैं-‘कटरा ब्लाक में बागमती नदी के बांध पर हीना रब्बानी पब्लिक से वोट मांग रहीं हैं। पब्लिक बस उनको निहार रही है। उनमें पाकिस्तान को देख रही है। उनको कश्मीर समस्या का समाधान मान रही है। किशनगंज में शेरी रहमान प्रचार कर रहीं हैं। कार्ला ब्रूनी सिवान का मोर्चा थामे हुईं हैं। … जनता टस से मस नहीं हो रही है। बराक ओबामा आरा, बक्सर में टहल रहे हैं। … फलां पार्टी ने रिपब्लिकन, और इसका डेमोक्रेट से समझौता है।

 बैठकी में शामिल एक भाई, हिलेरी क्लिंटन से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। वे हिलेरी को बाढ़ से बाहर नहीं जाने दे रहे हैं। बताते हैं बाढ़ इलाके की समस्या का समाधान बस हिलेरी से ही संभव है। बहस, ऐसी तमाम कल्पनाओं से आगे बढ़ दर्शन तक पहुंच चुकी है। अब घमासान इस पर मचा है कि आखिर इसकी जरूरत क्या है? जवाब की एक लाईन-‘हम विश्व परिवार की बात करते हैं। फिर राजनीति में एफडीआइ से परहेज क्यों है? … यह जनता के लिए फायदेमंद है। … जनता से वायदे और उनकी पूर्ति का सीन बदला हुआ होगा। … भारतीय गणतंत्र की चुनावी-राजनीतिक व्यवस्था में जनता के पाले से नये बदलाव की पुरजोर अपेक्षा है। एफडीआइ के बाद रोटी, कपड़ा और मकान से आगे की बात होगी। … तब वोट के लिए नोट के रूप में डालर, पौंड, येन, युआन बंटेंगे। पब्लिक ग्लोबल होगी। पार्टियां इंटरनेशनल कहलायेंगी। राष्ट्रीय अध्यक्ष की जगह अंतर्राष्ट्रीय अध्यक्ष व कोषाध्यक्ष लिखा जायेगा।

बहस में ऐसी ढेर सारी बातें आती हैं। सुविधा की बातें। एक यह कि बिहार का मैदान हार गया, तो जमीन बनाने अमेरिका निकल लिये। इंग्लैंड-आस्ट्रेलिया में पार्टी का ब्रांच खोल रहे हैं। दल-बदल, लंगड़ीमारी, टिकट बिक्री, जातीयता, समीकरण, दल- बदल …, सबकुछ इंटरनेशनल टाइप होगा। बहस आगे बढ़ती है। पालिटिक्स में थोक व खुदरा-दोनों सिचुएशन पर बात हो रही है। थोक, यानी पूरी पार्टी का मर्जर। खुदरा, मतलब यह कहने कि भरपूर गुंजाइश कि ‘पार्टी की ताकत विधायक या सांसद नहीं हैं, जनता है। लोग आते-जाते रहते हैं, पार्टी यथावत रहती है। यानी, लोजपा टाइप सिचुएशन। यह भी बातचीत की ही लाइन है-‘एफडीआइ सुबह, दोपहर, शाम व रात के हिसाब से नारे एवं झंडे बदलते रहने के लोकल मौके को मार देगा। इसे अंतर्राष्ट्रीय आयाम देगा।

मैं द्वंद्व में हूं। मुझे पब्लिक के फ्रंट पर बहुत फायदा नहीं दिख रहा है। कुछ भी कर लीजिये, राजनीति का यह थीम नहीं बदलेगा कि ‘आओ, खेलें पब्लिक- पब्लिक।  मेरी राय में पब्लिक खेल की वस्तु है, और रहेगी।

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