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बिहार पुलिस …, नया लुक

फंटूश
फंटूश
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कोई भी भाव-विभोर हो जायेगा जी! मैं भी हूं। सीन देखिये। मेरी गारंटी है आप भी हो जायेंगे। अपनी पुलिस नये लुक में है। मुझे तो उसके हथियार भी बदले-बदले नजर आ रहे हैं। वह नथुनिये पे गोली तो मार रही है मगर उससे गोली नहीं निकल रही है। जो कुछ भी निकल रहा है, वह कम से कम गोली नहीं है-इसकी गारंटी है। गीतों का ग्रामर बदला हुआ है। दरोगा जी से कहियो, सिपहिया करे …, लाईन-थीम सबकुछ चेंज है। एक पुलिस वाला, पब्लिक को बेहद विनम्र भाव में थाने की बगल की चाय-समोसे की दुकान पर लेकर आया है। अदब से पब्लिक को वहां बिठाया है। पुलिस वाले की जुबान से फूल बरस रहे हैं। वह चाय के पहले रसगुल्ला और फिर समोसा आर्डर करता है। पब्लिक खुश है। उसकी बाडी लैंग्वेज बता रही है कि आज उसका काम हो जायेगा। चाय-नाश्ते के बाद पुलिस वाला अपनी जेब से पैसा निकालता है, दुकानदार को देता है। पब्लिक अकबका गयी है। अचानक भागने लगती है। पुलिस वाला उसके पीछे-पीछे सुनिये जी-सुनिये जी बोलते हुए दौड़ रहा है। पब्लिक को भरोसा नहीं हो रहा है कि उसके साथ वाकई पुलिस वाला ही था और वही पीछे-पीछे भी है। यह एक और सीन है। जनता के लिए जागरूकता अभियान चला हुआ है। जहां-तहां पोस्टर, बैनर लगे हैं। लाउडस्पीकर से प्रचार हो रहा है। जागरूकता अभियान का थीम यही है कि पुलिस बिल्कुल सुधर गयी है। आप लोगों को घबराने की जरूरत नहीं है। अगर वह चाय- समोसा आफर करती है, तो बिल्कुल नहीं हड़बड़ायें। मानकर चलें कि पुलिस का दिमाग पूरी तरह दुरुस्त है। बच्चे, बाप को जब-तब घूर लेते हैं। बीवी कुछ ज्यादा मटक रही है। बच्चों को पुलिस अंकल पर भरोसा है। स्कूल में टीचर और घर में बाप शांत से हैं। निर्वाण टाइप। लड़कियों ने नई शब्दावली गढ़ी है-पुलिस ब्रदर। उनका गुमान मुहल्ले के लफंगों को होश उड़ाये हुए है। अंडरवल्र्ड और छुटभैये अपराधियों के लिए सुधरी पुलिस का सीन, और भी दिलचस्प है। तरह-तरह का सीन है। सबमें गांधीगिरी टाइप सिचुएशन है। सबकुछ क्रांतिकारी है; बहुआयामी है। मैंने पढ़ा है कि पुलिस वालों को बिहेवियर ट्रेनिंग होनी है। इसके बाद बहुत कुछ बहुत बदल जाने की बात है। इधर, पुलिस पर जिम्मेदारियां लगातार बढ़ीं हैं। दो बड़ी सामाजिक जिम्मेदारी मिली है। वह पारिवारिक विवाद को निपटाने के लिए काउंसिलिंग करती है, बच्चों को स्कूल पहुंचाती है। उसे जनता दरबार लगाना पड़ता है और पाकेटमार को पकडऩा भी पड़ता है। उसे इंदिरा आवास के गोलमाल को देखना है और आर्थिक अपराध का मोर्चा भी थामना है। ढेर सारे काम हैं। तरह-तरह के काम हैं। रोज काम बढ़ रहे हैं। और इसके एवज में हर स्तर पर पाले में सिर्फ गालियां हैं, आलोचना है। क्या यह दबाव, यह विडंबना, पुलिस को आदमी रहने देता है, जो उससे आदमी की उम्मीद की जाती है? यह पचड़े वाली अंतहीन बहस है। इसमें पडऩा …! मैं नहीं जानता कि वीडियोग्राफी को हथियार बनाने की कवायद कितनी कामयाब है? स्पीडी ट्रायल का चमत्कारिक असर सामने है। मुझे माफ करेंगे, थोड़ा भटक गया था। बात प्रशिक्षण, माड्यूल और कैप्स्यूल की चल रही है। मुझे रामदेव बाबा से लेकर आर्ट आफ लिविंग वालों की बात याद आ रही है। बाबा, योग में पूरी दुनिया की समस्याओं का निदान मानते हैं। उनके अनुसार योग से भ्रष्टाचार का भी खात्मा संभव है। उनके लोग जेलों में कैदियों की मनोभावना बदलने का दावा करते हैं। आर्ट आफ लिविंग वालों का यहां तक दावा है कि उनके आसन से सैकड़ों कैदियों का जीवन परिवर्तित हो चुका है। लेकिन इस बुनियादी बात पर कभी चर्चा हुई है क्या कि भरा हुआ पेट और शांत दिमाग में ही आसन असरदार होता है? इस देश में पेट भरने का कोई आसन है? इस लाइन पर ढेर सारी बातें हैं। सवाल हैं। प्रसंग हैं। बहरहाल, मुझे पुलिस ट्रेनिंग की इस नई कवायद पर तनिक भी ऐतराज नहीं है। आखिर कौन आदर्श स्थिति का विरोधी या आलोचक हो सकता है? मैं बड़ी अदब के साथ इस पूरी प्रक्रिया में बस एक संशोधन चाहता हूं। अभयानंद जी (डीजीपी) ट्रेनिंग का काम पुलिसकर्मियों से कराना चाहते हैं। मेरी सलाह है कि यह जिम्मेदारी नेताओं को दी जानी चाहिये। नेता, पब्लिक को पटाने के एक्सपर्ट हैं। जनता को कैसे मोहा जाता है; कैसे फौरन उसे संतुष्ट किया जाता है; कैसे उसे अपने पीछे-पीछे घुमाने लायक बना लिया जाता है …, यह सब काम नेताओं का पेटेंट है; इस बारे में कोई नेताओं से बखूबी सीखे। इस काम में नेता, पुलिस की भरपूर मदद कर सकते हैं। अभयानंद जी के अनुसार जवानों को बारगेनिंग स्किल भी आनी चाहिए। नेता इस काम में महारथी हैं।

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