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माओवादी …, ये किसके रोके रुकेंगे!

फंटूश
फंटूश
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कोई भी सकते में आ जायेगा जी! मैं भी हूं। सीन देखिये। मेरी गारंटी है आपका भी दिमाग डोल जायेगा। मन में ढेर सारे सवाल उठेंगे। गढ़वा (झारखण्ड) का बारूदी सुरंग विस्फोट, सवालों की संख्या को कई गुना बढ़ाता है। और किसी का भी ईमानदार जवाब उपलब्ध नहीं है।
गढ़वा के बाद बिहार की पुलिस भी अलर्ट की गयी है। दरअसल, माओवादी अपने लाल इलाके के आगे शासन की भौगोलिक सीमाओं को नहीं मानते हैं। बेशक, हालिया वर्षों में बिहार के खाते में किसी अप्रत्याशित माओवादी वारदात की बदनामी दर्ज नहीं हुई है। यह कभी नरसंहार का पर्याय रहे बिहार में शासन की बड़ी उपलब्धि है। शांति की इस शासनिक कवायद की दास्तान बड़ी लम्बी है। इसका आधार तेजी से तैयार हो रहा सकारात्मक माहौल है, जिसके कमोबेश हर कोण को विकास से जोडऩे की तगड़ी मशक्कत हो रही है। बेहतर परिणाम आने शुरू हुए हैं, आगे इनकी मात्रा और बढ़ेगी ही। मगर कुछ सच्चाई अब भी हैं, जो बहुत डराते हैं।
मैं जिस सीन की बात कर रहा हूं, उसके लिए पूरी तरह स्थानीय प्रशासन जिम्मेदार है। जब सबकुछ बदलाव के रास्ते पर है, तो शासन के गांव- कस्बों तक फैले तंत्रों से कर्तव्य का ईमानदार निर्वहन की अपेक्षा लाजिमी है। इसमें किसी भी स्तर पर तनिक भी चूक बदलाव के रास्ते बड़ी बाधा साबित होगी।   
मुझे माफ करेंगे, थोड़ा भटक गया था। मैं सीन की बात कर रहा हूं। देखिये। हाजीपुर, पटना से बमुश्किल 26-27 किलोमीटर दूर है। पांच दिन पहले की बात है। हाजीपुर में माओवाद समर्थन की ताकत दिन में दिख रही है। बैनर, दमन विरोधी मोर्चा का है। लाल बैनर थामे और लाल सलाम के नारे लगाते लोग बड़े माओवादी नेता कोटेश्वर राव उर्फ किशन जी की मौत की उच्चस्तरीय न्यायिक जांच की मांग कर रहे हैं। शहर ठहर गया है। जाम है। जुलूस घूम रहा है। ये देखिये, हाजीपुर सदर प्रखंड कार्यालय के कैंपस में उनकी सभा हो रही है। वे अफसर भी प्रदर्शनकारी नेताओं के भाषण अपने आफिस में बैठकर सुन रहे हैं, जिनके पास यह सब रोकने की जिम्मेदारी है। कुछ लोग पर्चा बांट रहे हैं। पर्चा में मौजूदा व्यवस्था को पूंजीवादी-सामंती राजसत्ता बता उस पर सीधा निशाना साधा गया है। इसमें एक कविता है। एक पंक्ति है-समुद्र के बंधन रात में तोड़े जाएंगे …, तलहटी में गाड़ दिये जाएंगे। पर्चा में दर्ज है-पुलिस ने किशन जी को पकड़कर मार दिया। इसमें राजसत्ता को खुली चेतावनी है। वैशाली, लोकतंत्र की जन्मस्थली है। सो, यह आयोजन उसे ज्यादा हतप्रभ किये हुए है। वह लोकतंत्र के मंथन में जुटी है।
मैं एक खबर पढ़ रहा हूं। हाजीपुर सदर अनुमंडल के एसडीपीओ अशोक कुमार प्रसाद कह रहे हैं-पूरे मामले की गहन पड़ताल की जा रही है।
भई, क्या पड़ताल हो रही है? किस बात की पड़ताल हो रही है? क्या इसकी कि हाजीपुर में आये लोग वाकई कामरेड ही थे? कौन-कौन एरिया कमांडर था? या फिर इस बात की कि यह प्रशासन को खुली चुनौती है या नहीं? या इस बात की कि आखिर इन लोगों में इतनी हिम्मत कहां से आ गयी?
मेरी राय में यह सिर्फ प्रदर्शन भर की बात नहीं है। मेरे मन में बहुत सारे सवाल हैं। ये सभी स्वाभाविक हैं। असल में ये सभी यहीं की और बहुत पुरानी स्थितियों से उपजे हैं। ये ऐसे नहीं हैं, जो कुछ महीनों या दिनों में समाप्त हो जायेंगे। नक्सली मोर्चे पर पहले ये स्थितियां रहीं हैं-सरकार, बड़े हादसों के बाद नींद से जागने का उपक्रम करती रही और पूरी न होने वाली घोषणाएं कर फिर सो गई; नक्सलियों के विरुद्ध सतत अभियान जारी न रहा; उन सभी उपायों को सार्थक ढंग से एकसाथ अंजाम नहीं दिया गया, जो नक्सलियों के फैलाव वाले कारकों का खात्मा करतीं; उनके सफाये की न तो ठोस हथियारबंद नीति बनी और न ही सरकार इसे सामाजिक- आर्थिक समस्या मानते हुए विकास के साथ गांवों तक पहुंची; गांवों की राजनीतिक शून्यता को नक्सलियों ने भरा; आत्मसमर्पण व पुनर्वास नीति अपना औचित्य साबित नहीं कर पायी; अक्सर नक्सली उन्मूलन की राजनीतिक लाइन विवादों में फंस गयी। और आज की तारीख का सबसे बड़ा सवाल यह है कि फिलहाल ये बुरे हालात किस मात्रा में है? ये खत्म हुए या …!
मेरी राय में यह सिर्फ राज्य सरकार के वश की बात भी नहीं है। 1998 से ही  बिहार, उत्तरप्रदेश, झारखंड, आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, महाराष्टï्र, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल की सरकारों ने मिलकर नक्सलियों के खिलाफ अपना को-आर्डिनेशन सेंटर बनाया हुआ है। इसकी नियमित बैठकें होती हैं। फिर ये क्यों लगातार फैलते जा रहे हैं? क्यों यह सवाल मजबूती से जिंदा है कि आखिर ये किससे रोके रुकेंगे? कैसे उनके चीन से श्रीलंका तक सेफेस्ट जोन बनाने और कंपोसा के गठन की बातें आती रहती हैं? उनके बारूदी सुरंग की काट अब तक क्यों नहीं निकली? कौन जिम्मेदार है? कोई बतायेगा? मुझे तो नहीं मालूम है? क्या आप जानते हैं?

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