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मैंने ग्लोबल बिहार समिट में बहुत लोगों को सुना। तीन लोगों की बातें सबसे ज्यादा अपील की। दिमाग में सीधे उतरी। गोपाल कृष्ण गांधी ने सियासत के बुलंद जिस्म और नासाज रूह से सबकुछ समझा दिया। एक नेता की जुबान से नेता की परिभाषा (कास्ट मैनेजर, फ्लोर मैनेजर, क्वेशचन आवर मैनेजर, हाउस मैनेजर, डिफेक्शन मैनेजर, जीरो आवर मैनेजर, ब्लफ मैनेजर) …, मैं तो यह मानने लगा हूं कि अपने महान भारत की हम जनता को अभी और बुरे दिन देखने हैं। चलिये जो भी होगा, अभी तक की तरह झेल लिया जायेगा। मैं, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सुन रहा था। वे बोल रहे थे-गरीब आदमी बेईमान नहीं होता है। बेशक, गरीब रहते ईमानदार रहना बड़ा मुश्किल है। यह बड़ा कंट्रास्ट है। मगर इसका हर स्तर सौ फीसदी ईमानदार है। और अगर बिहार को आदमी मान लिया जाये, तो इस व्यावहारिक कथ्य के कई ईमानदार कोण हैं, पक्ष हैं। कई की चर्चा मुख्यमंत्री ने भी की। मुझे भी गरीब आदमी के कई ईमानदार गुण बड़ी ईमानदारी से मालूम हैं। ईमानदार आदमी परम संतोषी होता है। यही बिहार का कैरेक्टर है। ईमानदार आदमी को हर कदम पर कड़ी परीक्षा देनी पड़ती है। बिहार, परीक्षाएं दे रहा है। ईमानदार आदमी को बेवकूफ समझा जाता है। बिहार के साथ यही सलूक होता रहा है। ईमानदार आदमी के साथ नाइंसाफी होती है। बिहार के साथ नाइंसाफी हो रही है। दरअसल, बिहार उस आदमी की कहानी है, जो अस्तित्व में आने के बाद से सबकुछ चुपचाप सहने को अभिशप्त है। समुंदर पार देश गढऩे वाले इस आदमी की गर्दन अपने ही देश में उतरती रही है। एकाध नमूना- 1935 में उड़ीसा से अलग होते वक्त बिहार पंजाब, बंबई, बंगाल आदि राज्यों से काफी गरीब था। एक अप्रैल 1936 को बिहार, उड़ीसा से अलग हो स्वतंत्र अस्तित्व में आया। 1935 के दौरान बिहार-उड़ीसा ने प्रति टन कोयले पर 25 पैसे की रायल्टी केंद्र से मांगी थी। केंद्र ने इंकार कर दिया। शुरू से बिहार के खनिजों का असली मालिक दिल्ली (केंद्र) रही। खनिज बिहार के और कारखाने लगते रहे दूसरे राज्यों में। बिहार की कंगाली की कीमत पर दूसरे राज्य अमीर होते गये। झारखंड के रूप में उसे फिर बांटा गया। बिहार, अपनी कंगाली के बूते दूसरों को अमीर बनाने की बड़ी लम्बी कहानी रखे हुए है। उसका महान संतोषी चरित्र उसे दूसरों की खुशी से तृप्त करता है। वह असम में गर्दनें उतरवाते हुए उल्फा की मूर्खता पर सिर्फ हंसता रहा है। बिहार, लद्दाख में सड़क बनाता है, तो कोलकाता में रिक्सा खिंचता है। दिल्ली के लिए वह सिण्ड्रोम है। मुंबई में राज ठाकरे का एजेंडा है। ऐसा क्यों है? कौन जिम्मेदार है? इस बात से कौन इंकार करेगा कि आजादी के बाद बिहार, आंतरिक उपनिवेश बना दिया गया। बिहार की कंगाली की कीमत पर दूसरे राज्य अमीर होते गये। बिहार, हमेशा से दूसरों को तुष्टï करने को अभिशप्त रहा। अब, जब वह अपने आगे बढ़ चुके भाइयों की बराबरी में खड़ा होना चाहता है, तो क्या यह अपराध है? क्यों उसे उसकी पुरानी नियति से उबरने नहीं दिया जा रहा? बिहार, जिसने अपना सबकुछ दूसरों पर न्यौछावर कर दिया, अब उसके लिए खजाना खोलने में क्या दिक्कत है? जब बिहार दूसरे राज्यों की तरह टैक्स देता है, तब अपनी सड़कों को चकाचक और फोन लेन क्यों नहीं चाहेगा? बिहार को छोड़ समावेशी विकास संभव है? अगर बिहार में आधारभूत संरचना नहीं है, तो क्या इसके लिए बस बिहार, यहां की सरकार जिम्मेदार है? देश की कोई जवाबदेही नहीं है? क्या, बिहार भारत का अंग नहीं है? एक मायने में इन लाइनों पर उठे सवालों के ईमानदार जवाब पर ही ग्लोबल समिट के सुनहरे परिणाम निर्भर हैं। चूंकि समिट में पहचानी गईं चुनौतियां और बताये गये समाधान पहले से जाहिर से हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर ये उपाय (समाधान) जमीन पर कैसे उतरेंगे? यह बिहार, यहां की सरकार के बूते की बात है? राज्य सरकार जितना संभव है, कर रही है। लेकिन उसकी सीमाएं हैं। दिल्ली को मजबूत सहारा देना ही होगा। यह उसका कर्तव्य है। न दिया, तो वह संघीय सुव्यवस्था में बेईमानी के अपराध का भागी बनेगा। खैर, अब जरा कोपेनहेगन बिजनेस स्कूल के प्रोफेसर डा.सुधांशु राय को सुनिये। वे बोल रहे हैं-सोया अजगर (बिहार) जाग गया है। वाकई, वे मुनासिब बात बोल रहे थे। बिहार के लिए अहम् ब्रह्मास्मि (मैं ब्रह्म ही हूं) निपट गर्वोक्ति नहीं है। उसके पास अठारह करोड़ हाथ हैं। उसने मुक्ति के सपने देखने शुरू कर दिये हैं। सपनों को लगे पंख फडफ़ड़ा रहे हैं। नाज, फख्र, गर्व, बिहारी उपराष्ट्रीयता …, समिट से उभरे थोक भाव के अरमान-अपेक्षाओं के साथ बिहार का दिल्ली से पुरजोर आग्रह है-सर जी, हमें भी आदमी समझिये। इस देश का नागरिक जानिये। … गरीब आदमी बेईमान नहीं होता है। उसकी जरूरतों के प्रति ईमानदारी बरतिये।
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