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औपचारिकताओं के महान देश में …

फंटूश
फंटूश
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मधु रानी ने आदमी के बारे में मेरी धारणा बदली है। मैं अभी तक यही जानता था कि दो तरह के आदमी होते हैं। मैंने मधु के रूप में तीसरे तरह की शख्सियत को जाना है। आपको, मधु से मिलवाता हूं। मेरी गारंटी है, आप मान लेंगे कि आदमी का तीसरा प्रकार भी होता है। मधु, जांबाज नरेंद्र कुमार की पत्नी हैं। नरेंद्र को खनन माफियाओं ने मार डाला। मधु, आइएएस हैं। मां बनने वाली हैं। उनको देखते, सुनते हुए दिमाग को फाड़ देने वाले कई मसले जेहन में एकसाथ घुमड़ते हैं। नरेंद्र को मुखाग्नि देने के बाद उनकी सहजता, वस्तुत: उनकी उत्कट हिम्मत है। मेरी पत्नी अवाक थी। उसका बाडी लैंग्वेज, जहां तक मैं समझ पाया, यही बता रहा था कि पति की हत्या से मधु असंतुलित हैं; बहुत शाक्ड हैं, इसलिए खुद को नार्मल दिखा रहीं हैं। मेरी पत्नी की धारणा गलत नहीं है। दरअसल, यह पति को गवांयी पत्नी का स्वाभाविक संदर्भ या परिप्रेक्ष्य है। और भारतीय सामाजिक व्यवस्था में तो …! खैर, मधु का अब बस एक ही आग्रह है-नरेंद्र की मौत ईश्यू बने, इवेंट नहीं। मधु यह अपने लिए नहीं चाहतीं हैं। अपने महान भारत के लिए चाहती हैं; सुनहरी व्यवस्था के लिए चाहती हैं। वे चाहती हैं कि नई पीढ़ी आइपीएस अफसर के बारे में जाने, उसकी महत्ता व ताकत को समझे और नेता संरक्षित माफियाओं को भी। बेशक, नरेंद्र अभी इवेंट हैं। एक ऐसा इवेंट, जिसके बूते टीआरपी बढ़ायी जा सकती है। बढ़ायी जा रही है। मधु की यह आशंका बेजा नहीं है कि तीन-चार दिन बाद कोई नया मसला, इस बवाल को पूरी तरह किनारे कर देगा। अपने देश में यही होता है। यही इस देश का संकट है। निहायत शातिर और मशीनी माहौल में सबकुछ बेहद औपचारिक है। मैं देख रहा हूं-ढेर सारी औपचारिकताएं हैं। ये तरह-तरह की हैं। सजावटी प्रयास की औपचारिकता है। ईश्यू, इवेंट बना दिया जाता है। इवेंट को ईश्यू बनाने की भी औपचारिकता है। बुनियादी और गंभीरतम मसलों को मजाक में उड़ा देने की औपचारिकता है। मेरी राय में इन्हीं औपचारिकता में अराजक तत्व हमेशा संरक्षित हैं। नरेंद्र, व्यवस्था के हश्र हैं। नरेंद्र, पहले और आखिरी नहीं हैं। नरेंद्र के पिता केशव देव लगातार कह रहे हैं-मेरा बेटा आइपीएस था। कुत्ता नहीं था। मुझको भी नहीं लग रहा है कि एक आइपीएस ट्रैक्टर से कुचलकर मार दिया गया है। नरेंद्र, राजनीति की औपचारिकता बन गये हैं। नेताओं की जुबानी लड़ाई के किरदार बन गये हैं। वे आरोप-प्रत्यारोप की सतही, औपचारिक राजनीति के केंद्रबिंदु हैं, बस। मधु का आग्रह, संजय सिंह के परिजनों से मिलता है। संजय सिंह, कैमूर के डीएफओ थे। पहाड़ और वन को लूटने वालों को रोक रहे थे। मरना ही था। मार दिये गये। तब औपचारिक तौर पर मान लिया गया था कि अब यह सब नहीं होगा। पहाड़, वन …, लूट के लगभग सभी मोर्चे ठंडा पड़ जायेंगे। किंतु जब हाल में गया और जहानाबाद में क्रसर के खिलाफ पुलिसिया कार्रवाई हुई, तो पता चला कि शासन के उन्हीं कारिंदों ने संजय की शहादत को लात मारी है, जिन्होंने उनकी बाडी के सामने कुछ भी गलत न होने देने की कसम खायी थी। सत्येंद्र दुबे, सतपाल सिंह …, कितनों को याद हैं? यह सब शासन की सक्रियता की औपचारिकता है। एक औपचारिकता है याद की, तो एक सबकुछ तुरंत भूल जाने की। घोषणा की औपचारिकता है। जनता को ठगने की औपचारिकता है। लाश पर सलामी ठोंक और पद के हिसाब से मुआवजा के रुपये गिनने की औपचारिकता है। यह मनौती (कामना) की औपचारिकता है-महात्मा गांधी एवं भगत सिंह फिर से जरूर पैदा हों मगर पड़ोसी के घर में। एक औपचारिकता खुद को समाज-देश के प्रति समर्पित दिखाने की है और इसकी आड़ में सिर्फ अपने को दुरुस्त रखने की है। आम समझ आधारित इस औपचारिकता को देखिये- मैं ठीक हूं, यानी सबकुछ दुरुस्त है। एक आइपीएस को उसकी पत्नी मुखाग्नि दे रही है, तो दूसरों के घर जोरदार होली जमी है। राजनीति, अपने-आप में औपचारिकता है। भाई लोगों ने अपनी सुविधा से ‘आन दि रिकार्ड, आफ दि रिकार्ड तय किया हुआ है। यह जुबान की औपचारिकता है। राजनीति में औपचारिकता के ढेर सारे आयाम हैं; थोक भाव में प्रसंग हैं। त्याग, ईमानदारी, लंगड़ीमारी …, अपने फायदे में अपने हिसाब से सहूलियत वाली परिभाषा तय करने की औपचारिकता है। कोई अपनी सुविधा से कहीं भी, कभी भी, किसी भी पार्टी में टहल जा सकता है। पार्टी, झंडा, नारा बदलने में तनिक भी समय लगता है? प्रतिबद्धता की औपचारिकता है। त्याग की औपचारिकता है। देश पर मर मिटने की औपचारिकता है; देश को मारने की औपचारिकता है। ईमानदारी की औपचारिकता है। बेईमानी की औपचारिकता है। बेईमान, ईमानदारी की परिभाषा तय कर रहे हैं-ईमानदार वही है, जिसे बेईमानी का मौका नहीं मिला है। गिरफ्तारी की औपचारिकता है। रिहाई की औपचारिकता है। आंदोलन की औपचारिकता है। विरोध की औपचारिकता है। समर्थन की औपचारिकता है। दोस्ती की औपचारिकता है। दुश्मनी की औपचारिकता है। रिश्तों की औपचारिकता है। कर्नाटक के रेड्डी बंधुओं की हैसियत किसी से छुपी है? उनके बंधु-बांधव बिहार में भी हैं। इनके चेहरे छुपे हैं? चेहरे जानते, पहचानते हुए उनको बचाये-छुपाने की औपचारिकता है। मधु की बातें इन सबसे, सबको आगाह कर रहीं हैं। सबको बता रहीं हैं कि जब व्यवस्था चरमराती है, तो किसी को नहीं बख्शती है। यह बारी-बारी से सबको अपनी लपेट में लेती है। मुझको बहुत बड़ा संकट दिख रहा है। मुझे आगे के दिनों में यह स्थिति साफ दिख रही है-कोई भी अपने बच्चों को ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ और जांबाज बनने की प्रेरणा नहीं देगा। उस समय के भारत को याद कीजिये। और औपचारिकता का चरण, इसकी मात्रा तय कीजिये।

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