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पटना के 62.66 प्रतिशत लोगों ने नगर निगम के चुनाव में वोट नहीं दिए। यह महान भारत की शहरी क्षेत्र में बसने वाली महान जनता का महान चरित्र है। मुझे यह कहने में बिल्कुल हिचक नहीं है कि यह आबादी बस कोसने और झुंझलाने का काम करती है। अपने हिसाब से व्यवस्था को बनाने में तनिक भी दिलचस्पी नहीं लेती है। उसे तो अपने अधिकार भी याद नहीं हैं। कर्तव्य, बहुत दूर की बात है। आखिर इतने सारे लोग वोट देने क्यों नहीं आते हैं? यह पब्लिक के स्तर से लोकतांत्रिक व्यवस्था का अघोषित बहिष्कार है या चाहते हुए भी वोट न दे पाने की व्यावहारिक कठिनाई -मजबूरियां हैं? मेरी राय में अब तो बूथों पर पहले जैसे संकट नहीं हैं। फिर, वजह क्या है? संख्या बल आधारित बहुमत व्यवस्था, इतनी बड़ी जमात की गैर मौजूदगी के बावजूद तार्किक है? यह तर्क चलेगा क्या कि पब्लिक का राजनीति या चुनावी व्यवस्था से मोहभंग हो गया है? तो क्या यह पब्लिक शासन की नई व्यवस्था चाहती है? मैं समझता हूं कि इस पब्लिक के लिए ये तमाम स्थितियां, ये सवाल दरअसल बेकार से हैं। अरे, जो अपना अधिकार याद नहीं रख पाता है, उससे क्या उम्मीद की जा सकती है? नगर निगम चुनाव के बाद मुझे संदेह होने लगा है कि जनता, वाकई मालिक रहना चाहती है। उसकी गुलाम मानसिकता उसे दूसरों की मनमर्जी पर चलने, रहने की आदी बना चुकी है। अगर मेरी यह समझ गलत है, तो फिर पब्लिक यह भी बताये कि उसने अपनी मालिक वाली भूमिका क्यों नहीं पहचानी; इसे क्यों नहीं ईमानदारी से निभाई? लोकतंत्र में वोट से बड़ा हथियार कुछ है? इस बेशकीमती अधिकार के उपयोग में शामिल न होने का आखिर क्या मतलब है? और सबसे बड़ी बात यह है कि ऐसे लोगों को किसी मसले पर बोलने या व्यवस्था को कोसने का अधिकार है? यह तो मालिक जनता की बात है। लोकतंत्र की वाहक, राजनीतिक पार्टियां भी इन घातक स्थितियों का समाधान तलाशे बगैर चालीस- बयालीस फीसद मतदान को ही पर्याप्त मानने लगीं हैं। यह मुनासिब है? अक्सर बहस चलती है-कौन जिम्मेदार है-पार्टियां या पब्लिक? मेरी समझ से यह तय करना मुश्किल है कि कौन कम जिम्मेदार है? पार्टियों की तरफ से देखें, तो यह सब उनका अपना चेहरा बचाने की कवायद है। वे अपनी परख के दायरे को विस्तारित करना नहीं चाहते हैं। बड़ी चालाकी से वोटरों की खासी संख्या को बूथों से दूर किया जाता रहा है। सामान्य दिनों में जनता को एकदम से किनारे रखने वाले दलीय कारनामे व चुनाव के समय बनाये गये खूनी माहौल …, चुनाव से वोटरों के रुझान कम करने वालों के चेहरे छुपे हैं? सभ्यता की दावेदारी व वक्त के साथ स्वतंत्र-निष्पक्ष चुनाव की चुनौतियां यूं ही नहीं बढ़ती गईं। बिहार में चुनाव हिंसा व धांधली का पर्याय बना दिया गया। युद्ध सा सीन, अजीब तरह का आतंक! हालांकि बूथों से थोक भाव में मतदाताओं की गैर मौजूदगी का यह सपाट व सतही तर्क है। ये स्थितियां एक पक्ष और वजह हो सकतीं हैं लेकिन यह जिम्मेदारी के दायरे से जनता को कदापि बाहर नहीं करती हैं। फिर, पहले जैसा अब शायद ही कुछ है। चुनाव में हिंसा का रिकार्ड बनाने वाला बिहार, शांति का भी रिकार्ड बना चुका है। मैं देख रहा हूं एक बड़ा पक्ष चुनाव आयोग भी है। उसने भी अघोषित तौर पर मतदान के प्रतिशत को निर्धारित किया हुआ है। यानी, वह भी मानकर चलता है कि सभी हाथ वोट नहीं गिरा पायेंगे। ये क्या है? चुनावी सफर में वोटरों के रुझान का आंकड़ा हर स्तर पर दुर्भाग्यपूर्ण है। अब तो पुरुषों की तुलना में महिलाओं में चुनाव के प्रति दिलचस्पी बढ़ी है। तो इन मर्दों का क्या करें? अभी यह जमात इस बात पर बहस कर रही है कि कई दागी छवि के लोग नगर निगम में पहुंच गये हैं। यह दोष किसका है? आखिर भस्मासुरी राजनीति की सहूलियतें किसने दी हैं? बहस यहां तक भी बखूबी विस्तारित हो सकती है कि क्या कोई ऐसा कानून नहीं है, जो आपराधिक तत्वों या ऐसी छवि वालों को चुनाव नहीं लडऩे दे। हम चुनाव आयोग की विवशता से लेकर सुप्रीम कोर्ट, पटना हाईकोर्ट की पहल व हस्तक्षेप तक पर बतिया सकते हैं। यह विरोधाभास खुले में है कि जब जेल में रहने वाला व्यक्ति चुनाव लड़ सकता है तो आम कैदी वोट क्यों नहीं दे सकता है? राजनीति के अपराधीकरण को रोकने की बात सभी करते हैं मगर टिकट देने वक्त इसका ख्याल कहां रख पाते हैं? चाहे बाहुबलियों के संतुलन की बात हो या फिर लोहा से लोहे को काटने की तकनीक …, तथ्य, तर्क और शब्दों की कमी नहीं है। बेशक, ये सारी बातें सही हैं। किंतु अपनी पब्लिक क्या करती है? किसने इस भयावह सच्चाई को खुलेआम किया कि अपराध की जात होती है। जाति के आधार पर अपराध को माफी कौन देता है? अब पब्लिक को पसंद जताने का कौन सा जतन किया जाए? और इससे भी बड़ा सवाल यह है कि इन 62.66 प्रतिशत लोगों का किया क्या जाए? ये बस प्रतीक हैं। महान भारत में इस प्रजाति के ढेरों पब्लिक हैं। ये सर्वत्र उपलब्ध हैं।
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