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माओवादी कौन है?

फंटूश
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अपनी ममता दीदी (ममता बनर्जी, मुख्यमंत्री) ने माओवादी की नई परिभाषा बनाई, बताई है। यह कुछ इस प्रकार है। जो आदमी (पब्लिक) सबके सामने मुख्यमंत्री से सवाल पूछेगा, वह माओवादी है।
दीदी ने अपनी इस परिभाषा को साकार किया है। उनकी पुलिस ने शिलादित्य चौधरी को इसलिए जेल भेज दिया, चूंकि उसने दीदी से उनकी सभा में किसानों के बारे में सवाल पूछा था। उसने दीदी से जानना चाहा था कि सरकार, किसानों के लिए क्या कर रही है? बेचारे किसान, रुपये न होने के चलते मर रहे हैं। सरकार के खोखले वायदे काफी नहीं हैं। मुझे लगता है दीदी खुद बहुत बदल गईं हैं। इसलिए उनकी परिभाषा भी बदल गई है।
चलिए, यह दीदी की परिभाषा है। खुद माओवादियों ने अपनी परिभाषा बनाई हुई है। आजकल पब्लिक की नजरों में यह इस प्रकार है- माओवादी वे हैं, जो स्कूल की बिल्डिंग उड़ाते हैं। उनको माओवादी कहते हैं, जो सड़क नहीं बनने देते हैं। वे आंखें, जो विकास या इसकी रोशनी बर्दाश्त नहीं कर पाती हैं। माओवादी उनको कहते हैं, जो लेवी लेने के बाद ठेकेदार को ईमानदारी का सर्टिफिकेट देते हैं। माओवादी वे हैं, जिनको रुपये देने के बाद मौज में रहा जा सकता है; मजे की लूट की जा सकती है। माओवादी, राजधानी एक्सप्रेस को दुर्घटनाग्रस्त कराते हैं। माओवादी वे कहलाते हैं, जिनके बारूदी सुरंग विस्फोट में बेकसूर भी मारे जाते हैं। माओवादी वे हैं, जो चुनाव का बहिष्कार करते हैं और उनके कामरेड चुनाव भी लड़ते हैं। माओवादी वे हैं, जिनकी पहली कतार मौज को जीती है। माओवादी, जातीय व्यवस्था के खिलाफ जोरदार पर्चा जारी करते हैं लेकिन स्वयं इस पूर्वाग्रह से बुरी तरह ग्रसित हैं।
अब जरा माओत्से तुंग को सुनिए। उन्होंने कहा था-कुछ ही दिनों के अंदर दसियों करोड़ किसान एक प्रबल झंझावात की तरह उठ खड़े होंगे। यह एक ऐसी अद्ïभुत वेगमान और प्रचंड शक्ति होगी, जिसे बड़ी से बड़ी ताकत भी नहीं दबा सकेगी। किसान अपने उन समस्त बंधनों को, जो अभी उन्हें बांधे हुए हैं, तोड़ डालेंगे और मुक्ति के मार्ग पर तेजी से बढ़ चलेंगे। वे सभी साम्राज्यवादियों, युद्ध सरदारों, भ्रष्टïाचारी अफसरों, स्थानीय निरंकुश तत्वों और बुरे शरीफजादों को यमलोक भेज देंगे।
माओवाद के इस परिभाषित उद्देश्य के दायरे में अभी का माओवाद फिट है? नई परिभाषाएं तय करने की सहूलियत किसने दी है? कौन जिम्मेदार है? माओवादी, किसानों के लिए क्या कर रहे हैं? यह मोर्चा, बिहार के संदर्भ में उनके लिए एक और परिभाषा बनाता है-माओवादी, किसानों के दुश्मन हैं।
माओ के विचारों को आधार बना जन फौज, आधार इलाका निर्माण, देहात के बाद शहर और फिर राजसत्ता पर कब्जा की रणनीति हो या यह तल्ख माओवादी समझ कि युद्ध का खात्मा सिर्फ युद्ध से; बंदूक से छुटकारा पाने के लिए बंदूक उठाना जरूरी; सत्ता का जन्म बंदूक की नली से होता है, बेशक माओवाद की स्थापित व बुनियादी परिभाषा को जिंदा रखने की कोशिश है लेकिन नई और लगातार बदलती परिभाषाएं …? माओवादी, इसके जिम्मेदार को बताएंगे?
अपने जमाने की मशहूर नक्सली जमात भाकपा माले (लिबरेशन) भी एक मायने में परिभाषा बदलने की जिम्मेदार है। लम्बी दास्तान है। उसने संसदीय रास्ता अख्तियार किया। तेलंगाना का रास्ता हमारा रास्ता, चीन के चेयरमैन हमारे चेयरमैन जैसे नारे किनारे पड़े।
एक और विडंबना देखिये। नई परिभाषा गढ़ती हुई दिखती है। 1964 में भाकपा टूटी। 18 मार्च 1967 को पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा की सरकार बनने के बाद नक्सलबाड़ी दमन छुपा नहीं है। किसने और क्यों ढाये अपने ही कामरेड साथियों पर जुल्म? बड़ी लंबी दास्तान है, जो वामपंथियों के हर स्तर की टूट को गद्दारी का शब्द देती है। यह नई परिभाषा है।
यह परिभाषा भी जानिए। थोड़ी पुरानी बात है। भाकपा माले ने एक विधानसभा चुनाव के पहले एमसीसी के खिलाफ पर्चा जारी किया- मध्य बिहार के औरंगाबाद, जहानाबाद, गया व दक्षिणी बिहार के गिरिडीह, चतरा, डाल्टेनगंज व हजारीबाग जिलों में चुनाव बहिष्कार की घोषणा करने वाले एमसीसी का जनता दल के साथ गुप्त समझौता हुआ है। इसके तहत एमसीसी ने इन जिलों में जद उम्मीदवारों को जीताने का बीड़ा उठाया है। बूथ कब्जा तक की योजना बनी है। प्रति बूथ पांच से दस हजार रुपये की कीमत चुकाई गई है। ऐसी करीब पांच सौ बूथें हैं। जवाब में एमसीसी ने लिबरेशन का चेहरा नंगा किया था। यानी, माओवादी वो भी हैं, जो साथियों, समान विचारधारा वालों को बेहिचक मारते हैं। एमसीसी ने चुनाव बहिष्कार को सफल बनाने को ढेर सारे खूनी उत्पात किए। और उसके कई कामरेड खुद चुनाव भी लड़े। माओवादी, दोहरापन भी दिखाते हैं।
बिहार में सत्तर के दशक में नक्सली आंदोलन की नींव पड़ी। तब से अब तक उनकी यात्रा को देखें, तो इस दौरान कई और परिभाषाएं बनी, बिगड़ी हैं। पहले हिंसा में भी अनुशासन था। अब …! आखिर माओवादी कौन है? कोई बताएगा?

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