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अब मैंने भी मान लिया है कि वाकई हम आजाद हैं। मुकम्मल आजाद। अपनी इक्कीसवीं सदी की आजादी देखिए। हम, मां को डायन बताने को स्वतंत्र हैं। हमने मां को डायन बताकर मारने-पीटने की आजादी हासिल कर ली है। अब इस आजादी को साकार रूप में देखिए। बेरकप (दरिहट, सासाराम) की लक्ष्मीना देवी अस्पताल में हैं। उनके साथ उनकी बेटी गजला और बेटा रामाकांत कुमार का भी इलाज चल रहा है। लक्ष्मीना, जाहिर तौर पर मां हैं। इसलिए भी कि उनकी कोख से बेटी और बेटा महान भारत की धरती पर आए हैं। भाई लोगों ने मां लक्ष्मीना को डायन मान लिया है; उनको, उनके पूरे परिवार को पीटा है। मां को डायन बताने वालों की हिम्मत देखिए। उन्होंने पहले मां के घर पर आकर गाली- गलौज की। पुलिस ने तल्खी दिखाई। भाई लोगों को पकड़कर ले गई। गांव वालों ने लक्ष्मीना और भाई लोगों के बीच सुलह करा दी। हिरासत से छूटकर आते ही इन लोगों ने लक्ष्मीना को बाल-बच्चों समेत पीट दिया। इनको गांव से बाहर निकाल रहे थे। मुझे, कोई बताएगा कि यह सब क्या है? कोई बताएगा कि 21 वीं सदी में इस घोर अराजक सामाजिक शर्म की छूट किसकी चूक का नतीजा है? यह कैसी मानसिकता या उसका आपराधिक समर्थन-संरक्षण है, जो किसी बीमार की बीमारी खातिर किसी महिला को सीधे कसूरवार ठहराती है और उसे सजा भी दे देती है? अगर यह अशिक्षा से सीधे ताल्लुक रखने वाला अंधविश्वास ही है, तो इसके लिए भी कौन जिम्मेदार है? अगर यह सामाजिक कलंक व्यापक जागरूकता से ही धुलेगा, तो फिर यह जागरूकता चल क्यों नहीं रही है भाई? लक्ष्मीना, पहली और आखिरी नहीं हैं। दुर्भाग्य से ऐसे मामलों में पुलिस ईमानदार भूमिका नहीं निभाती है। मेरी राय में ये स्थितियां, समाज में अंधविश्वास की जड़ों को और मजबूत तो करेंगी ही, लोगों का व्यवस्था से भरोसा भी टूटेगा। सबसे शर्मनाक तो यह है कि मां को डायन बताने की वारदातें डायन प्रथा प्रतिषेध विधेयक के रहते हो रहीं हैं। आज तक इस कानून के मुताबिक ऐसी कोई असरदार कार्रवाई हुई है, जो दूसरों के लिए नसीहत बनती? यह विधेयक 1999 में विधानसभा से पारित हुआ था। क्या सभी इसे भूल चुके हैं? जहां तक मैं समझता हूं डायन के नाम पर औरतों की हत्या और प्रताडऩा, वस्तुत: आदमीयत के मध्ययुगीन मिजाज का खुलासा है। और इस आदमीयत के दायरे में सभी हैं। मां को मैला पिलाना, बाल काटकर इलाके में घुमाना, गुप्तांगों को सलाखों से दागना यह सब आम चलन में है। सबकुछ बड़ा अजीब है। वर्णन लायक शब्द नहीं हैं। महिला सशक्तीकरण का बुलंद दौर तेज रफ्तार में है, महिला मातृशक्ति की प्रतीक है, तो फिर लक्ष्मीना बार-बार आदमीयत को क्यों रुलाती है, क्यों शर्मसार करती है? डायन की बदनामी देकर संपत्ति भी हड़पी जाती है। खासकर विधवाओं की संपत्ति पर कब्जे का तो यह सबसे आसान तरीका है। इन वारदातों की गुंजाइश मारनी ही होगी। महिला हित के नाम पर दुकानदारी चलाने वाले स्वयंसेवी संगठन अपने अस्तित्व का औचित्य साबित करें। सिर्फ सरकार को दोष देने से नहीं चलेगा।
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