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इतने दिन न हुए कि लोग भूल जाएं। चलिए, सबको याद भी करा देता हूं। फ्लैशबैक वाला सीन कुछ इस प्रकार है।
पब्लिक हतप्रभ है। दलीय झंडों का फर्क मिटा हुआ है। निहायत सतही मामलों पर लंगड़ीमार राजनीति के महारथियों के नारे एक हैं। सदन से सड़क तक किसी की भी बात में कोई फर्क नहीं है। सबने पूर्व मध्य रेलवे के हाजीपुर जोनल कार्यालय की लड़ाई को बिहार की आजादी की दूसरी लड़ाई माना और ये देखिए मजे में जीत भी गए। रेल मंत्री के रूप में नीतीश कुमार द्वारा लागू किया गया केंद्रीय मंत्रिमंडल का फैसला (हाजीपुर जोनल कार्यालय) आज भी इस बात का प्रतीक है कि कैसे राजनीतिक एकजुटता के बूते बेहतरीन नतीजे हासिल किए जा सकते हैं?
आज …! आज इससे भी बड़ा मसला (बिहार को विशेष राज्य का दर्जा) सबके सामने है, सबकी चुनौती है। सबकी जुबान पर चढ़ भी रहा है। असल में यही प्रदेश और यहां के लोगों की बेहतरी के बड़े उछाल का इकलौता उपाय है। क्या हो रहा है? मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इसके लिए अधिकार यात्रा पर निकले हुए हैं। जहां-तहां निहायत व्यक्तिगत या स्थानीय कारणों से गुस्से में कुछ हाथ उठे। स्वाभाविक है। लेकिन, जरा यह सीन देखिए। नियोजित शिक्षक मुख्यमंत्री की सभा में बवाल कर रहे हैं और राजद नेता कह रहे हैं कि हमारी सरकार बनी, तो हम तुम्हारी सेवा स्थायी कर देंगे। यानी, तुम मुख्यमंत्री को खूब चप्पल दिखाओ; उनकी सभा में हंगामा करो-हम तुम्हारे साथ हैं। खगडिय़ा के बवाल को राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद जनांदोलन बता रहे हैं। उनको इसमें राजग सरकार का खात्मा दिख रहा है। हद है! देश-दुनिया में क्या संदेश गया? क्या यह इस लायक है कि वाकई, बिहार का बच्चा-बच्चा विशेष राज्य के दर्जे का आकांक्षी है? यह मांग कमजोर नहीं हुई है?
मैं देख रहा हूं कि खगडिय़ा कांड के बाद सूबे की राजनीति टकराव के दौर में है। राजद पर मुख्यमंत्री की हत्या की साजिश का आरोप लगा है। राजद इसी अंदाज में जवाब दे रहा है। रणवीर यादव का कारनामा एजेंडा बन गया है। तरह-तरह की ढेर सारी बातें हैं। तो क्या, विशेष राज्य वाले इस बड़े मसले की आत्मा सतही राजनीति में घोंट दी जाएगी? यह एक आम बिहारी का सवाल है। गलत है?
मुझे कुछ और पुरानी बातें याद आ रहीं हैं। बहुत लोगों की यादाश्त अचानक चार्ज हुई है। लालू प्रसाद कह रहे हैं-मुख्यमंत्री के रूप में राबड़ी देवी ने सबसे पहले विशेष का दर्जा देने की मांग उठाई थी। तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी तैयार भी हो गए थे। लेकिन तब इन्हीं लोगों ने वाजपेयी जी ऐसा करने से रोक दिया, जो आज विशेष राज्य के लिए अभियान चलाए हुए हैं। वे मानते थे कि इससे राजद को फायदा हो जाएगा। नीतीश कुमार इसका तगड़ा जवाब दे रहे हैं-लालू जी तो केंद्र में इतनी हैसियत में थे कि यहां उनकी सरकार न बनी तो बिहार विधानसभा ही भंग करवा दी। उन्होंने अपनी इस ताकत का इस्तेमाल बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने में क्यों नहीं किया? बेशक, सवाल उठेंगे तो जवाब भी आएगा। लेकिन क्या वैसे किसी मसले पर, जिससे सबका हित जुड़ा हो, आरोप-प्रत्यारोप की लाइन इतनी दूर ले जाना मुनासिब है, जहां से ओर-छोर ही न दिखे। यह सब कब तक रुकेगा? कब तक एक बड़ा एजेंडा राजनीति के चक्कर में फंसाया जाता रहेगा? क्या, बस राजनीति के लिए राजनीति बिहार की नियति है?
इस बारे में बिहार विधानमंडल से सर्वदलीय प्रस्ताव पारित है। विकास के मसले पर राजनीति की सीमा होनी चाहिए। है? ऐसे ढेर सारे सवाल हैं। क्यों हैं? क्या, इससे भी किसी को इंकार है कि बिहार को विशेष राज्य का दर्जा नहीं मिलना चाहिए? अब इस बात पर बहस की कोई गुंजाइश है? कैसे मिलेगा? ऐसे तो नहीं मिलेगा।
उस दिन जदयू प्रवक्ता नीरज कुमार को सुन रहा था। वे कह रहे थे कि राजनीतिक पार्टियां हरिकीर्तन नहीं करती हैं। वह राजनीति ही करेंगी। बिल्कुल सही बात है। मगर जनता के पाले से यह सवाल भी इतना ही मुनासिब है कि आखिर पार्टियों में बिहारीपन का भाव क्यों नहीं जगता है? क्यों नहीं बनती है वैसी मजबूत बिहार लाबी, जो इस डिमांड को पूरा कराने की ताकत रखती हो।
मेरी राय में इस संदर्भ में कुछ और बातों को भी देखना होगा। विरोध की संस्कृति बदली है। भीड़ का कानून अपनी ताकत में है। परीक्षा में चोरी का मौका नहीं मिला, तो इसका गुस्सा ट्रेन पर उतार दो। किसी बेबस महिला को डायन बताकर उसे शौच पिलाओ, उसके गुप्तांग को गर्म सलाखों से दागो। वह सबकुछ करो, जो मर्द कहलाने की गवाही हो। आखिर यह मर्दांनगी बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने में क्यों नहीं दिख रही है? हाथ तो बस अपने लिए पत्थर फेंकने या नारा लगाने में ही थक जा रहे हैं।
शासन के पाले की भी कुछ बातें हैं। आम शिकायत है-लोकसेवक जरूरत के हिसाब से काम नहीं कर रहे हैं। यही वजह है कि चाहे मुख्यमंत्री की सेवा यात्रा हो या फिर उनका जनता दरबार …, निहायत मामूली मसलों को लेकर लोग सीधे उनके पास पहुंच जाते हैं। अफसर, जनता से दूर हैं। बड़ी लंबी दास्तान है। मैं तो समझता हूं यह भी राजनीतिक दलों की ही विफलता है कि वह जनता को इस बात के लिए प्रशिक्षित नहीं कर पाई है कि किस मौके पर कौन सी मांग उठाई जानी चाहिए? इससे भी राजनीतिक शून्यता झलकती है।
बहरहाल, जो भी हो यह हमेशा ध्यान रहना चाहिए कि अराजक प्रतिकार के नतीजे खौफनाक होते हैं। यह भाव विशेष दर्जा की मांग को सार्थक मुकाम देगा? किसी को एतराज है?
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