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सब्सिडी का देश

फंटूश
फंटूश
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अपना महान भारत आजकल एक ही काम में लगा है। अब मैंने भी मान लिया है कि रसोई या यहां खर्च होने वाली गैस के इंतजाम से ज्यादा महान काम कुछ नहीं है। अब इसका मर्म समझ में आया है। मैंने भी जान लिया है कि कैसे हम ढेर सारे महान भारतीय अभी भी पेट से आगे नहीं बढ़ पाए हैं। हमारा लगभग सबकुछ पेट से शुरू होकर पेट तक खत्म हो जाता है। अलग बात है कि कुछ लोगों का पेट सबकुछ हजम करने के बाद भी नहीं भर रहा है। बहुत सारे लोग बहुत कुछ मजे में खा चुके हैं, खा रहे हैं। वे देश को खा रहे हैं। सड़क को खा रहे हैं। बांध को खा रहे हैं। पुल को खा रहे हैं। मर्यादा को खा रहे हैं। ईमानदारी खा रहे हैं। आदमीयत खा रहे हैं। खाते ही जा रहे हैं। 
खैर, मैं अपनी पेट-महिमा के दौरान एक नई टर्मलाजी से वाकिफ हुआ हूं-केवाईसी। मैं दो महीने बाद भी केवाईसी को ठीक से नहीं समझ पाया हूं। उस दिन गैस एजेंसी में मेरा वेंडर मुझसे टकरा गया। मुझको समझाया केवाईसी का मतलब है-नो योर कस्टमर। मैनेजर ने बताया है कि तेल कंपनी अपने ग्राहक, यानी कि आपके बारे में जानना चाहती है। मैंने उससे पूछा-क्या रिश्ता लेकर आएंगे? अभी तक नहीं जानते हैं?
भई, मैं तो यही समझता हूं कि यह अपने नेताओं जैसी आदत है। अपने नेता आजादी के बाद से अपनी जनता को जान रहे हैं। जान नहीं पाए हैं। तेल कंपनियां जान लेंगी?
हां, तो उस दिन के बाद से मेरा वेंडर नाट रिचेबुल हो गया है। अभी वह मुहल्ले का सबसे खास आदमी है। जो सिचुएशन है, उसकी औकात और बढ़ सकती है। रोज दिन रसोई गैस के बारे में ज्ञानवद्र्धन हो रहा है। मेरी पत्नी भी मुझको पेट्रो अर्थशास्त्र समझा देती है। मैं समझता हूं कि कुछ दिन में सिलेंडर सामाजिक-पारिवारिक हैसियत का बाकायदा परिचायक होगा। लड़का देखने के दौरान लड़की वाले सिलेंडर को भी देख सकते हैं। जो बहू साथ में जितना ज्यादा सिलेंडर लाएगी, उसकी सास उसको उतना ही मानेगी। प्रेमिका, प्रेमी से पूछ सकती है- तुम्हारे घर कितना सिलेंडर है मेरी जान।
तरह-तरह का प्राब्लम है। ये सभी अनुभवजन्य हैं। शाब्दिक वर्णन से परे हैं। सिलेंडर को लेकर ताने मारे जा रहे हैं। यह सच्चे प्यार या सच्चे पड़ोसी के इजहार का उपाय बन गया है। अपने प्रदेश (बिहार) के रसोई गैस से जुड़े एक आंकड़े को देख रहा था। आश्चर्य हुआ। बमुश्किल नौ फीसद लोगों के लिए प्रदेश की यह व्यस्तता है; बवाल है। अपने बिहार में अभी भी इक्यानबे फीसद रसोई घर में एलपीजी (रसोई गैस) नहीं है। जब यह आबादी इस व्यस्तता या इससे जुड़े बवाल के दायरे में आएगी, तब …! मैं कांप जाता हूं।
मेरे एक परिचित सब्सिडी के बारे में मेरा ज्ञान बढ़ा रहे थे-यह देश शुरू से सब्सिडी वाला है। रामायण और महाभारत काल में भी सब्सिडी के प्रसंग मिलते हैं। पांडवों ने पांच गांव की सब्सिडी मांगी थी। नहीं मिली। महाभारत हो गया। अपने लालू प्रसाद जी ने अब इससे नसीहत ली है। उन्होंने कहा है कि अब पांच गांव के लिए महाभारत नहीं होगा। वे अपनी तरफ से कांग्रेस को बिहार में लोकसभा की सीटें देने में उदारता दिखाने की बात कह रहे हैं। मेरे एक साथी ने तो रावण के दस सिर को भी सब्सिडी से जोड़ दिया है। वह कह रहा था-यह भोले शंकर की सब्सिडी है।
मैं भी देख रहा हूं-राजनीति में सब्सिडी है। परिवार में सब्सिडी है। प्यार में सब्सिडी है। मुफ्तखोरी खून में रही है। मुफ्त में कुछ भी मिल जाए, आदमी खाने-पचाने को तैयार रहता है। अपना आदमी ऐसा नहीं था। उसको ऐसा बना दिया गया है। शासन का बड़ा पुराना सिद्धांत है-खुद मलाई चाभिये, पब्लिक को लेमनचूस बांटिए। यह सब्सिडी को मजबूत जमीन देने वाला तरीका है। मैं नहीं जानता कि अभी लेमनचूस वाली योजना चल रही है कि नहीं?
इस सब्सिडी को भी देखिए। मोंटेक सिंह अहलुवालिया एक दिन में एक पब्लिक के लिए 32 रुपये को काफी बताते हैं और खुद प्रधानमंत्री के भोज में साढ़े आठ हजार रुपए की प्लेट खाते हैं। अभी राबर्ट वाड्रा की सब्सिडी चर्चा में है। डीएलएफ वाले कह रहे हैं-वाड्रा को सब्सिडी नहीं दी। बाप रे, मैं सिलेंडर तो भूल ही गया था।

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