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अपनी-अपनी जांच : बाप रे ये कंट्रास्ट …

फंटूश
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मैंने एकसाथ तीन खबरें पढ़ी हैं। आपसे शेयर करता हूं। इटली की एक अदालत ने वहां के पूर्व प्रधानमंत्री सिल्वियो बर्लुस्कोनी को चार साल की सजा सुनाई है। कारोबारी बर्लुस्कोनी के लिए अभी और सजाएं आनी बाकी हैं। दूसरी खबर-भारत के सर्वाधिक शक्तिशाली राजनीतिक परिवार के दामाद और एक बड़ी कंपनी के बीच हुए जमीन सौदे की जांच भी चल रही है और उनको (दामाद) क्लीनचिट भी मिल गई है। मैं नहीं जानता हूं कि हरियाणा के अपर मुख्य सचिव की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय कमेटी अब आखिर क्या जांच रही है? जनाब को क्लीनचिट देने की होड़ मची हुई है। तीसरी खबर-तमाम भाजपाई पानी पी-पीकर अपने अध्यक्ष नितिन गडकरी को ईमानदार और कांग्रेसियों को बेईमान बताने में जुटे हैं। आपने ऐसा कंट्रास्ट (विरोधाभास) देखा है? मैंने तो नहीं देखा है। अपना बिहार तो और भी बहुत कुछ दिखाता है। अब देखिए न, चारा घोटाला का मामला अभी चल ही रहा है। पता नहीं कब तक चलेगा? अलकतरा और दवा घोटाले के आरोपी भी निश्चिंत से हैं। कुछ मर्तबा जेल की आवाजाही हुई, बस। तो क्या यह इटली और भारत (बिहार) का फर्क भर है? बात इससे भी बहुत आगे जाती है। असल में अपने यहां सबकी अपनी-अपनी जांच है, अपने-अपने नतीजे हैं। कुछ जांच के नतीजे पहले तय हो जाते हैं, जांच बाद में होती है। यहां जांच बाकायदा एक खेल की शक्ल में है। इसे सभी मिलकर और मौज ले- लेकर खेलते हैं। जांच शुरू होती है, जांच चलती है, जांच ठहर जाती है, जांच तेज होती है, जांच पलट जाती है …, जांच के ढेर सारे चरण हैं, स्वरूप हैं। इधर, डा.जगन्नाथ मिश्र से बात हो रही थी। वे मुख्यमंत्री रहे हैं। उनके पास जांच के बारे में ढेर सारे संस्मरण हैं। सुनिए-यह बात 1978 की है। वे जांच के बाद बहुचर्चित अरबन बैंक घोटाला के आरोपी बने। मगर सुप्रीम कोर्ट ने उनको बेकसूर ठहराया। डाक्क साब कहते हैं-कोर्ट ने इस टिप्पणी के साथ इस जांच (मामले) को खारिज किया कि यह राजनीतिक दुश्मनी साधने का कुत्सित प्रयास था। दरअसल, मुझे कर्पूरी ठाकुर ने फंसा दिया था। किंतु मैंने उनके खिलाफ रेपसीड कांड की जांच नहीं चलने दी। ऐसा करना एक और कुत्सित प्रयास होता। मेरे खिलाफ जीपी सिन्हा आयोग बना था। जांच में कुछ नहीं निकला। ये जांच की थोड़ी पुरानी बातें हैं। डाक्क साब का रोना है कि सीबीआइ ने उनको मुख्यमंत्री मानते हुए चारा घोटाला का आरोपी बना दिया, जबकि वे उस दौरान मुख्यमंत्री थे ही नहीं। यह जांच का कमाल है। दुश्मनी में भी जांच होती और दोस्ती की भी। कुछ दिन पहले यूपीए सरकार जांच के ही चक्कर में कैग (नियंत्रक महालेखा परीक्षक) से लड़ गई। यह भी जांच के खेल का ढंग है कि नतीजा अपने पक्ष का है, तो जांच ईमानदार है अन्यथा यह पूरी तरह गलत है। अपना बिहार तो इससे आगे का चरण बहुत पहले दिखा चुका है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पहली पारी में उनके साथ जीतन राम मांझी ने भी शपथ ली थी। लेकिन मांझी मंत्री पद संभालने के पहले मंत्रिपरिषद से हटा दिए गए। विजिलेंस ब्यूरो की क्लीनचिट पाने के बाद वे दोबारा मंत्री बने। आरएन सिंह के साथ ऐसा ही हुआ। एक पुराने मुकदमे के चलते उनका इस्तीफा लिया गया। सक्षम अदालत से बरी होने के बाद वे फिर मंत्री बने। अपने यहां की जांच एजेंसियां सत्ता संचालकों का हथियार रहीं हैं। यह जांच का नया खेल है। जांच प्रायोजित भी होती है। देखिए। तब, सुशील कुमार मोदी नेता प्रतिपक्ष थे। उनको चुप कराने के लिए तत्कालीन सरकार ने उनका नाम कोबाल्ट मशीन खरीद में हुए गोलमाल से जोड़ दिया। विजिलेंस ब्यूरो की जांच में स्पष्ट हुआ कि यह सब प्रायोजित था। हालांकि विजिलेंस ब्यूरो इस बात का जवाब नहीं दे सका कि जब गड़बड़ी हुई ही नहीं थी, तब मुकदमा हुआ ही क्यों था? ऐसे ही कई सवाल जीतन राम मांझी व आरएन सिंह के मामले में भी हैं। चारा घोटाला तथा कई अन्य घोटालों में खुद विजिलेंस ब्यूरो बुरी तरह बदनाम रहा है। वह जांच का जिम्मेदार था लेकिन जांच दबा दी। यह सब यहां के खून में है। हल्का फ्लैशबैक। 1967 में अय्यर कमीशन ने छह भ्रष्टï नेताओं के खिलाफ जांच करने के बाद कार्रवाई की अनुशंसा की। ऐसा कुछ नहीं हुआ, जिससे दूसरे नसीहत लेते। मैं देख रहा हूं आजकल राजनीतिक पार्टियां भी खूब जांच कर रहीं हैं। उनकी जांच टीम खूब दौड़ रहीं हैं। कुछ रिपोर्ट बड़े दिलचस्प होते हैं। हमने जांच के ढेर सारे मोर्चे खोल रखे हैं। न्यायिक जांच का अपना अंदाज है। सीआईडी जांच के बारे में यह धारणा आज भी पूरी तरह नहीं बदली है कि किसी मामले को दफन करना हो, तो सीआईडी को सौंप दो। सीबीआइ जांच से सभी वाकिफ हैं। लोकायुक्त जांच करते हैं। आजकल अपनी पुलिस वैज्ञानिक जांच कर रही है। महिला आयोग जांच करती है। बाल संरक्षण आयोग की अपनी जांच है। मानवाधिकार आयोग है। सूचना आयोग है। कोर्ट के आदेश पर जांच कमेटियां बनती हैं। संसद व विधानसभा की जांच कमेटियां हैं। अल्पसंख्यक आयोग है। अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग है। दोनों जांच करता है। लेकिन क्या कोई जांच सिल्वियो बर्लुस्कोनी की सजा जैसे मुकाम तक पहुंचती है? क्यों नहीं पहुंचती? क्या व्यवस्था ने राजनीतिज्ञों को ईमानदार बताए रखने की ठेकेदारी ले रखी है? किस नेता के बारे में कौन, क्या नहीं जानता है? एक परिचित ने हंसते हुए मुझको चुप करा दिया-शांत रहिए, जांच हो जाएगी।

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