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नेता का चश्मा : अपनी-अपनी जनता!

फंटूश
फंटूश
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मैं, रविवार को कुछ लोगों को कुछ ज्यादा याद आया। दोपहर से रात तक मेरा मोबाइल और बेसिक फोन कुछ ज्यादा बजा। कई फोन सुबह में आ गए थे। बातचीत की थीम एक सी थी। उधर से बोलने वाले सिर्फ दो तरह का आग्रह कर रहे थे-अधिकार रैली की विफलता वाले में नाम जोड़ दीजिएगा। प्रेस विज्ञप्ति गई है, देख लीजिएगा। कई फोन रैली को अभूतपूर्व और ऐतिहासिक बताने वाले भी थे। मोबाइल के इनबाक्स में ऐसे कई मेसेज टपके हुए थे। खैर, मेरे कान इन दोनों लाइन के अभ्यस्त हुए। मेरी जुबान ने उससे तालमेल कर लिया। दोपहर बाद जैसे ही घंटी बजती थी मैं पूछ लेता था कि फ्लाप कि बम्पर सक्सेस? असल में मैं फोन पर इन दोनों विरोधी कतारों के तर्कों से बचना चाहता था। उनके तरह-तरह के तर्क थे। और इनको पुष्ट करने ढेर सारी लाइनें आ जातीं थीं। एक नेताजी ने कमरे में बैठकर जान लिया था कि अधिकार रैली में किस जाति, बिरादरी व कौम के लोग नहीं आए हैं? मैंने पहली बार नेता की इतनी गहरी व पैनी नजर जानी है। मैं अभी तक नेता को मौसम वैज्ञानिक ही जानता था। चलिए, इस जनाब को सुनिए भीड़ तो थी किंतु उसमें उत्साह नहीं था। कुछ और सुन लीजिए। लोग ढोकर और पटना घूमाने की लालच देकर लाए गए थे। अगर अफसर और पार्टी के आपराधिक छवि के लोगों की मदद नहीं ली जाती, तो इतने लोग भी नहीं आ पाते। एक नेता ने तो रैली का राजनीतिक अर्थशास्त्र समझा दिया है-400 करोड़ रुपए वसूले गए हैं। एक ने रैली शुरू होने के पहले ही उसको फ्लाप शो कह दिया। मैं हतप्रभ हूं। यह क्या है? मेरी राय में यह पहली और आखिरी बार भी नहीं है। पाला (पक्ष) के हिसाब से जुबान जरूर बदली हुई रहती है मगर बात यही रहती है। भई, मैं तो इसे संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली वाले अपने महान भारत में मालिक जनता की हैसियत से जोड़कर देखता हूं, जो आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी निहायत कमतर हैसियत में रखी गई है। सबने अपनी सुविधा से अपनी- अपनी जनता तय कर रखी है। मैं सकते में हूं। तय नहीं कर पा रहा हूं कि आखिर मालिक जनता राजनीतिक खांचे से कब बाहर निकाली जाएगी? इस बार मैंने देखा कि जनता शुक्रवार से राजधानी में आ रही थी। उसकी उपस्थिति ही सबकुछ बता देती थी। बिना जूता-चप्पल वाले भी थे। वह अपनी राजधानी को आंख फाड़कर ललचाई आंखों से देख रही थी। बड़ी इमारतें देख अपने इंदिरा आवास की कामना की मौजूदा स्थिति को आंक रही थी। मगर नेताजी के चश्मे को यह सब नहीं दिखता है। नेताजी, जनता की मौजूदगी से जुड़े और इससे उभरे बुनियादी मसले सिरे से नकार देते हैं। यह मेरी जनता-तेरी जनता की मार है। यह ठीक उसी तरह है, जैसे कुछ नेता केंद्र और राज्य के पैसे को अपना- अपना बताते रहते हैं। आखिर जिम्मेदार कौन है? अगर जनता इक्कीसवीं सदी की दौर में भी इसी लायक है कि उसे कोई भी कहीं भी बुला ले; वह लोभी-लालची और बड़ी फुर्सत वाली है, तो जवाबदेही किसकी बनती है? नेताजी का चश्मा यह नहीं देखता है। और जहां तक मैं समझता हूं यह नेताजी की मन:स्थिति से पैदा हुई बेहद खतरनाक स्थिति है, जो आज यह संदेह बड़ी मजबूती से उभारी हुई है कि बिहार, भारत का अंग है? यह गलत है? अधिकार रैली का मकसद बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने के लिए केंद्र पर दबाव बनाना था। इसमें कितनी कामयाबी मिलेगी, यह बाद में पता चलेगा। लेकिन अपनी- अपनी जनता की यह खींचतान तो जनता के इस बुनियादी मुद्दे को ही किनारे करने वाली बात है? इससे किसको इंकार हो सकता है कि बिहार को विशेष राज्य का दर्जा मिलना चाहिए? बिहार की उपेक्षा पर अब बहस की कोई गुंजाइश बचती भी है क्या? कौन नहीं जानता है कि राज्य सरकार की अपनी सीमा है, अपने संसाधन हैं। इसके बाद का जिम्मेदार तो केंद्र सरकार है। वह अपनी जिम्मेदारी ईमानदारी से निभा रही है? आखिर इस मुद्दे पर अपनी-अपनी जनता के खेल का मतलब क्या है? बिहार का यही दुर्भाग्य है। नेताजी के चश्मे के चलते यह कई रूपों में विश्लेषित है। यही कारण है कि 1935 में उड़ीसा से अलग होते वक्त बिहार पंजाब, बंबई, बंगाल आदि राज्यों से काफी गरीब था और उसको फिर झारखंड का शोषक बताकर बांट दिया गया। इसी चश्मे के चलते शुरू से बिहार के खनिजों की असली मालिक दिल्ली (केंद्र) रही। खनिज बिहार के और कारखाने लगते रहे दूसरे राज्यों में। बिहार की कंगाली की कीमत पर दूसरे राज्य अमीर होते गए। चश्मे का एक और कमाल देखिए-अर्थव्यवस्था चौपट करने वाली भाड़ा समानीकरण की नीति। यही चश्मा इस बात पर भी बहस करा रहा है कि बिहार, विशेष राज्य के दर्जा के लिए किन- किन शर्तों को पूरा नहीं करता है? नेताजी का चश्मा फ्लैशबैक भी दिखा रहा है। सबको 1974 अचानक याद आया है। इसके दो पक्ष हैं। जदयू को लोगों के उत्साह में चौहत्तर दिखा है, तो राजद मानता है कि प्रदेश में 74 जैसे हालात हैं, जो संपूर्ण क्रांति की दरकार रखते हैं। क्या यह बात किसी से छुपी है कि चौहत्तर को अपना चेहरा बदलने का मौका बताने वाले बिहार को कई मामलों में घुमाकर वहीं पहुंचा दिया गया। इसके जिम्मेदारों के चेहरे छुपे हैं? मेरा बस एक ही सवाल है-नेताजी का चश्मा आखिर उस सुनहरे मुकाम को क्यों नहीं देखती, जो मजबूत बिहार लाबी के रूप में परिभाषित हो सकती है और जो बिहार के विकास का वाहक बन सकती है? कोई बताएगा?

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