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ये हाथ फांसी देंगे?

फंटूश
फंटूश
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वह सबको जगाकर सो गई। वह अपना काम कर गई। उसने बहुत बड़ा काम किया है। देश को जगाना हंसी-खेल नहीं है। अब हमारी, अपने महान भारत की बारी है।
और हमलोग …? क्या, हम जाग गए हैं? वाकई, अब तक सोए हुए थे? कब तक जगे रहेंगे? अपने यहां सोने-जागने जैसा कोई क्रियात्मक अंतर है? हम तो जागते हुए भी सोते रहते हैं। जागकर क्या कर लेंगे? अपन की हैसियत क्या है? हमने तो मालिक जनता के सुनहरे लोकतांत्रिक संसदीय सब्जबाग में डूबते-उतराते हुए खुद को उन हाथों के हवाले किया हुआ है, जो चुनाव के बाद अपनी सुविधा व फायदे से हमको खूब नचाते हैं, जो हाथ लोकतंत्र में राजतंत्र का भरपूर अहसास कराते हैं और जो हाथ जनसरोकार के तमाम मुनासिब मौकों पर बस कांपते हुए दिखते हैं। खैर, कौन-कितना जगा और सोया हुआ है, छुपा है?
मुझे, दामिनी के बहाने अपने देश को चलाने वाले हाथों के ढेर सारी आदतों की इक_ी जानकारी हुई है। आपसे शेयर करता हूं। मैंने मान लिया है कि जनता से हैसियत पाए हाथों की पनाह वाला अपना देश बड़ा मजेदार है। ये हाथ सहूलियत के सारे काम करते हैं। इनका हृदय इतना विशाल, उदार व लचीला है कि सभी तरह के अराजक तत्व इसमें बखूबी फिट हो जाते हैं। इन हाथ वालों की आंखों में ढेर सारे आंसू हैं। ये आंसू बहाना खूब जानते हैं। इनके पास बहुत सारा गुस्सा है। यह गुस्सा दिखाता भी है। क्रांति का जज्बा है। यहां तरह -तरह की क्रांति होती रही है। अहा, हमसे ताकत पाए हाथों ने इस देश को कितना सुंदर बनाया हुआ है? देखिए!
अपना देश इक्कीसवीं सदी में भी पेट से आगे नहीं बढ़ पाया है। ये हाथ वाले अब भी देश को बस रोटी, कपड़ा व मकान में फंसाए हुए हैं। यहां तोंद वाली जमात एसी कमरा में भूख को दूर करने का उपाय तय करती है। ये हाथ वाले बड़े सेन्टीमेन्टल हैं। शोक व्यक्त करना, श्रद्धांजलि अर्पित करना, भाषण देना, बड़ी- बड़ी बात करना, विरोध-प्रदर्शन करना, फुसलाना-पुचकारना, बड़ा-बड़ा कानून बनाना और फिर तुरत में सबकुछ भूल जाना …, कोई इनसे सीखे। ये वस्तुत: पब्लिक की शार्ट मेमोरी की ताकत से राज करते हैं। हम बहुत जल्द बहुत कुछ भूल जाते हैं। ये हाथ वाले त्रासदी का बस इसलिए इंतजार करते हैं, ताकि अपने ये अंदाज दिखा सकें। ये दिखा भी रहे हैं। दामिनी, सबकुछ बता-दिखाकर गई है। फिर, इन हाथों का क्या किया जाए? ये करते क्या हैं?
अभी आधी आबादी की सुरक्षा पर देश में कोहराम है। दुनिया भर के लोग उद्वेलित हैं। ऐसे में चाहे बिहार राज्य मानवाधिकार आयोग का बलात्कार के एक मामले में पटना के एसएसपी पर तल्ख टिप्पणी हो, राजधानी दिल्ली में रविवार को एक नाबालिग लड़की से बस ड्राइवर व कंडक्टर की छेड़छाड़ हो या फिर अहमदाबाद में एक बलात्कार पीडि़ता द्वारा जहर खाना …, यह सब क्या है? यह क्या दर्शाता है?
दामिनी के हवाले बलात्कार की समाजशास्त्रीय, अर्थशास्त्रीय, मनोवैज्ञानिक व्याख्या हो चुकी है। बचाव के उपाय में सुरक्षा वाले गैजेट्स तक बताए गए हैं। एक से बढ़कर एक बातें हैं। कुछ लोग कह रहे हैं कि यह नव-उदारवादी व्यवस्था की मानसिक विकृति है, तो कुछ संस्कार तक पर उतर आए हैं। कारण से लेकर निवारण तक …, जितने मुंह उतनी बातें। एक मैडम जी फरमा रहीं थीं-दामिनी को थोड़ी देर बाद बलात्कारियों के सामने सरेंडर कर देना चाहिए था। फिर उसे पुलिस को सूचित करना चाहिए था। पहनावे पर बात चली है। जिंस, स्कर्ट को भड़काऊ और मर्दों को आमंत्रित करने वाला पोशाक कहा गया है। साड़ी पहनी महिला के साथ बलात्कार नहीं होता है? हनीमून किडनैपिंग तथा बाजारू लव के नए ट्रेंड पर बात हुई है। विरोध व बौखलाहट में कई निहायत फूहड़ बातें आईं हैं, जिनकी चर्चा मुनासिब नहीं है। मगर ऐसी हर एंगिल की बातें उन्हीं हाथों पर जाकर टिकतीं हैं, जिसे सिस्टम कहते हैं; और उन लोगों के चेहरे तक पहुंची हैं, जो सिस्टम को चलाते हैं। ये हाथ करते क्या हैं?
मेरी राय में जनता के पाले से सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि दामिनी के कसूरवार छह नरपिशाचों को ताकत कहां से मिली? यह सिस्टम चलाने वाले हाथों की ताकत नहीं है? सामूहिक बलात्कार के लिए उम्रकैद की सजा है। सुप्रीम कोर्ट ने उम्रकैद को परिभाषित कर दिया है-ताउम्र जेल। अभी कितने बलात्कारी जेल में अपना जीवन गुजार रहे हैं? कोई बताएगा? बताने लायक कुछ है? कौन जिम्मेदार है?
बलात्कार और बलात्कारी के खिलाफ कार्रवाई का हिसाब बिल्कुल साफ है। अपने महान भारत में हर 22 मिनट पर एक बलात्कार होता है। 2011 में बलात्कार के बमुश्किल 22 प्रतिशत मामलों में कार्रवाई की स्थिति बनी। इस छूट में बलात्कार तो होंगे ही। दामिनी, पहली और आखिरी नहीं है। हां, यह बात जरूर है कि दामिनी के बहाने देश के जगने की चर्चा पहली बार हो रही है। ये हाथ बड़े चालाक हैं। ऐसे मौकों पर इनमें गजब की एकजुटता हो जाती है। ये बड़ी चालाकी से पब्लिक को दिखा देते हैं कि देखो मैंने तुम्हारे लिए क्या कर दिया?
मैं, पिछले पंद्रह दिन से बहस को सुन रहा हूं। बिहार के कई बड़े नेताओं को भी सुना। राजद के नेता भी सख्त कानून व समयबद्ध कार्रवाई की बात कह रहे हैं। उन्होंने अपने कार्यकाल में क्या किया? कोई सख्ती? कार्रवाई में समयबद्धता का एक भी नमूना? उन महिला के राजपाट वाले बिहार में बलात्कार पीडि़ता की चीत्कारें किसने नहीं सुनी है, जिनको दुर्गा व चण्डी कहा गया था? उन्होंने कई दफा कहा कि महिला प्रताडऩा के लिए एसपी व थानेदार जिम्मेदार होंगे। ऐसा एक भी उदाहरण है कि बलात्कार या दहेज हत्या के मामले में किसी एसपी या थानेदार पर कार्रवाई हुई हो? राजग सरकार ने अपराध से जंग में स्पीडी ट्रायल को अपना हथियार बनाया। बेजोड़ कामयाबी मिली। दुनिया भर में वाहवाही हुई। बलात्कार के मामलों में इस तरह की व्यवस्था करने में क्या परेशानी है? क्या दिल्ली कांड की पृष्ठभूमि में यह अपेक्षा की जाए कि अन्य मसलों की तरह बिहार इस मामले में नजीर पेश करेगा? अभी उसके पास ऐसे एकाध नमूने हैं। सौर बाजार (सहरसा) और गया में जापानी युवती कांड से आगे बात बढ़ती है? खुद पुलिस कह रही है कि सिर्फ इस साल अभी तक बलात्कार की 823 वारदातें हुईं हैं?
दरअसल, बलात्कार किसी नाबालिग, युवती या किसी महिला से नहीं होता है। बलात्कार, सिस्टम का होता है। देश के जो हालात हैं और सुरक्षा के जिम्मेदारों ने जो गुंजाइश बनाई हुई है, उसमें हर स्तर पर बलात्कार के मामलों का बलात्कार होता है। प्राथमिकी से बलात्कार होता है, जांच से बलात्कार होता है, गवाही से बलात्कार होता है।
ऐसे में रोकथाम के मोर्चे पर कहीं भी, कभी भी उन रहनुमाओं के हाथ दिखे हैं, जो आज कह रहे हैं कि मेरी भी बेटियां हैं; मैं भी औरत हूं, दामिनी की कुर्बानी व्यर्थ नहीं जाएगी? कुछ रहनुमा कसम टाइप बहुत कुछ खा रहे हैं। ये हाथ बलात्कार के कितने मामलों में कार्रवाई की मुद्रा में दिखे हैं? फिर क्या गारंटी है कि अगर फांसी की सजा तय भी हो जाए, तो ये हाथ नहीं कांपेंगे? ये हाथ लोगों को सुनहरा भविष्य खूब दिखाते हैं और वर्तमान को छीन लेते हैं। जब नया कानून बनेगा, तब बनेगा, तत्काल इस इंतजाम में क्या दिक्कत है कि देश में बलात्कार के लम्बित एक लाख 30 हजार मामलों को स्पीडी ट्रायल के बूते तीन महीने में निपटा दिया जाए?
मैं फिर कह रहा हूं कि ये हाथ सिर्फ झूठी सांत्वना देने वाले हैं; कि मुआवजे के रुपये गिनने वाले हैं; कि सीमा पर शहीद सिपाही की लाश को सलामी देने वाले हैं; कि व्यर्थ में पुचकारने वाले हैं। जो हाथ उम्रकैद की सजा की स्थिति नहीं बना सकते, वह फांसी देंगे?
इन हाथों की कुछ और आदतें हैं। ये हाथ पद पर रहते हुए सिस्टम के पार्ट होते हैं। उसके हर पाप-पुण्य का हिस्सेदार रहते हैं और पद से अलग होने के बाद सिस्टम की पोल खोलने वाले किताब लिखते हैं। बड़े- बड़े सेमिनार में बड़ी-बड़ी बात कहते हैं। इन हाथों की अंगुलियां सिस्टम पर ही उठती हैं। ये हाथ आजमाए और खारिज हैं। इन हाथों की मौजूदगी में औरतों के लिए यह विडंबना जारी रहेगी कि औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे …! मैं गलत हूं? देखिए, ये हाथ फिर से हमें सुला देने की हद तक सहलाने में लग गए हैं। लेकिन हमको सोना नहीं है। इन हाथों के बारे में सोचना है। इन हाथों की मौजूदगी में दामिनी मरती रहेगी और हम रोते रहेंगे, भड़कते रहेंगे।

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