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भारत और इंडिया

फंटूश
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मैं, रविवार को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सुन रहा था। मुझे उनकी यह बात बहुत बड़ी लगी कि उन्होंने एक ही देश (भारत) में दो देश (भारत और इंडिया) को भरपूर पहचाना है और एक ही देश (हिन्दुस्तान/भारत) की पुरजोर वकालत की है।

एक देश में दो-दो देश …? ऐसे में तो अपना देश पूरी तौर पर, यानी कि संपूर्णता में चलने से रहा। मैं देख रहा हूं कि अपने देश को चलाने वाले इसी सिचुएशन में समावेशी विकास की बात कह रहे हैं। अपना भारत, उनके इस दावे की सच्चाई का गवाह है। मैं तो यह कहता हूं कि अपने देश में तीन देश हैं-इंडिया, भारत और हिन्दुस्तनवा। सबका अपना चरित्र है। संस्कृति है। रूटीन है। जीवनशैली है। विकास और इक्कीसवीं सदी की अपनी-अपनी परिभाषा है।

मेरी राय में बिहार, बेशक अपना भारत है। वह भारत, जिसका स्थापित सवाल है कि आखिर उसका कसूर क्या है? जिसको अक्सर ऐसा लग जाता है कि वह इस देश (इंडिया) का अंग नहीं है? रामलीला मैदान में मुख्यमंत्री ने भी ये दोनों भावुक सवाल किए हैं। उन्होंने बिहार को भारत बता सबकुछ खुले में ला दिया है। वैसे यह सबकुछ बहुत पहले से खुले में है। मगर बहुत लोगों को बहुत कुछ नहीं दिखता है न! कुछ लोग देखकर भी नहीं देखना चाहते हैं। कुछ लोग देखते हुए गुजर जाते हैं। अपने देश में तरह-तरह के लोग हैं।

नीतीश कुमार की इस बुनियादी बात के कई एंगल हैं। वस्तुत: ये सब तलाश लिए गए हैं। यह भी कि नीतीश ने बिहार के बहाने शेष भारत (इंडिया नहीं) को एकजुट करने की कवायद में खुद को अगुवा के रूप में पेश किया है। राजनीतिक मोर्चे पर यह एंगल बहुत विस्तारित होती है। इसके ढेर सारे निहितार्थ हैं। पक्ष-विपक्ष में बहुत सारे तर्क-कुतर्क आ सकते हैं। लेकिन इस सच को कौन झुठलाएगा कि भारत (बिहार), इंडिया से बहुत दूर है। दोनों के बीच खाई लगातार बढ़ रही है। मैं तो यह मानता हूं कि यह सब नियोजित तौर पर हुआ है और यह नियोजन अब भी जारी है। एक उदाहरण।

मुझे कुछ पुरानी बातें याद आ रहीं हैं। 1935 में उड़ीसा से अलग होते वक्त भी बिहार, पंजाब-मुंबई-बंगाल आदि राज्यों से काफी गरीब और पीछे था। एक अप्रैल 1936 को बिहार, उड़ीसा से अलग हो स्वतंत्र अस्तित्व में आया। 1935 के दौरान बिहार- उड़ीसा ने प्रति टन कोयले पर 25 पैसे की रायल्टी केंद्र से मांगी थी। केंद्र ने इंकार कर दिया। दरअसल, शुरू से यहां के खनिजों का असली मालिक दिल्ली (केंद्र) रही। खनिज बिहार के और कारखाने लगते रहे दूसरे राज्यों में। ऐसे ढेर सारे तथ्य हैं कि आजादी के बाद बिहार को आंतरिक उपनिवेश बना दिया गया। यह गौरवशाली प्रदेश बस दूसरों को तुष्टï करने को अभिशप्त रहा। अपनी कंगाली के बूते दूसरों को अमीर बनाए रहा। भाड़ा समानीकरण (फ्रेट इक्वालाइजेशन) की नीति ने तो यहां की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह बर्बाद कर दिया। और सबसे हद तो यह कि बिहार को फिर झारखंड का शोषक बताकर बांट दिया गया।

एक हाल का नमूना देखिए। कोसी प्रलय को खुद प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह ने राष्ट्रीय आपदा कहा था। भरपूर मदद का भरोसा दिया था। लेकिन किया क्या? हजार करोड़ रुपये का कोई मतलब है? मुख्यमंत्री भी बता रहे थे-हमने साढ़े तेरह हजार करोड़ रुपये के पुनर्वास पैकेज का प्रस्ताव भेजा था। नहीं मिला। यह राज्य सरकार के बूते की बात है? फिर नेपाल में कोसी पर हाईडैम बनाना, कोल लिंकेज, नदी जोड़ योजना, त्वरित सिंचाई लाभ योजना, राइट टू एजुकेशन एक्ट …, क्यों न इस आशंका को ताकत मिले कि बिहार, इंडिया का अंग है? बिहार, देश गढ़ता रहा है और बिहारियों की गर्दनें अपने ही देश में उतर रही हैं।

संघीय व्यवस्था के आदर्श होते हैं। क्या ये इस लायक हैं, जो एक देश में दो देश की गुंजाइश को मार दें? कौन जिम्मेदार है? वह इस देश को कहां ले जा रहा है? यह राष्ट्रीयता की समेकित भावना को मारने का अपराध नहीं है? इससे बड़ा अपराध कुछ है?

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