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उफ ये आंखें …

फंटूश
फंटूश
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पटना हाईकोर्ट ने पूछा है-क्या आंख मूंदकर अपार्टमेंट का नक्शा पास होता है? यह सवाल पटना नगर निगम की आंखों पर उठा है। राजधानी, जहां सरकार बैठती है, सबकुछ अपनी आंखों से साफ-साफ देखती है, के एक मुहल्ले में दस फीट चौड़ी सड़क पर अपार्टमेंट बन रहा है। मेरी राय में यह सवाल सरकार की आंखों के लिए भी है। उसकी आंखें देख पा रही हैं?

मैं देख रहा हूं कि यह सड़क तो फिर भी दो फीट ज्यादा चौड़ी है। यहीं के एक और मुहल्ले में आठ फीट चौड़ी सड़क पर अपार्टमेंट बन रहे हैं। मैंने इस मामले को विधानसभा में भी उठते देखा है। मैं देख रहा हूं-कुछ बहुत पतली गलियों में बने अपार्टमेंट में ढेर सारे लोग रह रहे हैं। उनको नहीं रहना चाहिए। चूंकि किसी को कुछ देखना नहीं है, इसलिए कुछ हो नहीं रहा है।

मैं समझता हूं कि पटना हाईकोर्ट का यह सवाल हर उस आदमी के लिए है, जो कहता है कि उसके पास मजे की दो-दो आंखें हैं और वह सबकुछ साफ-साफ देखता है। वाकई ऐसा है? मुझे तो नहीं लगता है।

जहां तक मैं देख पा रहा हूं, आंख और उसकी नजर के कई स्टेज हैं, टाईप हैं। तरह-तरह की आंखें हैं। तरह-तरह की नजर है। कुछ आंखें हमेशा खुली रहती हैं मगर कुछ देखती नहीं हैं। कुछ खुलती ही नहीं हैं। कुछ, कुछ देखकर बंद हो जातीं हैं। कुछ अधखुली रहती हैं। कुछ उनींदी होती हैं। कुछ आंखों का सिचुएशन इस प्रकार का होता है-वह देखती कुछ हैं, होता कुछ और है। कुछ आंखें नजरों से मार देने की ताकत रखतीं हैं। कुछ आंखों में हमेशा मस्ती रहती है। कुछ आंखें दिल में उतरने का रास्ता होती हैं। कुछ आंखें, झील में उतरने की हसरत रखती हैं, तो कुछ खुद झील सी गहरी होती हैं। कुछ आंखों में पानी नहीं होता है। कुछ आंखें हमेशा भींगी रहती हैं। आंख पुराण अनंत है। इन पर चर्चा फिर कभी। अभी जानबूझकर बंद की गई आंखों को देखिए।

माना कि पटना नगर निगम की आंखों को दस फीट की सड़क चालीस फीट की नजर आई। किंतु इन अपार्टमेंट को बुक कराने वालों को यह चौड़ाई क्यों नहीं दिखी? उनको तो इनमें रहना है। उनके बदले क्या दूसरे देखेंगे? जी हां, कुछ आंखें ऐसी भी होती हैं। वो हमेशा दूसरों की नजरों से देखती हैं।

अगर इन कमजोर और दूसरों के भरोसे पर टिकीं आंखों को इस हफ्ते पाकिस्तान और चीन में आए भूकम्प से जोड़कर देखा जाए, तो आंखों में डर उतर जाता है। कुछ दिन पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की आंखों ने यह सब देखा था। उनकी जुबान पर फौरन दर्ज हुआ-अगर पटना में भूकम्प आया, तो कम से कम पांच लाख लोग मरेंगे। मुख्यमंत्री गलत बोलते हैं? अगर नहीं, तो कितनों ने उनकी बातों को अपनी आंखों के जरिए दिमाग व दिल में उतारा है? पिछले साल जब पटना की भी धरती डोली थी, तब जानबूझकर बंद रहीं इन आंखों में दहशत थी। ये आंखें तत्काल भगवान के सामने याचक की भाव में थीं। खुद नहीं देखने के कसूर की माफी के अंदाज में भगवान से मनौती मान रहीं थीं। इस हफ्ते भूकम्प की खबर सुनकर फिर ये आंखें रात भर जागी हैं। फिर भी कुछ देख, समझ नहीं पा रहीं हैं। यह आदमी की आंखें हैं।

नेता की अपनी आंखें हैं। सत्ता पक्ष की अलग आंख होती है। विपक्ष की नजर कभी भी उससे मेल नहीं खाती है। दोनों पक्षों के नेता आजकल एक- दूसरे को आंख का इलाज कराने की सलाह दे रहे हैं। कह रहे हैं कि चश्मा का नम्बर बदलवाइए। एक नेता को पिछड़ा क्षेत्र विकास निधि के तहत बिहार को मिला बारह हजार करोड़ रुपया विशेष पैकेज दिखता है। उसकी आंखें बड़ी बेजोड़ हैं।

सरकार की आंखें बड़ी दिलचस्प होती हैं। वह अपनी सुविधा से देखती भी हैं और नहीं भी देखती हैं। सरकार की आंखों के सामने नान बैंकिंग कंपनियां पिछले बीस-बाईस साल से जनता को लूट रहीं हैं। यह सरकार को नहीं दिखा है। हालांकि अब उसने यह सब देखने की बात कही है। उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने कहा है कि वे मुंबई में सेबी के चेयरमैन से इस बारे में बात करेंगे।

पुलिस की आंखों का कोई जोड़ नहीं है। वह एडवांस में तो सबकुछ देख लेती है लेकिन ऐन मौके पर उसे कुछ नहीं दिखता है। डा.सुरेंद्र कुमार ने बताया है कि फूड इंस्पेक्टर की आंखें सबसे तगड़ी होती हैं। पार्टी को टेब लेती हैं। मैं देख रहा हूं इधर सीबीआइ और विजिलेंस की आंखों की नजरें कमजोर हुई है? वह जब- तब दूसरों की आंखों से देखने लगती है? मुझे वकील और डाक्टर की आंखों में बहुत फर्क नहीं लगता है। ये आदमी की कातर आंखों को नहीं देख पाती हैं। बहुत देख लिया। आंखें थक गईं हैं। रिलैक्स चाहती हैं।

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