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बड़ा दिलचस्प संस्मरण है। सुनिए, देखिए।
मैंने जान लिया है कि पुरुष, कब महिलाओं को अपने बराबर मानते हैं या बराबरी के अधिकार पर बात करते हैं? मेरी राय में इसके लिए रेल की महिला बोगी सबसे सही जगह है।
मैं यह तो जानता था कि लोकल लेवल की ट्रेन में अलग से महिला बोगी होती है। इसके कई मजेदार किस्सों को सुना हूं। मगर खुद पहली बार इससे (बोगी) से रूबरू हुआ। मैं, जमालपुर स्टेशन की रेलमपेल में ऐसा फंसा कि कुछ मिनट बाद खुद को साहबगंज-दानापुर इंटरसिटी के महिला बोगी में पाया। मैं फौरन अपनी गलती का पश्चाताप नहीं कर सकता था। बोगी से बाहर निकलने का उपाय नहीं था। भरपूर धक्कामुक्की से बचाव के क्रम में ही ट्रेन खुल गई।
बहरहाल, यहां महिला-पुरुष बराबरी पर बहस स्टार्ट है। पुरुषों की टोली सफाई की मुद्रा में है। उसकी आंखों में करुणा और चेहरे पर मातृ शक्ति के सामने नतमस्तक सा भाव है। थोबड़ा और जुबान, बोगी में किसी तरह बस खड़े रहने की अनुमति मांग रही है। अंदाज प्लीज-प्लीज वाला है।
एक मैडम जी ने बोगी को अपना क्लासरूम समझा हुआ है। असल में वह एक युवक की इस बात पर और भड़क गईं हैं कि पचास परसेंट आरक्षण चाहिए आ पूरा बोगी भी एक्वायर कीजिएगा। ई भीड़ में जिसको जहां जगह मिलेगा, रहेगा। खैर, झालमूड़ी (भूंजा) फांक, आधा बोतल पानी पीने के बाद वे और जोर-जोर से बोलने लगतीं हैं-इ देश कभी नहीं सुधरेगा। मजाक बना दिया है लोगों ने। दूसरी वाली भी शिक्षिका ही लगती हैं-कहीं कोई कायदा-कानून नहीं है। सिपाही जी, आपको इ सब नहीं दिख रहा है? सब जगह इहे लोग (पुरुष) रहेगा। लाज भी नहीं लगता है! मेरे बगल में खड़े भाई जी शायद इस सीन के अभ्यस्त हैं। वे अपना अनुभव बुदबुदा रहे हैं-रोज दिन का धंधा है। बिना बात के कीचकीच। ट्रेन हिला-डुलाकर सबको सेट कर देगा। मैं तनाव को बढ़ता हुआ देख रहा हूं। सिपाही जी वर्दी झाड़ते कि बर्थ के कोने से यह पुरुष शब्द फूटता है-मैडम, अब त आप लोग हमलोगों से भी आगे बढ़ रहीं हैं। नीतीश जी (मुख्यमंत्री) आपको बहुत सारा अधिकार दे रहे हैं। दुनिया भर में चर्चा है। ई में महिला बोगी को काहे ला मुद्दा बना रही हैं? मैडम, भीड़ में महिला-पुरुष बुझाता है? अब तो सब बराबर हो रहा है? आप लोग तो आदमी को आदमी बनाने का काम करती हैं। बड़ी भीड़ है मैडम। कहां जाएगा लोग? मैडम-ई न बात हुई। ई न बोलिए। ई त नहीं चलेगा कि नियम भी तोडि़ए आ उल्टे हमीं लोग को डांटिए।
थोड़ी देर में मैं इस ज्ञान से वाकिफ हुआ कि ट्रेन में महिला बोगी को सुरक्षा की सबसे अधिक जरूरत होती है। मैं देख रहा हूं-बोगी में पहले से पुलिस के चार जवान अपना हथियार और सीट थामे हुए हैं। थोड़ी देर बाद मैं यह भी देख रहा हूं कि इनमें दो जवान झपकी ले रहे हैं। बोगी में महिला-पुरुष समानता स्थापित हो चुकी है। बहस का विषय बदल गया है। यह सुनहरा माहौल तब थोड़ा असंतुलित होता है, जब एकाध पुरुष एकाध नींद मारने के मूड में आने लगते हैं। उनका सिर कई बार महिला सिर से टकराता है। एक पुलिस वाले ने इस बोगी में अपनी मौजूदगी का तर्क सुनाया-यह ट्रेन के आखिर में होती है। ट्रेन की सुरक्षा के लिए ट्रेन के आखिर में रहना जरूरी होता है।
लेकिन मैं मोकामा में इसका राज जान गया। यहां गजब हुआ। दो पुलिस वाले चढ़ते हैं। बोगी का दरवाजा बंद करते हैं। निर्देश देते हैं-इसको कोई नहीं खोलेगा। इस समय तक इस बोगी में बस एक मां-बेटी, एक सोया बुजुर्ग, एक सोता-जगता अधेड़ और मैं …, यही हैं। पुलिस का दरवाजा बंद करना और उसका निर्देश जगे लोगों की मन में कई आशंका पैदा करता है। लड़की और उसकी मां सहमी हुई सी है। दोनों जवान बोगी के दूसरे पार्ट की खाली सीटों पर मजे में लेटे हुए हैं। ट्रेन खुलने के पहले उनका बास (दरोगा) भी आता है। गेट फिर बंद कर दिया गया है। कई महिलाएं गेट पीटकर आगे-पीछे की बोगियों में चली गईं हैं। हां, एक लड़की अपने भाई के साथ बोगी में प्रवेश करने में कामयाब होती है। बोगी में बैठी लड़की हिम्मत दिखाती और मां के मना करने के बावजूद दरवाजा खोल देती है। वह बोगी में अपनी संख्या बढ़ाना चाहती है। गेट खुलते दोनों जवान यह देखने को उठते हैं कि आखिर दरवाजा खोलने की जुर्रत किसके की है? मोकामा में चढ़ी लड़की बख्तियारपुर में उतरती है। गेट खुलते कई पुरुष (खासकर युवक) बोगी में आते हैं। पुलिस उन्हें भगा देती है। कुछ देर बाद पुलिस जवान अपने तीन परिचितों को ससम्मान बोगी में प्रवेश कराते हैं। यानी, पुलिस महिला बोगी को अपनी खातिर बचाकर रखती है।
बिहार में यह सब बड़ा नार्मल है। अगर आप ट्रेन से बहुत दूर से आ रहे हैं, तो बिना खिड़की खोले जान जाएंगे कि आप बिहार में प्रवेश कर चुके हैं। ट्रेन जैसे ही बक्सर में प्रवेश करती है, पता चल जाता है कि बिहार आ गया है। रिजर्वेशन वाली बोगी में ढेर सारे लोग घुस जाते हैं। ये आपको ही किसी कोने में सेट कर देंगे। मैंने कई बार देखा है-आरा में चढ़े लोग ट्रेन में दूर के यात्रियों को यह कहकर उठा देते हैं कि भाई जी, दिन में नहीं सोना चाहिए। कुछ बोलिए, तो आपको रिजर्वेशन का नियम भी समझाएंगे-यह रात में कारगर होता है। मेरी नेक सलाह है-ज्यादा मत बोलिए। कूपे से बाहर किए जा सकते हैं।
ये डेली पैसेंजर हैं। लोकसेवक हैं। जिम्मेदार हैं। व्यवस्था के हाथ-पांव हैं। डिलीवरी सिस्टम को साकार करने वाले हैं। इनकी बातें गवाही देती हैं कि बिहार का सिस्टम आखिर दुरुस्त क्यों नहीं हो रहा है? यह भी कि क्यों राज्य मुख्यालय से चले निर्देश या रुपये जमीन तक पहुंचते-पहुंचते गड़बड़ा जाते हैं?
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