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तो अब यही राजनीति चलेगी

फंटूश
फंटूश
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मैं अभी तक यही जानता, समझता था कि दवा और दुआ एक ही लाइन पर काम करती है। इसका इसका असर बेजोड़ होता है। यह खुशनसीब को नसीब होती है। एक काम नहीं करती है, तो दूसरी आजमाई जाती है। लेकिन यहां तो …!

खैर, मैं एक सीन देख रहा हूं। आप भी देखिए। बिहार विधानसभा बैठी हुई है। प्रश्नोत्तरकाल चल रहा है। नंदकिशोर यादव ने सड़क पर सवाल पूछा है। सरकार को कठघरे में खड़ा किया हुआ है। सरकार के पास नंदू जी (नंदकिशोर यादव) के हवाले सदन को संतुष्ट करने वाला जवाब नहीं है। सरकार संतुष्ट कर भी नहीं सकती है। विजय कुमार चौधरी (जल संसाधन मंत्री) खड़े होकर कह रहे हैं-नंदू जी, कल शाम तक तो पथ निर्माण विभाग आप ही के पास था। नंदू जी (नंदकिशोर यादव) झेंप जाते हैं। बैठ जाते हैं।

यह कल्पना भर नहीं है। समय का जो अंतर हो, यही होना है। अपने महान भारत की महान संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में यही होता रहा है। राजग के दोनों चरण की सरकार ने लालू प्रसाद और राबड़ी देवी के शासनकाल अभी तक इस्तेमाल किया है। लालू-राबड़ी ने कांग्रेसी सरकारों का इस्तेमाल किया। कांग्रेस वाले जनता पार्टी की सरकार का यूज करते थे। सरकार में बैठे लोग अक्सर यह कहकर विपक्षी विधायकों (जिनकी सरकार पहले थी) को चुप कराते रहे हैं कि हम तो आपके पाप को भोग रहे हैं। आप हमसे जो काम करने को कह रहे हैं, उसे आपने-आपकी सरकार ने क्यों नहीं किया था? भारतीय शासन प्रणाली में बचाव की यह राजनीतिक सुविधा बहुत पहले से रही है। सब इस सहूलियत का उपयोग मजे में करते रहे हैं।

मैं देख रहा हूं कि इस बार यह सबकुछ बहुत ज्यादा होगा। इसका स्वरूप भयावह होगा। आज इसकी मुनादी हो गई है। एक अणे मार्ग (मुख्यमंत्री आवास) और दो पोलो रोड (सुशील कुमार मोदी का आवास) इसका गवाह बना है। अब दोनों के रास्ते बिल्कुल बदल गए। लोग दोनों स्थानों पर जुटते हैं। बैठकें भी होती हैं। मगर सबकुछ बदला हुआ। जुबान, शब्द, संदर्भ, एजेंडा, रणनीति, एलान …, सबकुछ। मैं देख रहा हूं कि सूखी मालाओं में लिपटे डा.राजेंद्र प्रसाद सबकुछ टुकुर-टुकुर देखते रहते हैं। (राजभवन के पास देश के पहले राष्ट्रपति डा.राजेंद्र प्रसाद की आदमकद प्रतिमा है)। सभी लोग देख हैं। सबकुछ सबके सामने हो रहा है। 

मैं देख रहा हूं कि कमर के नीचे वार की नौबत है। साथी, विश्वासघाती मान लिए गए हैं। सांप्रदायिकता और धर्मनिपेक्षता की अपनी-अपनी परिभाषा गढ़ ली गई है।

बेशक, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने शब्दों की मर्यादा का मान रखा है। सुशील कुमार मोदी ने भी कमोबेश इसे निभाया हुआ है। लेकिन दूसरी-तीसरी कतार के नेतागण …, जब पुराने दोस्त बेगाने होते हैं, तब ऐसा ही होता है क्या? यह किसी भी आदमी के लिए नया अनुभव हो सकता है। यह भी समझ में नहीं आता है कि सुबह तक मसीहा, हमकदम, प्रेरक, भगवान आदि दोपहर तक कैसे भस्मासुर, धोखेबाज, झूठा, मक्कार हो जाता है? पानी पी-पीकर तारीफ और फिर पानी पी-पीकर आलोचना, गजब है।

चलिए, कुछ और सीन देख लीजिए। बिहार बंद स्टार्ट हो चुका है। जदयू और भाजपा के कार्यकर्ताओं ने आपस में मारपीट कर ली है। झंडे के डंडे से दोनों पक्ष के लोग एक-दूसरे को पीट रहे हैं। कुछ के सिर से खून बहने लगा है। कुछ को अस्पताल में भर्ती कराया गया है। पोस्टर फाड़े जा रहे हैं। भाजपाई, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पोस्टर पर कालिख पोत रहे हैं। उनकी बगल में नरेंद्र मोदी का पोस्टर टांगने की कोशिश हो रही है।
दोनों पक्ष, एक-दूसरे को वस्तुत: गालियां दे रहे हैं। पुलिस में दोनों ने रिपोर्ट दर्ज कराई है। बेचारी पुलिस क्या कर लेगी? यह सब उन लोगों का हाल है, जो कुछ घंटे पहले तक साथ थे; सत्रह साल से बाकायदा हमकदम थे।

मैं यह भी देख रहा हूं कि राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद और दूसरी विपक्षी पार्टियों के नेता यह सब देखकर खूब खुश हैं। लालू कह रहे हैं-दोनों (जदयू-भाजपा) को खऊरा रोग हो गया है। यह रोग कुत्ता को होता है। लालू एक शब्द बोलने के लिए एक्सक्यूज लेते हैं, कहते हैं-थोड़ी हल्की बात है, फिर कहते हैं-भगवा पार्टी वालों ने जेडीयू के एक नेता (राजीव रंजन प्रसाद), जो हमारी ही पार्टी (राजद) से भागा था, को एतना मार मारा कि पैखाना हो गया।
तो क्या आजकल की राजनीति यही है? यही चलेगी?
गठबंधन टूटने के दिन दोनों पालों ने होली-दीवाली मनाई? समझ में नहीं आया कि आखिर दोनों इतने दिन तक एकसाथ कैसे थे? बहरहाल, इन सबका अगला चरण? अभी बहुत सीन आना बाकी है। यह सब किसके रोके रुकेगा? कोई बताएगा?

रविवार को पटना हवाई अड्डा पर रविवार को कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह के साथ जो कुछ हुआ, लगता है कि जदयू और भाजपा के नेता सत्रह साल तक एकसाथ थे? क्या यह बौराहट की हद तक का उत्साह भर कहलाएगा? यह भी देखिए, जानिए। नीतीश कुमार को समर्थन देने की घोषणा कर चुके निर्दलीय विधायक विनय बिहारी दिल्ली से पटना आए थे। हवाई जहाज से उतरते उनको पता चला कि एयरपोर्ट के बाहर अपने नेताओं की अगवानी में भाजपाई खड़े हैं। विनय कई तरह की आशंकाएं समेटे बाहर नहीं निकले। भाजपाइयों को उनके आने का पता चला, तो चार-पांच लोग टिकट कटाकर एयरपोर्ट के भीतर गए। विनय को दुआ-सलाम कर एयरपोर्ट से बाहर ले आए।  उनके खिलाफ बाकायदा नारेबाजी शुरू हुई। अगर ऐन मौके पर गिरिराज सिंह के आने की खबर नहीं आती तो …? वस्तुत: विनय को वहां से किसी तरह बचकर भागे।

इन सबका अगला चरण? अभी बहुत सीन आना बाकी है। कुछ सीन बुधवार को बैठने वाली विधानसभा में भी आएगा। नीतीश कुमार को नए सिरे से विश्वास मत हासिल करना है। बच्चे बहुत कुछ सीखेंगे। वैसे विधानसभा के भीतर यह चेतावनी बाकायदा खारिज रही है कि श्श्ऽऽ, बच्चे देख रहे हैं। फिर यह सब किसके रोके रुकेगा?

तो क्‍या वाकई, नेता समाज का पथ प्रदर्शक होता है? भई, मुझे तो संदेह है। आपकी क्या राय है?

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