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जाति-अपराध और नेता की अदा

फंटूश
फंटूश
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अब मैंने भी मान लिया है कि नेता बेजोड़ होते हैं। उनकी अदा का जोड़ नहीं है। वे हर अच्छी व बड़ी बात को अपना बना लेते हैं। किसी भी मसले या मुद्दे को अपने फायदे में अपनी तरफ मोड़ लेते हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने राजनीति से अपराधी या दागी को बाहर कर देने का फैसला सुनाया। मैं देख रहा हूं कि नेताओं की टोली फैसले को अपनी आंखों पर मजे में बिठा चुकी है। नेता इस तरह बोल रहे हैं, मानों उनको इस फैसले का बेसब्री से इंतजार था। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जातीय सम्मेलन पर पाबंदी लगा दी। इसके बारे में भी नेताओं की ऐसी ही राय आई है। जिस गलती या विसंगति के लिए वे खुद जिम्मेदार हैं और जब उसे सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्ट ने सुधार देने का फरमान सुनाया, तो नेताओं ने इसे ऐसा मुलम्मा दिया है कि ये सुनहरी बातें उन्हीं की पहल पर हो रहीं हैं।

यह चेहरा बचाने की कवायद नहीं है? यह राजनीतिक दल या नेताओं की नैतिक हार नहीं है? राजनीति में स्वच्छता, शुचिता तो नेताओं की जिम्मेदारी थी। फिर सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट को इसके लिए क्यों हस्तक्षेप करना पड़ा? नेता चुप हैं। क्यों?

मुझे कुछ पुरानी बातें याद आ रहीं हैं। चौधरी चरण सिंह चुनाव के दौरान घूम-घूमकर एक आह्वïान किया करते थे-अगर मेरी पार्टी गलती से किसी अपराधी को टिकट दे देती है, तो उसे वोट नहीं देना है। फिर किस नेता ने दिखाया ऐसा माद्दा? और आज …! ढेर सारे प्रसंग हैं, संदर्भ हैं। सबके सब बहुत सारे वाजिब सवालों के प्लाट हैं।

मेरी राय में सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर सुप्रीम कोर्ट को क्यों बाकायदा फैसला सुनाना पड़ा। कौन जिम्मेदार है? राजनीति का अपराधीकरण (मुनासिब शब्द अपराध का राजनीतिकरण) के लिए किसे, कम कसूरवार माना जाएगा? आज तक यह कानून क्यों नहीं बना, जो आपराधिक तत्वों या दागी छवि वालों को चुनाव नहीं लडऩे देता? सुप्रीम कोर्ट, पटना हाईकोर्ट व चुनाव आयोग तो लगातार पहल या हस्तक्षेप करता रहा मगर नेता? नामांकन के वक्त आपराधिक रिकार्ड देने भर से क्या हो जाता है? यहां तो लोग जेल से चुनाव जीतते रहे हैं। लोग जेल से हाथी पर बैठकर घर लौटते रहे हैं। जेल से जुड़ी लोक-लाज किसने धो डाली? किसने संतुलन व लोहा से लोहे को काटने की तकनीक वाली समझ बनाई। इस अदालती टिप्पणी पर क्यों कुछ नहीं हुआ कि ‘जब जेल में रहने वाला व्यक्ति चुनाव लड़ सकता है तो आम कैदी वोट क्यों नहीं देगा?Ó

मुझे याद है पहली मर्तबा अस्सी के दशक में अपराध की गलियों से चार लोग विधानसभा तक का सफर तय किए थे। बाद में अपराध के राजनीतिकरण का दौर क्यों आ गया? कुछ का तो ऐसा राजनीतिकरण हुआ कि उनको अपराधी कहना अपराध माना गया? कौन जिम्मेदार है? किसने हमेशा ऐसे गंभीर मसले को सतही आरोप-प्रत्यारोप में उलझा दिया? किसने यह भयावह सच्चाई खुलेआम की कि अपराध की जात होती है? यह धारणा किसने बनाई कि सरकार के साथ अपराध की जात बदलती है। पब्लिक को जाति की घुट्टी कौन और किसलिए पिलाता है? टिकट बंटवारे के वक्त नेता आपराधिक तत्वों का ख्याल करता है? फिर इनके बूते बनने वाली सरकार के पाक-साफ होने पर भरोसा कैसे किया जा सकता है? ऐसे बयान क्या कहलाएंगे कि हमने उन्हें (अपराधी/दागी) सुधरने का मौका दिया है? इन नेताओं के चेहरे छुपे हैं?

मैंने तो नेताओं की यह चालाकी भी बखूबी देखी है। नेताओं ने जनता को जिम्मेदार बता दिया। यह मुनासिब है? बेशक, लोग जाति के आधार पर अपराध को माफी देते रहे हैं किंतु सभ्य समाज में कानून का भी मतलब होता है? नेताओं की तरफ से कभी इस स्थापित सच्चाई का मान रखा गया? अपराधी को गोद में बिठाकर अपराध समाप्ति की दावेदारी चल सकती है? क्या एकसाथ बचाव और कार्रवाई की बात होती है? बाद में तो अपराधी या दागी अपनी पत्नी व रिश्तेदारों को चुनाव जीताने लगे। उनको यह सहूलियत किसने दी? कोई यह भी बता पाएगा कि जन प्रतिनिधित्व कानून में आवश्यक संशोधन से कौन, किसका हाथ रोके हुए था? हां, भाषण झाडऩे में कोई किसी से कम नहीं रहा।

मुझे याद आ रहा है-डीपी ओझा, डीजीपी थे। राजनीति का अपराधीकरण के मामले में उन्होंने कहा था-हमाम में सभी नंगे हैं। वे गलत थे? एनएन वोहरा कमेटी की रिपोर्ट को लागू करने में राजनीतिक ताकत क्यों नहीं दिखी? यह काम होता, तो क्या आज सुप्रीम कोर्ट व इलाहाबाद हाईकोर्ट को फैसला सुनाने की जरूरत पड़ती?

मैं समझता हूं कि ऐसे बहुत सारे सवाल व इससे जुड़ी तोहमत से बचने को नेताओं ने इन अदालती फैसलों की पुरजोर तरफदारी शुरू कर दी है? वाह नेताजी, आह राजनीति।

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