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शहीद की जाति

फंटूश
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बचपन से कुछ चीजें जो याद हैं, उनमें यह खास है-… कोई सिख, कोई जाट-मराठा, कोई गोरखा-कोई मद्रासी; सरहद पर मरने वाला हर वीर था भारतवासी। मगर शनिवार की रात नया ज्ञान हुआ है। आपसे शेयर करता हूं।

मैं टीवी देख रहा था। एक चैनल पर बड़ी मूंछ रखने वाले एक बुजुर्ग, पुंछ में शहीद हुए बिहारी सपूत विजय कुमार राय की जाति बता रहे हैं। वे अपने को शहीद विजय का चाचा कह रहे हैं। बहुत आवेश में हैं। जोर-जोर से बोल रहे हैं-हमलोग यादव हैं, इसलिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हमारे पास नहीं आए हैं। मुख्यमंत्री, जाति की राजनीति करते हैं।

मैं देख रहा हूं-चाचा जी, राजद नेताओं से मुखातिब हैं। नेता जी मुस्कुरा रहे हैं। चाचा जी से वैसी बातें कह रहे हैं, जो उनको मुख्यमंत्री के खिलाफ बोलते रहने की ताकत दे रहा है। राजद नेता कामयाब हैं। चाचा जी बोलते जा रहे हैं। चाचा जी, राजद विधायक भाई वीरेंद्र की तारीफ कर रहे हैं। वे राजद के प्रधान महासचिव रामकृपाल यादव से पूछ रहे हैं कि आप लोग ऐसी सरकार को चलने कैसे दे रहे हैं? यह पूरा इलाका आपके साथ है। हमको साथ लेकर जो करना है, करिए। चाचा जी, नेता जी के सामने नेता बन गए हैं। मैं जानता हूं कि संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली वाले अपने महान भारत में फटाफट नेता बनने की ढेर सारी गुंजाइश है। ढेर सारे मौके हैं। चाचा जी, फटाफट नेता निर्माण से तेज निकले हैं। मेरी राय में यह भारत निर्माण का दूसरा और बहुत मायनों में असली पक्ष है।

मैंने पहली बार इस तरह किसी शहीद की जाति जानी है। इसका पालिटिकल एंगिल समझने की कोशिश में हूं। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि चाचा जी, शहादत के उत्कट गंभीर मौके पर जाति के सतही मोड में कैसे आ गए? उनमें शहीद की जात बताने की हिम्मत आखिर आई कहां से? क्या उनकी जुबान भी मंत्री जी की तरह फिसल गई? और सबसे बड़ा सवाल यह है कि गलती, बस चाचा जी की है? चाचा जी को जात पर उतरने की ताकत देने वाले माहौल का कौन जिम्मेदार है? है किसी के पास इसका ईमानदार जवाब?

मुझे लगता है-इसका अगला चरण कुछ इस प्रकार होगा। तब बताया जाएगा कि यह शहीद, इसलिए फलां राजनीतिक दल का माना जा रहा है, चूंकि उसका चचेरा भाई फलां पार्टी का उपाध्यक्ष है और मामा जी प्रदेश कार्यकारिणी में हैं। आगे के दिनों में पार्टियां अपनी- अपनी शहीद सूची जारी कर सकतीं हैं। हालांकि उनके पास तब भी इस बुनियादी सवाल का जवाब नहीं होगा कि नेता अपने बेटा को सेना में क्यों नहीं भेजता है? यह सवाल नौतन (छपरा) के शहीद रघुनंदन प्रसाद के एक परिजन का है। मैं उनको सुन रहा था।

मैं देख रहा हूं कि अब शहादत भी बाकायदा राजनीतिक एजेंडा बना दी गई है। चार बिहारी सपूतों का अंतिम संस्कार इसका हालिया गवाह है। मैंने उस दिन राजनीति का नया रंग देखा। शोक, गुस्सा, दावा, चुनौती, आरोप- प्रत्यारोप …, राजनीति बिल्कुल नए अंदाज में थी। शहीद के परिजनों के पास जो भी आया, अपने पूरे परिचय में आया; पूरे मकसद से आया। अब भी है।

ये क्या हो रहा है? क्यों हो रहा है? अभी शहीद व उनके परिजनों पर सबकुछ लुटा देने की होड़ है। उनके बच्चों को खूब पुचकारा जा रहा है। गोद लिया जा रहा है। उनको हमेशा याद रखने की बात हो रही है। यह सब कब तक चलेगा? अब हेमराज कितनों को याद हैं? अब उनके सिर की वापसी की मांग कहीं सुनी जाती है? वे नरसंहार पीडि़त बच्चे किनको याद हैं, जो नेता जी के कहने पर अपने बाप की कटी गर्दन अपने हाथ में उठाकर उनके साथ मार्मिक फोटो खिंचवाई थी? हमने तो अपनी सुविधा से लोगों को याद करने की बाकायदा तारीखें तय कर रखीं हैं।

मैं समझता हूं यह सब कुछ उसी तरह की बात है, जैसे जलेबी के लिए लाइन में लगकर गणतंत्र व स्वतंत्रता दिवस का एहसास; एसएमएस या फेसबुक के बूते मुकम्मल आजादी को जीना; कैंडिल मार्च में हिस्सेदारी के तत्काल बाद पिज्जा-काफी उड़ाना; किसी मसले पर मस्त-मस्त बौद्धिक बहस; शहीदों के लिए आंसू बहते हैं और सावन क्वीन का मजेदार आयोजन भी होता है …, असल में आदमी बेहद औपचारिक हो चुका है। मंत्री की जुबान हो या चाचा जी का जात पर उतरना …, सबकुछ बिल्कुल सामान्य भाव में है।

ये कड़वी बातें हैं। बड़ी अजीब सी हैं। हम हमेशा ऐसी बातों के बारे में बड़ा चलताऊ व सतही नजरिया रखते हैं। किसी तरह बस टाल देते हैं, निपटा देते हैं। इससे यह सब बहुत मजबूत हो गया है। अब इन पर बात हो जानी चाहिए। तय कर लिया जाना चाहिए। यह तय हो जाना चाहिए कि आखिर, हम किस दुनिया में जी रहे हैं और भावी पीढ़ी के लिए कैसी दुनिया बना रहे हैं? यह मुनासिब है? मुझे अक्सर आदमी का आदमी होने पर संदेह होता है। मैं गलत हूं? संकट पानी का है। यह न आंख में है, न नल में है। फिर, शहीद के लिए आंख में पानी भरेगा कैसे? वह कैसे भारतीय होगा? चाचा जी जात पर उतरेंगे ही? नेता जी मस्त रहेंगे?

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