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मुकम्मल आजादी : लेटेस्ट टाईप्स

फंटूश
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यह अकल्पनीय शहादत व समर्पण के बूते हासिल आजादी की 67 वीं सालगिरह के हालात हैं-संसद, सर्वोच्च न्यायालय (एक बड़े फैसले) के खिलाफ एकजुट है। यह महान संसदीय लोकतांत्रिक भारत की प्रबुद्धता, परिपक्वता है या …? ऐसे ढेर सारे सवाल हैं और कमोबेश हर सवाल इस सच्चाई की बाकायदा मुनादी है कि बेशक हम 66 साल में भी आजादी का मतलब नहीं समझ पाए हैं लेकिन मुकम्मल आजाद जरूर हो गए हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने राजनीति का अपराधीकरण के खात्मे को कारगर फैसला सुनाया। तमाम राजनीतिक दलों को बिठाने वाली संसद को यह पसंद नहीं है। एक मायने में वह इसे अपनी आजादी पर सीधा हमला मान रही है। कह रही है कि कानून बनाना उसका काम है। उससे कानून बनाने की यह आजादी कोई नहीं छीन सकता है।
बिल्कुल सही बात है। संसद में बैठने वाले राजनीतिक दल ही कानून बनाने के अधिकारी हैं। मगर दल, उसके नेता यह नहीं बता पा रहे हैं कि उनकी इस घोषित आजादी (जिम्मेदारी) में आखिर सर्वोच्च न्यायालय को क्यों हस्तक्षेप करना पड़ा? वाकई, उन्होंने अपनी जिम्मेदारी निभाई थी? देश तो गवाह है। कह रहा है-नहीं, बिल्कुल नहीं। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को तमाम राजनीतिक दलों ने सराहा था। फिर क्या हो गया कि उनको कानून बनाने की अपनी आजादी अचानक याद आ गई? दरअसल, यह सिर्फ अपना अधिकार याद रखने और कर्तव्य को बिल्कुल भुला देने की आजादी है। अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाने की आजादी है।
यह होना ही था। यह पहला और आखिरी मौका नहीं है, जब संविधान प्रदत्त अधिकारों के बावजूद इसको अंजाम देने वाली संस्थाएं आमने-सामने हैं। तो क्या हमने अपनी आजादी के 67 वें साल में यही मुकाम पाया है?
और जब समाज के पथ प्रदर्शक इस नौबत के केंद्र में हैं, इसके पुरोधा पुरुष बने हैं, तो बेचारी पब्लिक …! ऊपर से मुकम्मल आजादी का यह मनोभाव जनता की रगों में और विस्तारित अंदाज में समाया हुआ है, जिसका एक-एक कतरा बुलंद आजादी का एलान है। पूर्णत: उन्मुक्त, बंधनमुक्त। एक तरह से यह सब सदियों की गुलामी से जुड़ा काम्प्लेक्स (हीनता) ही है।
तरह-तरह की आजादी है। यह सब आजाद अंदाज में खुलेआम है। कभी, कहीं, कुछ भी बोल देने की आजादी है। गलती करने की आजादी है और झट से माफी मांग लेने की भी। सेकेंड-मिनट में झंडा-नारा बदलने की आजादी है। खुद बोलते रहने की आजादी है। दूसरों को नहीं सुनने की आजादी है। बस अपनी सुविधा, अपना फायदा देखने की आजादी है। आदमी के मशीन हो जाने की आजादी है। सबकुछ को सजावटी, दिखावटी बना देने व बेहद औपचारिक हो जाने की आजादी है। लापरवाही की आजादी है। बिना काम किए वेतन लेने की आजादी है।
अपनी गलतियों के लिए बस दूसरों को जिम्मेदार बताने की आजादी है। बे-औकात होने की आजादी है। उम्मीद दिखाने, सपने परोसने और फिर उसकी भ्रूण हत्या की आजादी है। ड्राई डे में मुर्गा-मछली फ्राई करने की आजादी है। आंख का पानी मार देने की आजादी है। नल से पानी गायब कराने की आजादी है। अपने-अपने अंग्रेज तय करने की आजादी है। अपनी-अपनी गुलामी बताने की आजादी है। इस गुलामी से मुक्ति की अपनी-अपनी आजादी है। प्रेरक शख्सियत, शहीदों को याद करने की तारीख तय करने की आजादी है।
डाक्टर भी हड़ताल करने को आजाद हैं। सरकार उनकी बात नहीं मानने को आजाद है। पुलिस, गोली चलाने को आजाद है। पब्लिक, पुलिस की जीप जलाने को आजाद है। लोकसेवक रिश्वत लेने को आजाद हैं।
हम किसी की गलती पर किसी और को सजा देने को आजाद हैं। हम जलेबी के लिए लाइन में खड़े होकर स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस का एहसास करने को आजाद हैं। बस एसएमएस या फेसबुक पर एक सुनहरे मेसेज या फिर बच्चों के लिए दो रुपये का तिरंगा खरीदकर आजादी के रंगों में रंग जाने को आजाद हैं।
आदमी ने आदमी न होने की आजादी पा ली है। बाप, बेटे को परीक्षा में चोरी कराने को आजाद है। बाप-बेटे साथ-साथ जेल जाने की शर्म से खुद को आजाद कर चुके हैं। अपने घर में बिजली-पानी न हो, तो सड़क पर निकल राहगीरों को पीटने की आजादी है। आदमी, भीड़ और उसके कानून को अंजाम देने को आजाद है। आदमी, अपनी जाति के अपराधी को छुड़ाने के लिए थाना पर हमला बोलने को आजाद है। गंगा को पूजने के बाद उसे प्रदूषित करने की आजादी है। समर्थक तय करने की आजादी है। लाशों के संतुलन की आजादी है। सहूलियत की गर्दनें चुनने की आजादी है। बच्चों को मारकर बड़ों के कारनामों का बदला लेने की आजादी है। वायदा करने, उसे तत्काल भूल जाने की आजादी है।
आजाद भारत का आजाद आदमी, सरकार को कोसने को खूब आजाद है। शहीद की जाति बताने की आजादी है। दूसरों का हिस्सा पचा जाने की आजादी है। अपने स्तर से अपराधी तय कर लेने की आजादी है। कार से बेडरूम तक जाने की समझ रखने की आजादी है। कुलपति, विश्वविद्यालय को जमींदारी मान लेने को आजाद हैं। नेता, सिर्फ अपने या एकाध अपनों के चुनावी टिकट लिए पूरी पार्टी को गिरवी रखने या पार्टी को बेच देने को आजाद है। परीक्षा में कदाचार जन्मसिद्ध अधिकार टाइप की आजादी है। बेटा, बूढ़े मां-बाप पर कहर को आजाद है, तो शोक में कैंडिल मार्च निकालने के बाद बर्गर-पिज्जा उड़ाने की आजादी है। भाई, बेखटके भाई को मार देने को आजाद है, तो देरी से पान खिलाने के जुर्म में गोली मार देने की आजादी है। पुलिस, अपराधी बनने को आजाद है।
अब बचा क्या? किस पर भरोसा करें? बहरहाल, इस उम्मीद के साथ कि हम अपनी आजादी को देश-समाज और खासकर अपनी खातिर स्व-अंकुश देंगे, आजादी का 67 वां जश्न मुबारक हो। कोई, वाकई अपनी आंखों में पानी भरेगा? यही शहीदों की कुर्बानी की याद है, उनको सच्ची श्रद्धांजलि है। कोई देगा?

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