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अलर्ट का खेल …, नेताओं के रंग

फंटूश
फंटूश
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मैं, बाबा (शिवानंद तिवारी) को सुन रहा था। मुझे उनकी यह बात बड़ी मुनासिब और बुनियादी लगी है। आप भी सुनिए, जानिए- पटना सीरियल ब्लास्ट में पकड़े गए लोगों से पता लगाना चाहिए कि आखिर वे आतंकियों के बहकावे में कैसे आ गए? क्या प्रलोभन है? क्या मजबूरी है? कौन सा गुस्सा है? किसका और किसके लिए टारगेट है? यह फीडबैक और इस पर समुचित कार्रवाई, आगे के दिनों में ऐसी घटनाओं को रोकने में मदद करेगी। अपने महान भारत में इस लाइन पर कुछ होता है?

अपने यहां जो होता है, वह दिख रहा है। साफ-साफ दिख रहा है कि राजनीति कैसी होती है; नेताओं के कितने सारे रंग होते हैं? दिख रहा है कि नेता, किस हद तक, कितना नीचे तक जा सकता है, जहां शब्द मर्यादा खो देते हैं और यह पुरजोर गुंजाइश दिख रही है कि अगर मीडिया गाली-गलौज छापने-दिखाने लगे, तो नेता मजे में एक-दूसरे को गालियां भी बकने लगेंगे। दिख रहा है अराजक तत्वों के लिए वह संरक्षण भाव, जो निपट स्वार्थ आधारित आरोप-प्रत्यारोप की सतही राजनीति से आकार पाया है। यह सवाल भी दिख रहा है कि वाकई नेता, समाज का पथ प्रदर्शक होता है? यह भी कि नेता, कौन सा-कैसा समाज बना रहा है; पब्लिक को कैसा रास्ता दिखा रहा है?

मैं देख रहा हूं कि इस सतही लड़ाई में बड़ी चालाकी से बड़ी बातें चुपके से गुजार दी गईं हैं। तारिक उर्फ ऐनुल के घर वाले उसकी बाडी लेने नहीं आए। तारिक, पटना सीरियल ब्लास्ट का खास किरदार था। मौके पर बुरी तरह घायल हो गया। बाद में मर गया। उसके परिजनों ने उससे नाता तोड़ लिया। यह कम हिम्मत की बात है? ऐसे मामलों में अक्सर यही होता है कि अपने, अपनों को बेकसूर बताने-उसे बचाने कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। मैं समझता हूं ऐनुल का मसला आम आदमी की ताकत है। आम आदमी ही ऐसा कर सकता है। यह दूसरे के वश की बात नहीं है। नेता की तो बिल्कुल नहीं।

नेता क्या कर रहा है, आदमी देख रहा है। आदमी देख रहा है कि कैसे तमाम बड़े मसलों पर सिस्टम का एकांगी दृष्टिकोण सबकुछ गड़बड़ा चुका है। नक्सली, उनकी ताकत इसकी भरपूर गवाही हैं और अब आतंकियों का मसला भी इसी चक्कर में उलझा दिया गया है। बिना सामाजिक-आर्थिक कारणों की पड़ताल किए पुलिस या खुफिया तंत्र के बूते आतंक पर रोक संभव है? अगर हां, तो यह सबकुछ रहते कैसे यह धारणा बन गई कि आतंकी फैल चुके हैं, ताकतवर हैं। बोधगया, फिर पटना सीरियल ब्लास्ट बताने लगा है कि आतंकी कुछ भी कर सकते हैं। यासीन भटकल कामयाब होता रहेगा। अपने साधन और परिवेश का तो ख्याल रखना होगा न!

मैं देख रहा हूं-आजकल चारों तरफ अलर्ट है। अलर्ट को ले लम्बी लड़ाई हो चुकी है। जब बिहार सरकार की खूब फजीहत हुई, तो वह भी अलर्ट के खेल में शामिल हो गई है। अब वह अपने स्तर से तत्काल अलर्ट घोषित कर देती है। छठ को लेकर अलर्ट था। अलर्ट, हाई अलर्ट, रेड अलर्ट …, अब तो कुछ नहीं होना चाहिए। कुछ नहीं होगा? कोई गारंटी करेगा? इस गारंटी का कोई मतलब है?

मेरी राय में इससे बड़ा सवाल है- क्या वास्तव में नेता चाहता है कि आतंकवाद खत्म हो जाए? इस उदाहरण से इसका जवाब जानिए। मई 1994 में यहां पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई की सक्रियता का मामला पहली बार सामने आया। भागलपुर में उसके नौ लोग पकड़े गए। इनमें कई ने स्वीकार किया कि उसने पाकिस्तान जाकर हथियारों की ट्रेनिंग ली थी। क्या हुआ? मैंने तो ऐसा कुछ नहीं देखा, जो आतंकवाद की जड़ पर चोट कहलाती। सरकार, सिस्टम व इसको चलाने वाले नेताओं के लिए चेतने के ऐसे दूसरे मौकों की कमी नहीं रही। कोई चेता? कुछ किया? यह बुनियादी सच्चाई मारी गई कि भारी गरीबी, बेरोजगारी और वोट की राजनीति ने आतंकियों को बिहार में पसरने का आदर्श मौका दिया? यहां खुफिया रिपोर्टें, विरोधी दल का, मानी जाती रहीं हैं, और आतंकियों को दल विशेष का शार्गिद बताया जाता रहा है। क्या हो जाएगा?

अब इंडियन मुजाहिदीन का रांची माड्यूल सामने है। यह दरभंगा माड्यूल से ज्यादा भयावह है। यह सब पकड़ा जा चुका है। तो क्या यह मान लिया जाए कि यह प्रदेश आतंकियों से पूरी तरह मुक्त हो जाएगा? मैं समझता हूं ऐसी कल्पना खुद को खुशफहमी में रखना है। यह असंभव है। दरअसल, जब तक तुष्टिïकरण की राजनीति और इसकी प्रतिक्रिया में अपने पाले को मजबूत करने का लोभ व इसकी नियोजित प्रक्रिया खत्म नहीं होगी, इसे सामाजिक-आर्थिक मसला भी नहीं माना जाएगा, आतंकवाद जिंदा रहेगा। यही स्थिति अपने महान भारत के लिए भी है।

बहरहाल, मैं आज तक नहीं समझ पाया हूं कि अलर्ट में क्या होता है? मुझे तो यह कुछ -कुछ वैसा ही  लगता है, जैसे बूथ लुटेरों को देखते ही गोली मार देने के आदेश के बीच बूथ लुटते रहे हैं। हां, अलर्ट की बदौलत इस बदनामी से जरूर बचा जा सकता है कि भई, मैंने तो पहले ही कह दिया था। सब अपनी-अपनी नौकरी कर रहे हैं और नेता, अपना देश …?

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