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दागी कौन है जी?

फंटूश
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साधु यादव, साधु यादव हैं। उनको कौन नहीं जानता है? राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद के साला हैं। राबड़ी देवी के भाई हैं। साधु जी का जमाना था। बहुत लोग, बहुत दिन तक याद करेंगे। खैर, उन्होंने मंगल पांडेय (प्रदेश अध्यक्ष, भाजपा) से पूछा है-दागी किसको कहते हैं? दागी की परिभाषा बताएं?

मेरी राय में साधु जी की इस मासूमियत पर कोई भी फिदा हो जाएगा। मैं भी हूं। गलती, साधु जी की नहीं है। उनके इस सवाल का अपना संदर्भ है, मायने है। दरअसल, राजनीति का अपराधीकरण जिस सहज अंदाज और भाव में है, वहां ऐसे सवालों की पुरजोर गुंजाइश है। कोई भी बेहिचक, बेखटके पूछ सकता है -दागी, किसको कहते हैं जी?

मैं समझता हूं-इस सवाल के कई फायदे भी हैं। एक तो इसका जवाब बड़ा मुश्किल है। फिर, कम से कम पूछने वाला पहली नजर में दागी नहीं माना जा सकता है। दागी होगा, तो दागी के बारे में जानेगा ही; सवाल क्यों पूछेगा? पब्लिक यही सोचती है, समझती है। यानी, इस सवाल में खुद को बचाने और दूसरे को फंसाने की ताकत समान भाव से मौजूद है। यही होता भी रहा है।

अभी जदयू ने राजेश कुमार उर्फ चुन्नू ठाकुर को बाहर निकाला। चुन्नू, चर्चित किसलय अपहरण कांड तथा कई अन्य मामलों का आरोपी रहा है। भाजपा व तमाम विपक्षी पार्टियों ने चुन्नू के हवाले राजनीति का अपराधीकरण के मसले को नए सिरे से उछाला और सवाल उठाया कि ऐसे में सुशासन या कानून का राज की दावेदारी कैसे कबूली जा सकती है? यह तारीफ की बात है। राजनीति का अपराधीकरण का विरोध हुआ। और यह इससे भी बड़ी व अच्छी बात है कि जदयू ने चुन्नू से नाता तोड़ लिया। अमूमन ऐसा होता नहीं है। हालांकि यह सवाल अब भी जिंदा है कि आखिर चुन्नू, जदयू में कैसे आ गया?

मैं सुन रहा हूं कि अब भाजपा ऐसे दो और लोगों को जदयू से बाहर करने की मांग कर रही है। ये दोनों भी हाल में जदयू में आए हैं। जवाब में जदयू के नेता कह रहे हैं कि भाजपा के 91 में 46 विधायक दागी हैं। भाजपा इनका आपराधिक चरित्र खुले में लाए। भाजपा चुप है। क्यों चुप है? अब तक अनुभव यही है कि जब भाजपा बोलेगी, तो जदयू के पाले में बैठे ऐसे कई लोगों का नाम भर गिना देगी। यह भाजपा का जदयू को दिया गया जवाब होगा। यह मुनासिब है? सवाल से जवाब दिया जाता है? दोस्ती के दौरान भाजपा, जदयू से ऐसे सवाल पूछती थी? और आज अचानक जदयू को याद आ गई यह बात भी गलत है कि भाजपा के 46 विधायक दागी हैं? यह तरीका सही नहीं है कि दोस्ती की दौर में सबकुछ जायज होता है और दुश्मनी होने पर …? सबकुछ सामने है।

मैं पूछता हूं-मंगल पांडेय, साधु यादव के दागी वाले सवाल का क्या जवाब देंगे? यह, क्या ईमानदार व भरोसे लायक होगा? मंगल जी तथा उनकी पार्टी के कई लोगों ने साधु जी को दागी बताया हुआ है। साधु जी जानना चाहते हैं कि क्या, उनके जैसा भाजपा में कोई नहीं है? अगर हां, तो फिर उसको दागी मानकर बाहर क्यों नहीं किया जाता है? क्या भाजपा, ऐसे तत्वों से खुद को मुक्त कर चुकी है या दागी के बारे में उसके पास कई परिभाषा है? जदयू के पास भी भाजपा के लिए कमोबेश यही सवाल हैं। आखिर कौन जवाब देगा? सभी तो सवालों के कठघरे में हैं।

यह सिर्फ साधु यादव और भाजपा की बात नहीं है। यह सब तो बस प्रतीक है कि कैसे आरोप-प्रत्यारोप की सतही राजनीति में राजनीति का अपराधीकरण संरक्षित रहा, फलता-फूलता, आगे बढ़ता चला गया? अस्सी के दशक में जब बाहुबलियों की पहली जमात विधानसभा पहुंची, तो यही माना गया था कि यह लोकतांत्रिक विसंगति का तात्कालिक चरण है, जो कुछ दिन के अंतराल पर स्वत: समाप्त हो जायेगा। मगर बाद का दौर गवाह बना कि राजनीति की शर्त ही अपराध का संरक्षण या आपराधिक मिजाज है। आज तो कुछ भाई, राजनीतिकरण के उस मुकाम पर हैं, जहां उनको अपराधी कहना ही अपराध है। कौन जिम्मेदार है? यहां अपराधी, शहीद बनाए जाते रहे हैं। लोहा से लोहे को काटने की तकनीक, संतुलन की राजनीति …, अपराध यूं ही संगठित व मजबूत नहीं होता गया? कहीं एकसाथ बचाव और कार्रवाई की बात चलती है?

मुझे याद है, एक बार समाजवादी नेता कपिलदेव सिंह ने कहा था-नेता गुंडा पालता है। उसका इस्तेमाल चुनाव जीतने में करता है। बाद के दिनों में इन अराजक तत्वों ने अपने ही लिए अपनी ताकत का इस्तेमाल किया। इलाके की राजनीतिक शून्यता और पब्लिक के स्तर पर इन तत्वों व नेताओं में बमुश्किल सांपनाथ-नागनाथ वाला फर्क ही इनको संसद और विधानसभा में पहुंचाने लगा। यह साबित करने वाले ढेर सारे उदाहरण हैं कि विधायक-मंत्री बनने के बाद इनका आतंक क्षेत्र और बढ़ा। जब इनके खुद चुनाव लडऩे की गुंजाइश न रही, तो इन्होंने अपनी पत्नी व रिश्तेदारों को चुनाव जीताना शुरू किया। त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था राजनीति का अपराधीकरण का बड़ा मौका साबित हुआ। दोहरा कानून, अपराध की जात …,  जवाबदेह चेहरे छुपे हैं? राहत की बात यह है कि अभी अधिकांश ऐसे लोग जेल में हैं। इससे सुशासन की दावेदारी ताकत पाती है।

मैं देख रहा हूं-जो हालात हैं, वो  सिर्फ कानून के वश की बात नहीं हैं। राजनीतिक दलों की नैतिकता और जनता की जागरूकता भी इस संकट के खात्मे से सरोकार रखती है। कौन, किस मात्रा में अपनी जिम्मेदारी निभा रहा है? जनता पर जिम्मेदारी थोपना अपनी जवाबदेही से मुंह चुराना नहीं है? कोई, कुछ बताएगा?

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