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मैं, तब स्कूल में था। उस समय की पढ़ी एक लाईन जब-तब बहुत याद आती है। लाईन थी -आम तौर पर काहिलों का यह देश सड़क पर गजब की फुर्ती दिखाता है। तब इसका मर्म नहीं समझा था। अब रोज इसको शब्दश: जीता हूं।
मुहल्लों की टूटी-फूटी सड़कों को भी हाईवे मानते हुए अपनी गाडिय़ों को फर्राटा देने वालों को चाय-पान की दुकान पर देखिए। अहा, ये कितने फुर्सत में हैं? साथ वालों से लंबी-चौड़ी गपशप। लेकिन जब यहां से निकलते हैं, तो फिर वही स्पीड …? क्यों? यह काहिली और फुर्ती का सिर्फ एक उदाहरण है।
अभी पटना में एक स्कूली बस गड्ढे में फिसल गई। उसमें छात्राएं थीं। उनके मरने का पूरा इंतजाम कर दिया गया था। शुक्र है कि वे घायल होकर रह गईं। इलाज के दौरान कई बातें सामने आईं। सबसे बड़ी बात यह कि हम हादसों से सबक नहीं लेते हैं। अपने महान बिहार में सड़क दुर्घटना का रिकार्ड है। रोज दिन बड़ी संख्या में लोग मर रहे हैं। मेरी राय में यह बाकायदा नरसंहार है; वैसा कत्लेआम है, जिसका वास्तविक जिम्मेदार ईमानदारी से तय नहीं होता है। आज तक किसी को भी सड़क दुर्घटना का जिम्मेदार मानते हुए नसीहत वाली सजा मिली है? यह मुनासिब है? अरे, जान तो जाती है। ठीक है कि मरने वाले को गोली नहीं लगती है। कोई उसका सिर नहीं काटता है।
खैर, अब जरा इस सीन को देखिए। अहा, क्या दृश्य है? ब्रह्म मुहूर्त में गंगा तीरे भाई लोग भिड़े हुए हैं। हाथ-मुक्का-जुबान …, सबकुछ एकसाथ चल रहा है। मैं देख रहा हूं, इसकी शुरुआत इस तरह हुई है। एक ने दूसरे को चिल्ला कर बोला है-रे, रेऽऽऽ …! आन्हर (अंधा) है का रे? तेरी …? दूसरा-तोरा सुझऽऽलऊ रेऽऽ? जुबान के बाद दोनों के हाथ-पैर स्टार्ट हैं। यह बिहार की लाइफलाइन यानी महात्मा गांधी सेतु है। यह बताता है कि बिहार कैसे चलता है? यह बहुत कुछ सिखाता है। आप भी देखिए।
एक टेम्पो वाला पकड़ा गया है। पुलिस अपनी सारी इनफीयरिटी कम्प्लेक्स (हीनता) उस पर उतार रही है। उस अकेले बेचारे को पुल के जाम का कसूरवार माना गया है। मैं देख रहा हूं-यहां लाइन ही नहीं, लेन तोड़ी जा रही है। यह काम बड़े-बड़े लोग कर रहे हैं। इसलिए पुलिस कुछ नहीं कर रही है।
मैं एम्बुलेंस की चिग्घाड़ सुन रहा हूं। सब सुन रहे हैं। पुलिस है मगर नहीं है। बड़ी लम्बी दास्तान है। यह सब आदमी की किसी भी सूरत में किसी से पीछे न रहने की मानसिकता है। उसका वश चले तो वह गाड़ी के साथ अपने बेडरूम में चला जाएगा। कुछ दिन पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हॉर्न बेस्ड ट्रैफिक के बारे में बता रहे थे। डाकबंगला चौराहा देख लीजिए, यह भी दिख जाएगा कि कैसे साइड लेन की धारणा कहने भर की है। सड़कों पर अतिक्रमण है।
ट्रैफिक के मोर्चे पर अक्सर यह स्वाभाविक सवाल उभरता है कि सरकार क्या कर लेगी? मेरी राय में सरकार को कुछ काम जरूर करना चाहिए। पटना बेली रोड पर पुल बन रहा है। बनना चाहिए। लेकिन इसको पूरा होने तक लोग राजधानी में पहाड़ी क्षेत्र का अनुभव क्यों करें? मैं नहीं जानता कि दीघा- आशियाननगर रोड के समानांतर चलने वाले नाले को ढंकने का काम कब तक पूरा होगा? यहां सड़क, हर मोड़ पर गड्ढे में तब्दील है। यह बस उदाहरण है। मुहल्लों की सड़कों को दुरुस्त करके ट्रैफिक की सहूलियत दी जा सकती है।
मैंने अभी एक खबर पढ़ी थी। एसएमएस से पता चल जाएगा कि पटना में कहां-कहां जाम है? मेरी राय में जिस दिन से यह शुरू होगा, शायद ही कोई अपने घर से अपनी गाड़ी से निकलना चाहेगा। कहते हैं-स्टेशन गोलम्बर के पास ट्रैफिक कंट्रोल को पावरफुल कैमरा है। मुझे यहां कोई कंट्रोल नहीं दिखता है। कंकड़बाग पुल के नीचे सब्जी मंडी है। यहां बड़े डाक्टरों के क्लिनिक हैं। शाम में …!
मैं समझ नहीं पाता हूं कि यही आदमी दानापुर छावनी क्षेत्र में कैसे सुधरा रहता है। नियत स्पीड, अनुशासित ट्रैफिक। तो क्या आदमी सिर्फ डंडे की भाषा समझता है?
मैं समझता हूं कि जीवन में पिछडऩे की इनफीयरिटी कम्पलेक्स सड़क पर आगे निकलने में दिखती है। किसी को भी खुद से आगे नहीं निकलने देने की हवस दिखती है। गैराज में चले जाइए, आदमी की फुर्ती का भयावह अंदाज दिखता है। लोहे के पार्ट-पुर्जे तो दुरुस्त कर दिए जाते हैं, लेकिन हाड़-मांस का आदमी …? फिर किस काम की ऐसी फुर्ती?
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